तोड़ सारी वर्जनाएँ दूर कितना आ गया हूँ।।

तोड़ सारी वर्जनाएँ दूर कितना आ गया हूँ।।

थे लगे प्रतिबंध कितने और कितनी थी कथाएँ
हर कथाओं से जुड़ी थीं कुछ पुरातन भावनाएँ
किंतु सारी भावनाओं से हुआ मन दूर देखो
स्वप्न कुछ ठहरे अधूरे हो न पाए पूर्ण देखो
भावनाओं से निकलकर दूर कितना आ गया हूँ
तोड़ सारी वर्जनाएँ दूर कितना आ गया हूँ।।

है असंगत मेल जब ये क्यूँ सहे फिर ताप मेरा
शब्द से छलनी हुआ मन फिर सहे क्यूँ पाप मेरा
क्यूँ दबाये फिर हृदय में जग रहे निज वेदना को
क्यूँ नहीं फिर से जगाये सुप्त मन की चेतना को
वेदनाओं से निकलकर दूर कितना आ गया हूँ
तोड़ सारी वर्जनाएँ दूर कितना आ गया हूँ।।

क्यूँ समय को दोष देना जब सभी अनुबंध ढीले
रोक अधरों को न पाया हो गए संबन्ध ढीले
आज आकुलता हृदय की जल गई सब दीपिका में
लिख दिए अनुबंध नूतन टूटती इस तूलिका ने
तोड़ कर इस तूलिका को दूर कितना आ गया हूँ
तोड़ सारी वर्जनाएँ दूर कितना आ गया हूँ।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        04जनवरी, 2023


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