पल-पल भावों को तड़पाकर
नयनों में जो चुभते रहते
सिलवट भरी करवटों में जो
रात-रात भर घुटते रहते
जिसने दर्द दिया साँसों को
घुट-घुट जिसमें रहे सुबकते
मुक्त किया बंधन से तन को
दूर निकल आया मन सबसे।।
जली आस बस राख रह गयी
खाली हुआ अंक यादों से
विस्मित हो पल ताक रहे थे
मुक्त हुआ झूठे वादों से
मन की कतरन सिले बिना ही
छोड़ दिया सब साँस दरकते
मुक्त किया साँसों को प्रण से
दूर निकल आया मन सबसे।।
कुछ सपने जीवन से उलझे
प्रतिपल कैसी बहस छिड़ी है
तर्क यही है कौन बड़ा है
बीच मौन है किसे पड़ी है
स्वप्न प्रलोभन छोड़ डगर में
बारिश भींगी स्वयं बरसते
मुक्त किया सब स्वप्न नयन से
दूर निकल आया मन सबसे।।
किसको कह दें आज सँभालो
मन किसको दे जिम्मेदारी
मुक्त करेगा कौन साँस को
दे किसको मन आज सुपारी
जीत गया फिर वक्त आज भी
सपने फिर सब रहे तरसते
मुक्त किया जिम्मेदारी से
दूर निकल आया मन सबसे।।
©✍️अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
03जनवरी, 2023
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