तोड़ सारी वर्जनाएँ दूर कितना आ गया हूँ।।

तोड़ सारी वर्जनाएँ दूर कितना आ गया हूँ।।

थे लगे प्रतिबंध कितने और कितनी थी कथाएँ
हर कथाओं से जुड़ी थीं कुछ पुरातन भावनाएँ
किंतु सारी भावनाओं से हुआ मन दूर देखो
स्वप्न कुछ ठहरे अधूरे हो न पाए पूर्ण देखो
भावनाओं से निकलकर दूर कितना आ गया हूँ
तोड़ सारी वर्जनाएँ दूर कितना आ गया हूँ।।

है असंगत मेल जब ये क्यूँ सहे फिर ताप मेरा
शब्द से छलनी हुआ मन फिर सहे क्यूँ पाप मेरा
क्यूँ दबाये फिर हृदय में जग रहे निज वेदना को
क्यूँ नहीं फिर से जगाये सुप्त मन की चेतना को
वेदनाओं से निकलकर दूर कितना आ गया हूँ
तोड़ सारी वर्जनाएँ दूर कितना आ गया हूँ।।

क्यूँ समय को दोष देना जब सभी अनुबंध ढीले
रोक अधरों को न पाया हो गए संबन्ध ढीले
आज आकुलता हृदय की जल गई सब दीपिका में
लिख दिए अनुबंध नूतन टूटती इस तूलिका ने
तोड़ कर इस तूलिका को दूर कितना आ गया हूँ
तोड़ सारी वर्जनाएँ दूर कितना आ गया हूँ।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        04जनवरी, 2023


दूर निकल आया मन सबसे।

दूर निकल आया मन सबसे।

पल-पल भावों को तड़पाकर
नयनों में जो चुभते रहते
सिलवट भरी करवटों में जो
रात-रात भर घुटते रहते
जिसने दर्द दिया साँसों को
घुट-घुट जिसमें रहे सुबकते
मुक्त किया बंधन से तन को
दूर निकल आया मन सबसे।।

जली आस बस राख रह गयी
खाली हुआ अंक यादों से
विस्मित हो पल ताक रहे थे
मुक्त हुआ झूठे वादों से
मन की कतरन सिले बिना ही
छोड़ दिया सब साँस दरकते
मुक्त किया साँसों को प्रण से
दूर निकल आया मन सबसे।।

कुछ सपने जीवन से उलझे
प्रतिपल कैसी बहस छिड़ी है
तर्क यही है कौन बड़ा है
बीच मौन है किसे पड़ी है
स्वप्न प्रलोभन छोड़ डगर में
बारिश भींगी स्वयं बरसते
मुक्त किया सब स्वप्न नयन से
दूर निकल आया मन सबसे।।

किसको कह दें आज सँभालो
मन किसको दे जिम्मेदारी
मुक्त करेगा कौन साँस को
दे किसको मन आज सुपारी
जीत गया फिर वक्त आज भी
सपने फिर सब रहे तरसते
मुक्त किया जिम्मेदारी से
दूर निकल आया मन सबसे।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        03जनवरी, 2023

खुशियाँ मन के द्वार खड़ी थीं पर पीड़ा में उलझा जीवन।।

खुशियाँ मन के द्वार खड़ी थीं पर पीड़ा में उलझा जीवन।

जाने दुःख ने किया बसेरा
अंतर्मन के किन भावों में
तकती आँखें भरी दुपहरी
मृदुल नेह को अनुरागों में
मन में कोई भाव न आया और न कोई चाहत पनपी
सारा दिवस बीनते बीता आशाएं जो बिखरी मन की
बिखरे मन की आशाएं सब रहीं बीनती टूटा दर्पण
खुशियाँ मन के द्वार खड़ी थीं पर पीड़ा में उलझा जीवन।।

कुछ यादों के पुष्प भरे थे
जाने मन फिर भी था रीता
भय ने कैसा डेरा डाला
रात कटी कब दिन कब बीता
सुध-बुध बिसरी जिन गलियों में नहीं याद थी उसमें तन की
उन राहों में खुशियाँ भटकीं भूल गईं सब आहें मन की
पतझड़ बीता सावन आया बूँदों को फिर भी तरसा मन
खुशियाँ मन के द्वार खड़ी थीं पर पीड़ा में उलझा जीवन।।

मन का घट भरने को आईं
सेज सजाने आशाओं की
पपिहे ने मृदु गीत सुनाया
पावस ऋतु में मधुमासों की
लेकिन बरखा बीत गयी सब रहीं तरसती आँखें मन की
गुजर गईं ऋतुएं भी सारी घुटी रही सब साँसें तन की
मधुमासों ने नेह लगाया मन में पर जाने क्या उलझन
खुशियाँ मन के द्वार खड़ी थीं पर पीड़ा में उलझा जीवन।।

कंकड़ पत्थर गूँध-गूँध कर
चाक सजाया बना खिलौना
खाली पन में रंग भरे पर
मन जाने क्यूँ सूना-सूना
पल-पल तकती रहीं द्वार को चूड़ी नहीं न कंगन खनकी
पीड़ा ने बस नेह जताया सुनी रुदन उसने ही मन की
कितना कुछ पाया मन तुमसे फिर जाने क्यूँ रीता मृदु वन
खुशियाँ मन के द्वार खड़ी थीं पर पीड़ा में उलझा जीवन।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        02जनवरी, 2023

जाने कौन घड़ी में छूटे लम्हें फिर से मिल जायें।।

जाने कौन घड़ी में छूटे लम्हें  फिर से मिल जायें।।

यूँ मत फेरों नजरों को अंतस का दर्पण हिल जाये
जाने कौन घड़ी में छूटे लम्हें  फिर से मिल जायें।।

