अपने अंतस के पट खोलें।।
दूर क्षितिज पर सूर्य ढल रहा आ नैनों में इसे सहेजें
नयनों के पृष्ठों को खोलें यादों को फिर चलो समेटें
पलक भरें यादों के झुरमुट सपनों को फिर चलो टटोलें
आओ इक दूजे से मिलकर अपने अंतस के पट खोलें।।
याद करो उस प्रथम भेंट को जब हम दोनों थे ऋतुणखी
अधरों के दो पुष्प खिले थे नयनों ने सम्मोहन बाँधी
कहें भाव फिर से अंतस के मन के बंद द्वार फिर खोलें
आओ इक दूजे से मिलकर अपने अंतस के पट खोलें।।
हों अक्षर-अक्षर मधुर गीत जब मन में तब छाता है सावन
जहाँ गीत में फागुन आता वहीं गात होता वृंदावन
नेहमुग्ध हो बाँधे मन को अधरों के फिर मधुघट खोलें
आओ इक दूजे से मिलकर अपने अंतस के पट खोलें।।
पता नहीं मधुमास ढले कब जाने कब साँसें ढल जायें
जीवन का ये महादिवस भी संध्या में कब जा घुल जाये
हैं भूली बिसरी जो स्मृतियाँ उनसे फिर से नैन भिंगो लें
आओ इक दूजे से मिलकर अपने अंतस के पट खोलें।।
©✍️अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
14नवंबर, 2022
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