अंतस का अंतर्द्वंद।
कौन सी गहराइयों में
सोचता है डूबे न फिर
दर्द में रुसवाईयों में
अंक में जो द्रोह भारी
क्यों कहो स्वीकार कर लूँ
या लड़ूँ अब स्वयं से मैं
सत्य अंगीकार कर लूँ।।
क्यूँ अकेला चल रहा है
कुछ आज है उत्तर नहीं
शब्द हो या अर्थ जाने
कुछ आज है अंतर नहीं
जब घटायें हों घनेरी
क्यूँ सूर्य का प्रतिकार लूँ
या लड़ूँ अब स्वयं से मैं
सत्य अंगीकार कर लूँ।।
जब खड़ा है युद्ध द्वारे
क्या सोच तेरी भूमिका
हाथ तेरे क्या सजेगा
कह खड्ग या फिर तूलिका
आज भर लूँ प्राण नूतन
तूलिका में धार भर लूँ
या लड़ूँ अब स्वयं से मैं
सत्य अंगीकार कर लूँ।।
था बहुत मुश्किल हमेशा
स्वयं से लड़ना यहाँ पर
खींचना प्रतिबंध रेखा
रोकना मन को वहाँ पर
मन भटकता ही रहा जब
बेड़ियों में आज धर लूँ
या लड़ूँ अब स्वयं से मैं
सत्य अंगीकार कर लूँ।।
झूठ हो या सत्य हरदम
द्वंद सदियों से रहा है
चोट खाया घाव झेला
वक्त ने क्या-क्या सहा है
मुक्त कर लूँ आज खुद को
शून्य का आकार धर लूँ
या लड़ूँ अब स्वयं से मैं
सत्य अंगीकार कर लूँ।।
एक धुँधली रेख देखी
रात दिन के मध्य हमने
चाँद सूरज सामने थे
औ लगे तब पाँव थकने
थक चली संध्या अकेली
आचमन मन आज कर लूँ
अब लड़ूँ क्या स्वयं से मैं
सत्य अंगीकार कर लूँ।।
©✍️अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
18दिसंबर, 2022
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें