पग-पग ढूँढे राह गाँव की।

पग-पग ढूँढे राह गाँव की।   

हुई प्रवासी जहाँ संस्कृति
मन में उपजी आस छाँव की
मन की कितनी शंकाएं तब
पग-पग ढूँढे राह गाँव की।।

विद्यालय से निकला बचपन
सात समंदर पार मन चला
तोड़ नेह के कितने धागे
आसमान के पार मन चला
विचलित मन जब अनुमानों में
जिस पल चाहे आस छाँव की
मन की कितनी शंकाएं तब
पग-पग ढूँढे राह गाँव की।।

देख समय के चक्र यहाँ पर
वेद पुराण ग्रन्थ सब फीका
जाने कैसे हवा चली है
छूटा रोली चंदन टीका
चकाचौंध में भटक गया मन
जैसे बिन पतवार नाव की
मन की कितनी शंकाएं तब
पग-पग ढूँढे राह गाँव की।।

नहीं आसरा मन को भाये
पंथ जोहते बापू माई
बूढ़ी आँखे पथराईं हैं
कोई चिट्ठी न पत्री आई
बेगानों के बीच पठाये
आयी मन को याद छाँव की
मन की कितनी शंकाएं तब
पग-पग ढूँढे राह गाँव की।।

जीवन के उस अंतिम क्षण में
पैसों का सन्देशा आया
कोशिश करता हूँ आने का
मौखिक इक सन्देशा पाया
आगे बढ़ने की धुन सारी
लगती है जंजीर पाँव की
मन की कितनी शंकाएं तब
पग-पग ढूँढे राह गाँव की।।

दाम कमाया नाम कमाया
पैसों का अंबार लगाया
समय जुआरी बन बैठा जब
दाँव कहीं तब काम न आया
पीछे मुड़ कर मन जब देखा
न आँचल, और नहीं छाँव थी
मन की कितनी शंकाएं तब
पग-पग ढूँढे राह गाँव की।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        01 दिसंबर, 2022

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