दो प्रेम पाँखी।
क्यूँ फिक्र मन कोई करे अब दिन ढले या रात हो।।
दूर सागर की तरंगें झूमती हैं गीत गातीं
चूमती तटबंध अल्हण दूर जातीं पास आतीं
हैं रच दिए नवगीत कितने प्रेम के अनुराग के
और ऋतुओं को सिखाये मन साज नूतन राग के
नेह से सींचे धरा चाहे पंथ केवल ताप हो
क्यूँ फिक्र मन कोई करे अब दिन ढले या रात हो।।
थी दूर छिटकी रश्मियाँ जो आज पल-पल पास आतीं
शून्य मन में बंधनों के नेह के अनुप्रास लातीं
मन रहा भटका कभी जो जाने किन-किन रास्तों में
और सहता था कभी जो स्वयं की ही आदतों को
संग तेरे आदतों की फिर आज खुलकर बात हो
क्यूँ फिक्र मन कोई करे अब दिन ढले या रात हो।।
लिख दिया नवगीत पल-पल भर दिया मन प्राण तुमने
मौन था पथ हैं सजाये पुष्प तोरण द्वार तुमने
तुमसे सजे श्रृंगार मन के औ सजी है अल्पना
पूर्ण लम्हों में हुई हैं सब इस सदी की कल्पना
चल पड़े बेफिक्र पथ में ले हाथ तेरा हाथ में
क्यूँ फिक्र मन कोई करे अब दिन ढले या रात हो।।
©✍️अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
05दिसंबर, 2022
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