जाने क्यूँ, कुछ छूट जाता है।

जाने क्यूँ, कुछ छूट जाता है।

कुछ अधूरी ख्वाहिशें 
कुछ अधूरी चाहतें
स्वप्न के कुछ पल यहाँ
मौन कदमों के निशाँ
कुछ मचलती राहतें
दूर होती आहटें
वक्त से न जाने क्यूँ
एक लम्हा रूठ जाता है
जाने क्यूँ, कुछ छूट जाता है।।

नेह के कुछ पल यहाँ
संग बीते कल वहाँ
एक हल्की सी छुअन
प्यार की मीठी चुभन
वो नजर का फेरना
और फिर से देखना
फिर पलक के कोर से
बूँद बन, टूट जाता है
जाने क्यूँ, कुछ छूट जाता है।।

वो धूप में बाहर निकलना
बारिशों के संग फिसलना
वो चाँदनी रातें सुहानी
नानी-दादी की कहानी
देर तक चलती वो बातें
छोटी लगती थी वो रातें
चाँद का आँगन उतरना
फिर-फिर याद आता है
जाने क्यूँ, कुछ छूट जाता है।।

जा के आँचल से लिपटना
और फिर उसमें सिमटना
वो खिलौने को मचलना
और कदमों को पटकना
माँगना आकाश तारा
और कहना जग हमारा
वो दूध की छोटी कटोरी
फिर सब याद आता है
जाने क्यूँ, कुछ छूट जाता है।।

शाम को घर से निकलना
दोस्तों के संग टहलना
वो समोसे की लड़ाई
एक दूजे की खिंचाई
साइकिलों पर दूर जाना
अभाव में भी सब कुछ पाना
वो दिलों की चाहतें
अब भी तड़पाता है
जाने क्यूँ, कुछ छूट जाता है।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       17जनवरी, 2023

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