राष्ट्रधर्म।
भूल गए जो राष्ट्रधर्म तो क्या जतलाने आये हो।।
गीता का उपदेश सहजता से कैसे तुम भूल गये
विषकन्याओं की बाहों में तुम जाकर कैसे झूल गये
शील भंग दिखलाते हो क्या शर्म नही तुम्हें आती है
नङ्गेपन की महिमा गाते क्या जिह्वा नहीं लजाती है
बिखरा कर के धर्म संस्कृति बोलो कुछ क्या तुम पाओगे
आने वाली संतानों को क्या नंगापन दिखलाओगे
धनलोलुप हो रही सभ्यता क्या ये दिखलाने आये हो
भूल गए जो राष्ट्रधर्म तो क्या जतलाने आये हो।।
चौराहों पर शोर मचा कर बोलो किसको भरमाते हो
राह रोकते जन गण मन की पर पीड़ित स्वयं दिखाते हो
टुकड़े-टुकड़े के नारों से क्यूँ तुमने खुद को जोड़ा है
क्या अहसास नहीं ये बोलो के राष्ट्र भाव को तोड़ा है
संगीनों को लिए हाथ में बोलो किसको धमकाते हो
अनजाने ही मंसूबों में अब अरि के उलझे जाते हो
अपनी ही जननी का आँचल क्यूँ छलनी करने आये हो
भूल गए जो राष्ट्रधर्म तो क्या जतलाने आये हो।।
गीदड़ धमकी दिए जा रहा सरहद के उस ओर खड़ा हो
लगता जैसे जिद्दी बालक तोड़ खिलौना दूर खड़ा हो
गलबहियाँ कर बैठे जो भी अरि के झूठे अनुमानों में
डाल रहे हैं अपना जीवन स्वयं हाथ से व्यवधानों में
गयी पुरानी रीत यहाँ जो कभी बीतती मनुहारों में
अब सबको उत्तर मिलता है केशव के नव अवतारों में
मगरमच्छ के आँसू से अब किसको पिघलाने आये हो
भूल गए जो राष्ट्रधर्म तो क्या जतलाने आये हो।।
©✍️अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
25दिसंबर, 2022
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें