खुशियाँ मन के द्वार खड़ी थीं पर पीड़ा में उलझा जीवन।।

खुशियाँ मन के द्वार खड़ी थीं पर पीड़ा में उलझा जीवन।

जाने दुःख ने किया बसेरा
अंतर्मन के किन भावों में
तकती आँखें भरी दुपहरी
मृदुल नेह को अनुरागों में
मन में कोई भाव न आया और न कोई चाहत पनपी
सारा दिवस बीनते बीता आशाएं जो बिखरी मन की
बिखरे मन की आशाएं सब रहीं बीनती टूटा दर्पण
खुशियाँ मन के द्वार खड़ी थीं पर पीड़ा में उलझा जीवन।।

कुछ यादों के पुष्प भरे थे
जाने मन फिर भी था रीता
भय ने कैसा डेरा डाला
रात कटी कब दिन कब बीता
सुध-बुध बिसरी जिन गलियों में नहीं याद थी उसमें तन की
उन राहों में खुशियाँ भटकीं भूल गईं सब आहें मन की
पतझड़ बीता सावन आया बूँदों को फिर भी तरसा मन
खुशियाँ मन के द्वार खड़ी थीं पर पीड़ा में उलझा जीवन।।

मन का घट भरने को आईं
सेज सजाने आशाओं की
पपिहे ने मृदु गीत सुनाया
पावस ऋतु में मधुमासों की
लेकिन बरखा बीत गयी सब रहीं तरसती आँखें मन की
गुजर गईं ऋतुएं भी सारी घुटी रही सब साँसें तन की
मधुमासों ने नेह लगाया मन में पर जाने क्या उलझन
खुशियाँ मन के द्वार खड़ी थीं पर पीड़ा में उलझा जीवन।।

कंकड़ पत्थर गूँध-गूँध कर
चाक सजाया बना खिलौना
खाली पन में रंग भरे पर
मन जाने क्यूँ सूना-सूना
पल-पल तकती रहीं द्वार को चूड़ी नहीं न कंगन खनकी
पीड़ा ने बस नेह जताया सुनी रुदन उसने ही मन की
कितना कुछ पाया मन तुमसे फिर जाने क्यूँ रीता मृदु वन
खुशियाँ मन के द्वार खड़ी थीं पर पीड़ा में उलझा जीवन।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        02जनवरी, 2023

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