मौन मुखरित हो सके फिर भाव की गहराइयों में
छाँव हल्की मिल सके फिर टूटती परछाइयों में
कह सकें फिर बात सारी जो गिरे लम्हें कहीं पर
मुक्त हो मन कह सके फिर वक्त की बातें वहीं पर
 अँगड़ाइयाँ में।

यूँ मत तोड़ो डोर आस की टूटे सपने गिर जायें
जाने कौन घड़ी में छूटे लम्हें  फिर से मिल जायें।।

बनकर समर्पण हैं पड़ीं अब तक भुजायें नेह की
सुर्ख मन को हैं भिंगोती स्वेद बूँदें मेह को
है अभी तक याद मन को मृदु पाश की मीठी छुअन
छू के आँचल से तुम्हारे जो मिली पगली पवन।

यूँ मत रोको मुक्त पवन को भाव हृदय के घुट जायें
जाने कौन घड़ी में छूटे लम्हें  फिर से मिल जायें।।

जी उठेगी भावनाएँ अब बंद मन को खोल दो
सामने जो भी तुम्हारे सब आज मन की बोल दो
मन को मन की चाह प्रतिपल मन ही मन को खोजता
अपने अंतस की ध्वनि में मन है मधुरता खोजता।

यूँ मत रोको मन की राहें मन में गाँठें पड़ जाये
जाने कौन घड़ी में छूटे लम्हें  फिर से मिल जायें।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        01जनवरी, 2023


दिल के मैखाने में।

दिल के मैखाने में।  

मिला दर्द जितना भी इस जमाने में
राहतें उतनी मिली तेरे मैखाने में

सुकून-ए-दिल तलाशते रहे जितना
मिला वो हर बार मुझे इस पैमाने में

है मालूम सच जहर लगता है सब को
इसलिए झूठ को जिलाते हैं जमाने में

चाहा कितना कि सी लूँ मैं होठों को यहाँ
मगर नजरें कब रुकी हैं इसे जताने में

वार करते हैं हरबार रूठ जाते हैं
घबराते हैं आईने के पास आने में

बहुत मुश्किल है जान पाना दिल को
कभी तो बैठो देव दिल के मैखाने में

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        31दिसंबर, 2022







जिंदगी पूछती कब है।



जिंदगी पूछती कब है।  

जिंदगी तू  भी  बोलती कब है
बंद  मुट्ठी को  खोलती कब है

कर ही देती है जो भी है करना
मौका  देने का  सोचती कब है

अपनी मरजी चलाने वालों को
ये  बता  दे  तू  टोकती  कब है

दौरे-हाज़िर में सितम् मुफ्लिस् पे
ढाने  वालों  को  रोकती  कब है

कितने  आये  चले  गये  कितने
तू बता किसको  ढूँढती  कब है

कितने   हसरत   दबाये  बैठे हैं
हाले-दिल उनका पूछती कब है

कैसे कह दूँ कि कुछ नहीं पाया
दे के कुछ भी तू  भूलती कब है

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        29दिसंबर, 2022


दर्द का रिश्ता।

दर्द का रिश्ता।   

दर्द का मुझसे अजब नाता है
कौन अब इतना निभा पाता है

काँटे हों फूल हों या खाली दामन
हर घड़ी मुझसे दिल लगाता है

लोग तो आते हैं चले जाते हैं
पास मेरे यही रह जाता है

कौन है अपना क्या पराया है
वक्त आने पर ये बताता है

आह जो निकली कभी दिल से
पास बस इसको अपने पाता है

लिखे गीत इसपर न जाने कितने
कौन है ऐसा जो इसे न गाता है

कहने को रिश्तों से भरी दुनिया
दर्द का रिश्ता दिल को भाता है

छोड़ परछाईं जब चली जाती
"देव" बस ये ही साथ आता है

उम्र ढली कितनी और बाकी क्या
साथ रहता है साथ जाता है

©✍️अजय कुमार पाण्डेय "देववंशी"
        हैदराबाद
        28दिसंबर, 2022

राष्ट्रधर्म।

राष्ट्रधर्म।  

धर्म ध्वजा को छोड़ हाथ में क्या पारितोषिक लाये हो
भूल गए जो राष्ट्रधर्म तो क्या जतलाने आये हो।।

गीता का उपदेश सहजता से कैसे तुम भूल गये
विषकन्याओं की बाहों में तुम जाकर कैसे झूल गये
शील भंग दिखलाते हो क्या शर्म नही तुम्हें आती है
नङ्गेपन की महिमा गाते क्या जिह्वा नहीं लजाती है
बिखरा कर के धर्म संस्कृति बोलो कुछ क्या तुम पाओगे
आने वाली संतानों को क्या नंगापन दिखलाओगे
धनलोलुप हो रही सभ्यता क्या ये दिखलाने आये हो
भूल गए जो राष्ट्रधर्म तो क्या जतलाने आये हो।।

चौराहों पर शोर मचा कर बोलो किसको भरमाते हो
राह रोकते जन गण मन की पर पीड़ित स्वयं दिखाते हो
टुकड़े-टुकड़े के नारों से क्यूँ तुमने खुद को जोड़ा है
क्या अहसास नहीं ये बोलो के राष्ट्र भाव को तोड़ा है
संगीनों को लिए हाथ में बोलो किसको धमकाते हो
अनजाने ही मंसूबों में अब अरि के उलझे जाते हो
अपनी ही जननी का आँचल क्यूँ छलनी करने आये हो
भूल गए जो राष्ट्रधर्म तो क्या जतलाने आये हो।।

