द्वार-चार का गीत अधर पर संध्या लेकर द्वार खड़ी है।।

द्वार-चार का गीत अधर पर संध्या लेकर द्वार खड़ी है।।

तारों की बारात सजी है रात सजी है दुल्हन जैसी
द्वार-चार का गीत अधर पर संध्या लेकर द्वार खड़ी है।।

दिनकर धीरे-धीरे थककर अस्तांचल में छुपा जा रहा
दिनभर में जो लिखी कहानी संझा को सब दिए जा रहा
दिए जा रहा गीत जो लिखे सांध्य पलों में अनुरागों के
और मुखर अधरों के कितने उम्मीदों के संवादों के
अनुरागों की नीति नई अब अहसासों के पार खड़ी है
द्वार-चार का गीत अधर पर संध्या लेकर द्वार खड़ी है।।

चाँद बना है दूल्हा देखो गयी अमावस काली रातें
छिटक-छिटक कर रश्मि कर रही शबनम से मधुमासी बातें
बीते दिन के ताप हुए अब भूली बिसरी एक कहानी
हुए प्रवासी दर्द सभी अब बात हुई सब आनी-जानी
अंतस में नूतन लहरें अब अहसासों के साथ खड़ी हैं
द्वार-चार का गीत अधर पर संध्या लेकर द्वार खड़ी है।।

दूर हुई घड़ियाँ बिछोह की संध्या ने अनुराग जताया
रात-दिवस के मध्य अधूरी साँसों को फिर आज मिलाया
लौट रहे पाँखी कलरव कर मधुर मिलन का गीत सुनाते
शीतल पवन झँकोरे छूकर साँसों को सिहरन दे जाते
मीठी-मीठी सिहरन लेकर संध्या चौखट पार खड़ी है
द्वार-चार का गीत अधर पर संध्या लेकर द्वार खड़ी है।।

✍️©अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        06दिसंबर, 2022

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