शायद।
झूठे वादों को दुनिया में मेल समझते हैं शायद
कुछ खामोशी गहरी होती क्यूँ इतना आभास नहीं
शोर मचाने को दुनिया में मेल समझते हैं शायद
नयनों के सूनेपन के भावों को कब समझा है
पलक झपकने को दुनिया में मेल समझते हैं शायद
यादों में कुछ गीत बसे हैं जिनकी याद सुहानी है
गीत मचलने को दुनिया में मेल समझते हैं शायद
कह देना मुश्किल लगता चुप रहना आसान नहीं
बेफिकरे इस दुनिया को खेल समझते हैं शायद
मन ने दर्द जिया पग-पग पर नहीं शिकायत करी कभी
सहनशीलता को दुनिया में खेल समझते हैं शायद
कुछ सपनों का इन आँखों से गहरा कुछ तो नाता है
इस नाते को दुनियावाले मेल समझते हैं शायद
©✍️अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
17जनवरी, 2023
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