गीदड़ धमकी दिए जा रहा सरहद के उस ओर खड़ा हो
लगता जैसे जिद्दी बालक तोड़ खिलौना दूर खड़ा हो
गलबहियाँ कर बैठे जो भी अरि के झूठे अनुमानों में
डाल रहे हैं अपना जीवन स्वयं हाथ से व्यवधानों में
गयी पुरानी रीत यहाँ जो कभी बीतती मनुहारों में
अब सबको उत्तर मिलता है केशव के नव अवतारों में
मगरमच्छ के आँसू से अब किसको पिघलाने आये हो
भूल गए जो राष्ट्रधर्म तो क्या जतलाने आये हो।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        25दिसंबर, 2022

आवाहन

आवाहन।  

आज विकल है सृष्टि सकल ये मौन रहे तो क्या पाओगे
अंक धरा का रीत रहा है कुछ तो बोलो कब आओगे।।
         
घिरा कुहासा आज धरा पर ओर-छोर कुछ नहीं दिख रहा
धुँधली हुई दिशाएँ सारी दिनकर जाकर कहीं छुप रहा
आज निराशा तेज हो रही जग के सारे अनुमानों में
लगता जैसे क्षीण हो रहे शक्ति रही जो वरदानों में
सुनो पुकार मौन की अब तो, अब तो जग को राह दिखा दो
भटका-भटका जीवन लगता नयनों में फिर आस जगा दो
नहीं जगे जो भाव सुनहरे जग को बस कल्पित पाओगे
अंक धरा का रीत रहा है कुछ तो बोलो कब आओगे।।1।।

आज हवाओं में क्या जाने कैसा-कैसा जहर घुल रहा
किसको है मालूम यहाँ पर क्यूँ कर मन को घाव मिल रहा
बीच धार में मचली किश्ती दूर-दूर तक नहीं किनारा
तेज उफनती धाराओं में डूब न जाये भाग्य सितारा
तूफानों के बीच लहर पर मन शांत चित्त अनुमान लिखो
लहरों को निर्देशित कर दे, हाँ नौका का सम्मान लिखो
लिखो पंथ नवयुग नूतन हो बीते पथ में क्या पाओगे
अंक धरा का रीत रहा है कुछ तो बोलो कब आओगे।।2।।

विचलित पर्वत मौन है सागर पल-पल रीत रही है गागर
उच्छृंखल सब भाव हो रहे मैली होती मन की चादर
प्रतिपल अंतस द्वंद पल रहा साँसों को प्रतिबंध खल रहा
आवेशित हो रहे सभी अब जैसे अपना अंग जल रहा
भींगी पलकें रैन सताती करवट में रातें हैं जाती
अवसादों में गगन घिर रहा शुचिता का सब ढंग गिर रहा
गिरे ढंग जो इस जीवन के बिखरा मन तो क्या पाओगे
अंक धरा का रीत रहा है कुछ तो बोलो कब आओगे।।3।।

आँसू से पूरित नयनों में आ फिर से अंगार सजा दो
युद्ध भूमि में खड़ा हुआ मन आ जाओ फिर नाद बजा दो
टुकड़ा-टुकड़ा हुआ क्षितिज अब धरती का आँचल विह्वल है
रक्त चरित्र को देख मनुजता अंतरतम तक आज विकल है
आजादी पर ग्रहण लगा है धरती का आँचल घायल है
रुनझुन-रुनझुन जो बजती थी मौन हुई वो क्यूँ पायल है
अभिशापित हो रही द्रौपदी मौन रहोगे क्या पाओगे
अंक धरा का रीत रहा है कुछ तो बोलो कब आओगे।।4।।

ठहर न जाये गंग धार ये राहों के अवरोध हटा दो
ठहरी सभी शिलाएँ पथ की ठोकर से सब आज मिटा दो
आ सकते जो नहीं यहाँ तो मन को नूतन राह दिखाओ
अँधियारा हो घना भले ही राहों में फिर दीप जलाओ
चले राह खुद अपनी मंजिल ऐसा फिर आवेग सबल दो
असुरों का सब दंभ मिटा दे आज भुजाओं में वो बल दो
इतना भी जो नहीं हुआ तो युग-युग तक फिर पछताओगे
रीत गया जो अंक धरा का बोलो फिर क्या तुम पाओगे।।5।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        24दिसंबर, 2022



जग से कब बंजारा होता।

जग से कब बंजारा होता।  

पुष्पित भाव लिए नयनों में मुझको काश पुकारा होता
मन से मन का नेह पनपता जग से कब बंजारा होता।।

नीर कोर तक आकर ठहरे गिरे नहीं पर कहीं खो गए
गीत सजाये जो साँसों ने अधरों पर आ मौन हो गए
मौन मुखर हो जाता उस दिन मुझको बड़ा सहारा होता
मन से मन का नेह पनपता जग से कब बंजारा होता।।

दुख अरु सुख का हुआ मिलन जब आँसू की पहचान हो गयी
पलकों से जो गिरे मचलकर जगती से अनजान हो गयी
नयनों ने कुछ बूँद बचाये वरना कौन हमारा होता
मन से मन का नेह पनपता जग से कब बंजारा होता।।

तारे जितने गिरे गगन से उनके मन की पीड़ा कौन सुने
खाली अंक लिए बैठा जो कुछ बोलो उसके कौन चुने
मन से मन का नेह नहीं जब मन को किया इशारा होता
मन से मन का नेह पनपता जग से कब बंजारा होता।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        22दिसंबर, 2022

