बुझ गयी दीपिका रिश्तों की मरीचिका।।
चाहतें मुखर हुईं राहतें सिफर हुईं
दर्द को मिली डगर थी कहाँ किसे खबर
आस भी सिमट गई राह भी सिमट गई
चूर थक के हो गये दूर सबसे हो गये
कह सके न बात को सह सके न घात को
शून्य को निहारते स्वयं को पुकारते
कंठ थे भरे-भरे हम रहे खड़े-खड़े
नेह सभी लुट गये मौन हुई गीतिका
बुझ गयी दीपिका रिश्तों की मरीचिका।।
सांध्य जब मुखर हुई रात ने छुपा लिया
सब दिवस के दर्द को आह ने दबा लिया
साँस थी घुटी-घुटी आहटें छुपी-छुपी
शब्द जो कहे नहीं दूर से समझ गए
कुछ कहे, कहे नहीं, मौन रह पलट गए
और शोर ने कहा बात जो समझ गये
शून्य को निहारते बात क्या सँभालते
सोच में पड़े-पड़े हम रहे खड़े-खड़े
स्वप्न सभी लुट गये जागती रही निशा
बुझ गयी दीपिका रिश्तों की मरीचिका।।
जब नहीं है वास्ता क्यूँ चले मन रास्ता
दूर जब सभी हुए दोष सब बरी हुए
रात की करवटें कह सकी न सिलवटें
दंश जब वहाँ छुए दूर अंक से हुए
कह सकी न रात कुछ बुझ गये सभी दीये
दीप जो जले रहे सोचते पड़े रहे
कर्ज क्या उतारते भोर को पुकारते
रात भर जले-जले यही सोचते रहे
मुक्त कंठ हो गए राख हुई गीतिका
बुझ गयी दीपिका रिश्तों की मरीचिका।।
©✍️अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
06जनवरी, 2023
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