लम्हों के घाव।
जितना है पाया विवेक बस उतना पन्ना बाँच रहे हैं।।
धर्म संस्कृति से दूर-दूर तक है इनका कोई मोह नहीं
पैसों की खातिर नंगेपन से इनको कोई द्रोह नहीं।।
अभिव्यक्ति के नाम पे सारे घर-घर कीचड़ बाँट रहे हैं
अपने हाथों से शुचिता की जड़ को पल-पल काट रहे हैं।।
हैं सारे ये पथभृष्ट यहाँ बस इनका तो है कर्म यही
इनके बहकावे से बचना क्या अपना है ये धर्म नहीं।।
नङ्गेपन की दौड़ में यहाँ है इनसा कोई और नहीं
चाहे जितने अंग खुले हों पैसों के आगे गौर नहीं।।
बेच चुके हैं अपना जमीर सब अब क्या बेचें सोच रहे हैं
जन गण मन के मनो भाव को गिद्धों जैसे नोच रहे हैं।।
आज लुटी जो नैतिकता तो फिर सोचो कैसी आएगी
लम्हों से जो घाव मिल रहे आगे सदियाँ पचताएँगी।।
©✍️अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
16दिसंबर, 2022
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