नहीं अकेला रहा सफर में साथ चली हर बार जिंदगी।।

नहीं अकेला रहा सफर में साथ चली हर बार जिंदगी।।

मौन सफर में चलते-चलते 
कितने लम्हे छूट गये
हुए पराए कितने अपने 
कितने अपने छूट गए
मुक्त हृदय पर रहा सफर में अपनी सबसे रही बंदगी
नहीं अकेला रहा सफर में साथ चली हर बार जिंदगी।।

तेरे सच में मेरे सच में 
जितनी छुपी कहानी है
शोर किया पर जग कब माना
मेरी छपी जुबानी है
समय अंक के गंगा जल में मन की सारी घुलीं गंदगी
नहीं अकेला रहा सफर में साथ चली हर बार जिंदगी।।

पीछे मुड़ कर देखा जब भी
राहों में इक रेख दिखी
समय पृष्ठ के हर पन्ने में
धुँधली सी इक लेख दिखी
त्याग समय के लेख अधूरे आगे बढ़ती रही जिंदगी
नहीं अकेला रहा सफर में साथ चली हर बार जिंदगी।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       22दिसंबर, 2022

अंतस का अंतर्द्वंद।

अंतस का अंतर्द्वंद।   

डूबता है मन न जाने 
कौन सी गहराइयों में
सोचता है डूबे न फिर
दर्द में रुसवाईयों में
अंक में जो द्रोह भारी
क्यों कहो स्वीकार कर लूँ
या लड़ूँ अब स्वयं से मैं
सत्य अंगीकार कर लूँ।।

क्यूँ अकेला चल रहा है
कुछ आज है उत्तर नहीं
शब्द हो या अर्थ जाने
कुछ आज है अंतर नहीं
जब घटायें हों घनेरी
क्यूँ सूर्य का प्रतिकार लूँ
या लड़ूँ अब स्वयं से मैं
सत्य अंगीकार कर लूँ।।

जब खड़ा है युद्ध द्वारे
क्या सोच तेरी भूमिका
हाथ तेरे क्या सजेगा
कह खड्ग या फिर तूलिका
आज भर लूँ प्राण नूतन
तूलिका में धार भर लूँ
या लड़ूँ अब स्वयं से मैं
सत्य अंगीकार कर लूँ।।

था बहुत मुश्किल हमेशा
स्वयं से लड़ना यहाँ पर
खींचना प्रतिबंध रेखा
रोकना मन को वहाँ पर
मन भटकता ही रहा जब
बेड़ियों में आज धर लूँ
या लड़ूँ अब स्वयं से मैं
सत्य अंगीकार कर लूँ।।

झूठ हो या सत्य हरदम
द्वंद सदियों से रहा है
चोट खाया घाव झेला
वक्त ने क्या-क्या सहा है
मुक्त कर लूँ आज खुद को
शून्य का आकार धर लूँ
या लड़ूँ अब स्वयं से मैं
सत्य अंगीकार कर लूँ।।

एक धुँधली रेख देखी
रात दिन के मध्य हमने
चाँद सूरज सामने थे
औ लगे तब पाँव थकने
थक चली संध्या अकेली
आचमन मन आज कर लूँ
अब लड़ूँ क्या स्वयं से मैं
सत्य अंगीकार कर लूँ।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        18दिसंबर, 2022

लम्हों के घाव।

लम्हों के घाव।   

बेशर्मी का खाल ओढ़कर देखो कैसे नाच रहे हैं
जितना है पाया विवेक बस उतना पन्ना बाँच रहे हैं।।

धर्म संस्कृति से दूर-दूर तक है इनका कोई मोह नहीं
पैसों की खातिर नंगेपन से इनको कोई द्रोह नहीं।।

अभिव्यक्ति के नाम पे सारे घर-घर कीचड़ बाँट रहे हैं
अपने हाथों से शुचिता की जड़ को पल-पल काट रहे हैं।।

हैं सारे ये पथभृष्ट यहाँ बस इनका तो है कर्म यही
इनके बहकावे से बचना क्या अपना है ये धर्म नहीं।।

नङ्गेपन की दौड़ में यहाँ है इनसा कोई और नहीं
चाहे जितने अंग खुले हों पैसों के आगे गौर नहीं।।

बेच चुके हैं अपना जमीर सब अब क्या बेचें सोच रहे हैं
जन गण मन के मनो भाव को गिद्धों जैसे नोच रहे हैं।।

आज लुटी जो नैतिकता तो फिर सोचो कैसी आएगी
लम्हों से जो घाव मिल रहे आगे सदियाँ पचताएँगी।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       16दिसंबर, 2022

गीतों का मधुपान करा दो।

*4-गीतों का मधुपान करा दो।*  

आज सुलगते मनो भाव को
शीतलता का भान करा दो
बिखर न जायें भाव हृदय के
मुझको इतना ज्ञान करा दो
बिसरे भावों को आहों को
सांसों को संज्ञान करा दो
प्यासे अब तक कर्ण हैं मेरे
गीतों का मधुपान करा दो।।

चलता पथ पर रहा निरंतर
पग पग उलझा उलझा जीवन
ऋतुओं के मृदु अनुमानों में
बहका बहका था ये उपवन
बरसो बनकर आज घटा तुम
मृदुल नेह का ध्यान करा दो
आज सुलगते मनो भाव को
शीतलता का भान करा दो।।


निर्जल अधरों पर मेरे ये
जाने कैसी प्यास जगी है
मेघ बरसते भीगे सावन
फिर भी कैसी आग लगी है
अंतस के इस सूनेपन में
अपनेपन का मान करा दो
आज सुलगते मनो भाव को
शीतलता का भान करा दो।।

