मुक्तक।
समंदर के किनारों ने लहर से और क्या पाया
कभी ठोकर थपेड़े औ कभी अवसाद है पाया।
हजारों जख्म खाते हैं मगर चुपचाप रहते हैं
समेटे दर्द कितने ही नया पर गीत है गाया।।
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भले हों बंदिशें कितनी राहें खुल ही जाती हैं
दिलों को जीत लेती हैं साँसें खिल ही जाती हैं।
नहीं अफसोस रहता है मिले जब साथ अपनों का
चलें जब साथ मिलकर के राहें मिल ही जाती हैं।।
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मिले जो दर्द तुमसे अब नहीं उसका मुझे गम है
तुमसे जख्म जो पाये वही अब मेरे मरहम है
मगर इक कशमकश सी है मुझे जो सालती रहती
मुकम्मल जिन्दगी है या अभी कुछ और भी गम है।।
©✍️अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
27जनवरी, 2023
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