धीरे-धीरे।
चली है कैसी पवन धीरे-धीरे
लुट रहा चैनो अमन धीरे-धीरे।।
रात का धुँधलका बढ़ा जा रहा है
रोशनी का हो जतन धीरे-धीरे।।
वादों का अब तो भरम जाल तोड़ो
टूटे सभी अब चलन धीरे-धीरे।।
उजड़ी नहीं एक दिन में ये दुनिया
सदियों ने तोड़ा बदन धीरे-धीरे।।
समय एक जैसा कहाँ तक रहा है
इसने भी बदला वचन धीरे-धीरे।।
महफ़िल में तन्हा नहीं "देव" तुम ही
बनते हैं सारे रतन धीरे-धीरे।।
चलो फिर चलें हम वहीं एक बार
मिलते जहाँ मन से मन धीरे-धीरे।।
©✍️अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
20नवंबर, 2022
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