लगता जैसे दूर हो रहे
सपने पलकों से बोझल हो
दूर हो रही परछाईं भी
साँझ ढले पथ में ओझल हो
मन में जो भी आशंकायें
उनको नया विहान दिखा दो
प्यासे अब तक कर्ण हैं मेरे
गीतों का मधुपान करा दो।।

✍️अजय कुमार पाण्डेय
****************

दिल में अभी मेरा बसेरा है।

दिल में अभी मेरा बसेरा है।  

चाँदनी रात थी लेकिन कहीं मन में अँधेरा था
थी जाने बात वो कैसी न जाने कैसा घेरा था

न जाने कैसी रंजिश थी मेरी दिन के उजालों से
थी भीतर रात वो गहरी मगर बाहर सवेरा था

थामा हाथ गैरों का जिन्होंने आज महफ़िल में
नहीं थकते थे वो कहते तेरा हर दर्द मेरा है

हुआ अनजान उनसे भी नहीं अब आस है कोई
नहीं थकते थे जो कहते मिरा दिल में बसेरा है

लिखता हूँ किताबों में मैं बस तेरी कहानी को
यकीं मुझको तिरे दिल में अभी मेरा बसेरा है

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        13दिसंबर, 2022

मुक्तक

मुक्तक-
कभी ये गीत मेरे गाये जाएंगे।।

लिखे जो गीत जीवन के कभी तो मुस्कुरायेंगे
करेंगे याद हर लम्हे इसे सब गुनगुनायेंगे।
गाता हूँ अकेले मैं अभी दुनिया के मेले में 
मेरे गीत महफ़िल में कभी तो गाये जाएंगे।।


कौन है सुनता यहाँ।

कौन है सुनता यहाँ।  

शोर गलियों में बहुत दिखता यहाँ
कौन किसको अब है सुनता यहाँ।।

यूँ तो घनी आबादियों में रहते सभी
बमुश्किल से इंसान अब दिखता यहाँ।।

है बहुत मुश्किल कहना बात दिल की
कौन किसकी बात अब सहता यहाँ।।

था वो कोई दौर सहते थे सभी हर बात को
अब पिता की बात भी कौन है सहता यहाँ।।

यूँ मिलेंगे घाव देने को यहाँ हर मोड़ पर
पास मलहम कौन अब रखता यहाँ।।

टूटते हैं घर अब हर गली हर मोड़ पे
हुनर जोड़ने का कौन अब रखता यहाँ।।

राजनीति बन गयी है खेल अब तो
अब मान इसका कौन है रखता यहाँ।।

झूठ ने वादों से जब से की सगाई
सत्य का व्यवहार कब सहता यहाँ।।

है मिलावट का जमाना "देव" अब तो
हो शुद्ध जब आहार कब पचता यहाँ।।

जब नग्नता हावी हुई परिधान पर
फिर कौन पर्दा आँख में रखता यहाँ।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        13दिसंबर, 2022

सीख जाते हैं।

सीख जाते हैं।   

बेवजह जो मुस्कुराना सीख जाते हैं
दर्द दिल का वो छिपाना सीख जाते हैं।।

भले ही दर्द कितना भी मिला हो इन हवाओं में
चले जो साथ में इनके निभाना सीख जाते हैं।।

जलाया हाथ जिसने भी अँधेरों में चिरागों से
हर तूफान में दीपक जलाना सीख जाते हैं।।

नहीं मिलता जिन्हें कोई सहारा इस जमाने में
जमाने से वो खुद रिश्ता निभाना सीख जाते हैं।।

नहीं तालीम मिलती है छिपाने की इन जख्मों को
समय के संग-संग चलकर खुद छिपाना सीख जाते हैं।।

झुकेगा क्या किसी इंसान के सजदे में वो माथा
गली हर मोड़ पर जो सर झुकाना सीख जाते हैं।।

थाना है कलम जिसने भी लिखने मन के भावों को
सभी के मन को अपना बनाना सीख जाते हैं।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       12दिसंबर 2022

मुक्तक-मौन को इक अर्थ।

मुक्तक-मौन को इक अर्थ।  

ढूँढता प्रतिरोज मन ये एक सुंदर सी कहानी
चाहता जिसमें हृदय फिर डूब जाए बन कहानी।
और भर दे बादलों में नेह की धारा सुनहरी
उम्र भर न सूख पाए जिसकी धाराओं का पानी।।

याद में छाए जो पल ऐसा कुछ अहसास भर दो
मौन भी चुप रह सके न ऐसा नव उल्लास भर दो।
ढूँढती कब तक रहें बदलियाँ ये राहें प्रेम की
हैं आज राहें मुखर फिर अंक में मधुमास भर दो।।

कौन जाने इस सफर का कौन सा पल चल रहा है
कौन जाने भाव कैसा वक्त के मन पल रहा है
वक्त की चुप्पी यहाँ तूफान है कितने समेटे
भोर में निखरा दिवाकर सांध्य पल में ढल रहा है।।

अब और कब तक ढोएंगे ये पाँव जर्जर गात को
ढोएंगी कब तक ये साँसें उस पुरानी बात को
रोज काँधे पर उठाये स्वप्न की गठरी अधूरी
ढोएंगी कब तक ये पलकें उस अधूरी रात को।।

वक्त की पाबंद लहरें  दूर कहाँ तक जायेंगी
ज्वार के अंतिम क्षणों में लौट सतह पर आयेंगी
थक गयी जो पंक्तियाँ इस गीत के अंतिम सफर में
मौन को इक अर्थ देकर वो स्वयं ही छुप जायेंगी।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       11दिसंबर, 2022

दूषित अनुबंध।

दूषित अनुबंध।

देव बनाकर पूज पूज कर
मन ने जिसका सम्मान किया
उसकी चौखट पर जाने क्यूँ
दूषित सब अनुबंध हो गये।।

