जग से कब बंजारा होता।

जग से कब बंजारा होता।  

पुष्पित भाव लिए नयनों में मुझको काश पुकारा होता
मन से मन का नेह पनपता जग से कब बंजारा होता।।

नीर कोर तक आकर ठहरे गिरे नहीं पर कहीं खो गए
गीत सजाये जो साँसों ने अधरों पर आ मौन हो गए
मौन मुखर हो जाता उस दिन मुझको बड़ा सहारा होता
मन से मन का नेह पनपता जग से कब बंजारा होता।।

दुख अरु सुख का हुआ मिलन जब आँसू की पहचान हो गयी
पलकों से जो गिरे मचलकर जगती से अनजान हो गयी
नयनों ने कुछ बूँद बचाये वरना कौन हमारा होता
मन से मन का नेह पनपता जग से कब बंजारा होता।।

तारे जितने गिरे गगन से उनके मन की पीड़ा कौन सुने
खाली अंक लिए बैठा जो कुछ बोलो उसके कौन चुने
मन से मन का नेह नहीं जब मन को किया इशारा होता
मन से मन का नेह पनपता जग से कब बंजारा होता।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        22दिसंबर, 2022

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