जिनके पथ पर पुष्प बिछाए
हमने अपनी पलकों के
हमने जिनके पंथ सजाये
जीवन के हर हलकों में।।

गंतव्यों की राह मिली तो
कैसे सब संबन्ध हो गये
उसकी चौखट पर जाने क्यूँ
दूषित सब अनुबंध हो गये।।

संवादों का लिया सहारा
अभिव्यक्ति का मान किया
मुख से निकले हर शब्दों का
प्रतिपल है सम्मान किया।।

मेरी पीड़ा जब गायी तो
कैसे सब प्रतिबंध हो गए
उसकी चौखट पर जाने क्यूँ
दूषित सब अनुबंध हो गये।।

संबंधों में अर्थ बढ़ा तो
अर्थहीन संबन्ध हो गये
कल्पित चक्रव्यूह में सारे
जीवन के आंनद खो गये।।

घट-घट टूट रहा यूँ जीवन
भावों में अब द्वंद हो गये
उसकी चौखट पर जाने क्यूँ
दूषित सब अनुबंध हो गये।।

गीत पिरोया जोड़-जोड़ कर
शब्द-शब्द की मोती से
साज भरे जीवन में सारे
भावों की मृदु मोती से।।

लेकिन अधरों पर जाते ही
बिखरे सारे छंद खो गये
उसकी चौखट पर जाने क्यूँ
दूषित सब अनुबंध हो गये।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        11दिसंबर, 2022

कौन जाने क्यूँ अभी तक अंक का हर पृष्ठ रीता।।

कौन जाने क्यूँ अभी तक अंक का हर पृष्ठ रीता।।

आज फिर व्याकुल नयन ये लिख रहे कोई कहानी
दूर सूनी राह में हैं ढूँढते कोई निशानी
जो लिखा था पृष्ठ पहले आज खाली हो चुका है
पंक्तियों के मध्य जीवन कुछ चला है कुछ रुका है
द्वंद अंतस में अभी तक कौन हारा कौन जीता
कौन जाने क्यूँ अभी तक अंक का हर पृष्ठ रीता।।

ये शोर है कैसा सफर में जो हृदय की बींधता है
शून्यता का भाव पल-पल इस हृदय को खींचता है
आज मन को खींचता है कौन जाने गीत कैसा
रिक्तियों में भर रहा है आज ये संगीत कैसा
है बहुत मुश्किल कहूँ अब दर्द हँसकर मन क्यूँ पीता
कौन जाने क्यूँ अभी तक अंक का हर पृष्ठ रीता।।

मन न जाने गीत गाकर क्यूँ यहाँ दोषी बना है
दो कदम भी चल न पाये वेदना से पथ सना है
गीत नयनों ने लिखे जो बह रहे बन अश्रुधारा
पूछते हैं ये अधर अब कौन जाने है हमारा
शब्द से ही चोट खाये शब्द ही पैबंद सीता
कौन जाने क्यूँ अभी तक अंक का हर पृष्ठ रीता।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        09दिसंबर, 2022

व्यंग्य-असली सरकार।

व्यंग्य- असली सरकार।  

प्यार बुढ़ापे में होता है जवानी में व्यापार
दोनों में मिलता है धोखा जाने क्यूँ हर बार
दोनों के आड़े आती है महँगाई की मार
इन सब को वोटों में ढाले कहते हैं सरकार।।

चिट्ठी, पत्री तार सभी अब मोबाइल से हारे हैं
ऐसा कह दो कौन यहाँ जो इनसे भी न हारे हैं
रोज नीति नई है बनती परिवारों के बीच यहाँ
सुबह उठाई कसम यहाँ वो साँझ ढले बेचारे हैं।।

जो पत्नी की बात न माने ऐसा कोई वीर नहीं
सुनकर के जो मुँह न खोले उससे बढ़कर धीर नहीं
मिलने को तो मिल जाती हैं राहें हर मुश्किल की
पर गलती वो स्वीकार करें सबकी ये तकदीर नहीं।।

बिन माँगे जो मिले यहाँ बीवी की फटकार है
जिसको डांट मिली नहीं जीवन वो धिक्कार है
दोनों में सामंजस्य रखे ऐसे कितने लोग यहाँ
झूठे वादों से बहलाये सच वो ही सरकार है।।

देश दुनिया की खबर बताए वो ही तो अखबार है
चाय पिला कर काम निकाले मित्रों का व्यवहार है
सुबह करे वादा जनता से और निभाने की कसमें
साँझ ढले सब भूल गयी जो असली वो सरकार है।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        07दिसंबर, 2022

द्वार-चार का गीत अधर पर संध्या लेकर द्वार खड़ी है।।

द्वार-चार का गीत अधर पर संध्या लेकर द्वार खड़ी है।।

तारों की बारात सजी है रात सजी है दुल्हन जैसी
द्वार-चार का गीत अधर पर संध्या लेकर द्वार खड़ी है।।

दिनकर धीरे-धीरे थककर अस्तांचल में छुपा जा रहा
दिनभर में जो लिखी कहानी संझा को सब दिए जा रहा
दिए जा रहा गीत जो लिखे सांध्य पलों में अनुरागों के
और मुखर अधरों के कितने उम्मीदों के संवादों के
अनुरागों की नीति नई अब अहसासों के पार खड़ी है
द्वार-चार का गीत अधर पर संध्या लेकर द्वार खड़ी है।।

चाँद बना है दूल्हा देखो गयी अमावस काली रातें
छिटक-छिटक कर रश्मि कर रही शबनम से मधुमासी बातें
बीते दिन के ताप हुए अब भूली बिसरी एक कहानी
हुए प्रवासी दर्द सभी अब बात हुई सब आनी-जानी
अंतस में नूतन लहरें अब अहसासों के साथ खड़ी हैं
द्वार-चार का गीत अधर पर संध्या लेकर द्वार खड़ी है।।

दूर हुई घड़ियाँ बिछोह की संध्या ने अनुराग जताया
रात-दिवस के मध्य अधूरी साँसों को फिर आज मिलाया
लौट रहे पाँखी कलरव कर मधुर मिलन का गीत सुनाते
शीतल पवन झँकोरे छूकर साँसों को सिहरन दे जाते
मीठी-मीठी सिहरन लेकर संध्या चौखट पार खड़ी है
द्वार-चार का गीत अधर पर संध्या लेकर द्वार खड़ी है।।

✍️©अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        06दिसंबर, 2022

दो प्रेम पाँखी।

दो प्रेम पाँखी।  

संग जीवन के सफर में चल रहे दो प्रेम पाँखी
क्यूँ फिक्र मन कोई करे अब दिन ढले या रात हो।।

दूर सागर की तरंगें झूमती हैं गीत गातीं
चूमती तटबंध अल्हण दूर जातीं पास आतीं
हैं रच दिए नवगीत कितने प्रेम के अनुराग के
और ऋतुओं को सिखाये मन साज नूतन राग के
नेह से सींचे धरा चाहे पंथ केवल ताप हो
क्यूँ फिक्र मन कोई करे अब दिन ढले या रात हो।।

थी दूर छिटकी रश्मियाँ जो आज पल-पल पास आतीं
शून्य मन में बंधनों के नेह के अनुप्रास लातीं
मन रहा भटका कभी जो जाने किन-किन रास्तों में
और सहता था कभी जो स्वयं की ही आदतों को
संग तेरे आदतों की फिर आज खुलकर बात हो
क्यूँ फिक्र मन कोई करे अब दिन ढले या रात हो।।

लिख दिया नवगीत पल-पल भर दिया मन प्राण तुमने
मौन था पथ हैं सजाये पुष्प तोरण द्वार तुमने
तुमसे सजे श्रृंगार मन के औ सजी है अल्पना
पूर्ण लम्हों में हुई हैं सब इस सदी की कल्पना
चल पड़े बेफिक्र पथ में ले हाथ तेरा हाथ में
क्यूँ फिक्र मन कोई करे अब दिन ढले या रात हो।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        05दिसंबर, 2022


राष्ट्र प्रथम।

राष्ट्र प्रथम।  

जाति धर्म के नारों में मानवता को बाँट रहे
ऐसा कर के भारत में भारत को ही बाँट रहे।।

बलिदानों ने लिखी कहानी माटी-माटी जीवन जिसका
उसी वृक्ष पर बैठे-बैठे शाख उसी की काट रहे।।

राष्ट्र प्रथम औ राष्ट्र नीति ही जिस भारत का मौलिक है
उस भारत की जड़ में बैठे दीमक बनकर चाट रहे।।

संविधान है मूल राष्ट्र का भारत ऐसी महाशक्ति है
जिसने जग को ज्ञान दिया है उसी ज्ञान को काट रहे।।

आधा ज्ञान डुबा देता है क्या इतना मालूम नहीं
भारत माता को आँचल को टुकड़ों में क्यूँ बाँट रहे।।

शिक्षा का स्थान पवित्र है गुरुकुल ज्ञान ध्यान की भूमि
इसके नैतिक व्यवहारों शुचिता की जड़ काट रहे।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        04दिसंबर, 2022

तुम ना आये।

तुम ना आये।  

नयन द्वार को तकते-तकते
देहरी के तोरण मुरझाये
पुष्प प्रतीक्षारत भावों के
साँझ ढले सारे कुम्हलाये
चली क्षितिज की ओर साँझ अब
रात हुई पर तुम ना आये।।

दूर सितारे कहीं गगन से
चंदा का पथ खोज रहे हैं
रात अकेली चले सफर में
कब तक मन में सोच रहे हैं
नील गगन में उड़ते-उड़ते
बादल रस्ता भूल न जाये
चली क्षितिज की ओर साँझ अब
रात हुई पर तुम ना आये।।

रात दीप की बाती जलकर
कैसे-कैसे भाव जगाए
गूंगे दिन काली रातों के
जाने कितने प्रश्न उठाये
कितने प्रश्न गिरे पलकों से
सूख गए कुछ कह ना पाए
चली क्षितिज की ओर साँझ अब
रात हुई पर तुम ना आये।।

भटक रही हैं यादें मन की
डर है रस्ता भूल न जायें
भूल गए सब रिश्ते-नाते
हाथों से पल छूट न जायें
बीती यादों के सपनों में
पल-पल मन ये उलझा जाये
चली क्षितिज की ओर साँझ अब
रात हुई पर तुम ना आये।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        03दिसंबर, 2022

पग-पग ढूँढे राह गाँव की।

पग-पग ढूँढे राह गाँव की।   

हुई प्रवासी जहाँ संस्कृति
मन में उपजी आस छाँव की
मन की कितनी शंकाएं तब
पग-पग ढूँढे राह गाँव की।।

विद्यालय से निकला बचपन
सात समंदर पार मन चला
तोड़ नेह के कितने धागे
आसमान के पार मन चला
विचलित मन जब अनुमानों में
जिस पल चाहे आस छाँव की
मन की कितनी शंकाएं तब
पग-पग ढूँढे राह गाँव की।।

देख समय के चक्र यहाँ पर
वेद पुराण ग्रन्थ सब फीका
जाने कैसे हवा चली है
छूटा रोली चंदन टीका
चकाचौंध में भटक गया मन
जैसे बिन पतवार नाव की
मन की कितनी शंकाएं तब
पग-पग ढूँढे राह गाँव की।।

नहीं आसरा मन को भाये
पंथ जोहते बापू माई
बूढ़ी आँखे पथराईं हैं
कोई चिट्ठी न पत्री आई
बेगानों के बीच पठाये
आयी मन को याद छाँव की
मन की कितनी शंकाएं तब
पग-पग ढूँढे राह गाँव की।।

जीवन के उस अंतिम क्षण में
पैसों का सन्देशा आया
कोशिश करता हूँ आने का
मौखिक इक सन्देशा पाया
आगे बढ़ने की धुन सारी
लगती है जंजीर पाँव की
मन की कितनी शंकाएं तब
पग-पग ढूँढे राह गाँव की।।

दाम कमाया नाम कमाया
पैसों का अंबार लगाया
समय जुआरी बन बैठा जब
दाँव कहीं तब काम न आया
पीछे मुड़ कर मन जब देखा
न आँचल, और नहीं छाँव थी
मन की कितनी शंकाएं तब
पग-पग ढूँढे राह गाँव की।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        01 दिसंबर, 2022

गोली विज्ञापन की।

गोली विज्ञापन की।  

आज घरों में चौराहों पे 
कानों में बस बोल रहे हैं
कैसी गोली विज्ञापन की
जीवन में ये घोल रहे हैं।।

कदम कदम पर कितने वादे
कितनी रस्में कितनी कसमें
सच्चे कहते झूठे कहते
भरमाया मन रहता जिसमें
भाँति-भाँति के करतब करते
मन को पल-पल मोह रहे हैं
कैसी गोली विज्ञापन की
जीवन में ये घोल रहे हैं।।

क्या अच्छा है क्या अनुचित है
इसका ज्ञान भुला देते हैं
रहे जरूरत भले नहीं पर
मन में चाह जगा देते हैं
मोड़-माड़ कर जोड़-तोड़ कर
दबी आस को तोल रहे हैं
कैसी गोली विज्ञापन की
जीवन में ये घोल रहे हैं।।

काले को ये गोरा करते
अरु गौर वर्ण को और गोरा
भावों पर आलेपन करते
झूठ अधिक सच थोड़ा
थोड़े झूठे थोड़े सच्चे
जाने क्या-क्या बोल रहे हैं
कैसी गोली विज्ञापन की
जीवन में ये घोल रहे हैं।।

ज्ञानी के सब ज्ञान शून्य हैं
थे भावुक पर भाव शून्य हैं
इनके तर्कों के आगे सब
अनुभव औ व्यवहार शून्य हैं
मन को अपने वश में करते
कितने पत्ते खोल रहे हैं
कैसी गोली विज्ञापन की
जीवन में ये घोल रहे हैं।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        01दिसंबर, 2022

विचलित हैं ये गीत हमारे।।

विचलित हैं ये गीत हमारे।।

शून्य हुआ सब बचा कहो क्या
बाँट दिये तट पनघट सारे
जाने कैसी है ये विचलन 
चुभे पुष्प या काँटे सारे
मन में है प्रति पल ये उलझन
कंटक पथ है कौन बुहारे
विचलित हैं ये गीत हमारे।।

इतिहासों की अनुश्रुतियों से
कुछ अनुस्यूत अनुकृतियों से
मन ने थोड़े भाव सजाये
अथक परिष्कृत अभिकृतियों से
जाने कैसी थी वो अनबन
हाथ नहीं कुछ आज हमारे
विचलित हैं ये गीत हमारे।।

जाने कैसा सरोकार है
विस्मृत क्यूँ सभी संस्कार है
गूँज रहे जिन गीतों के स्वर
स्वरों में क्यूँ हाहाकार है
सरोकार में ऐसी ठनगन
मन क्या जीते मन क्या हारे
विचलित हैं ये गीत हमारे।।

जाने मन क्यूँ नहीं जागता
मन अब मन को नहीं बाँधता
बंद पड़े गीता रामायण
चौपालों में नहीं बाँचता
सूना है अब मन का आँगन
चौबारों से कौन पुकारे
विचलित हैं ये गीत हमारे।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        29नवंबर, 2022

अनुश्रुतियाँ- प्राप्त कथा या ज्ञान
अनुस्यूत-ग्रथित, पिरोया हुआ
अनुकृतियाँ- नकल
अभिकृति- एक प्रकार का छंद जिसमें 100 वर्ण या मात्राएं होती हैं।

मेरे मन की प्राण वायु।

मेरे मन की प्राण वायु।

जग कहता है इन गीतों में हमने भावों को रच डाला
सच तो ये है पंक्ति गीत की मेरे मन की प्राण वायु है।।

मन के नूतन आयामों की
आकाशों के पार परिधि है
मुग्ध मनोरम नंदनवन तक
इन नयनों की पुष्पित निधि है
मन के पार कहीं जाकर के
तनिक शून्य से भाव चुराकर
पृष्ठों पर उनको लिख डाला
सच तो ये है भाव पंक्ति के मेरे मन की प्राण वायु है।।

नहीं चाह जग से कुछ पाऊँ
नहीं चाहता मेरी जय हो
अपने मन की चाह यही है
पंक्ति-पंक्ति बस जीवन मय हो
जीवन के कुछ पुण्य पलों से
साँसों का अहसास चुराकर
हमने गीतों में रच डाला
सच तो ये है पंक्ति गीत के मेरे मन की प्राण वायु हैं।।

सुनता हूँ कितनों ने अपने
गीतों से सम्मोहन बाँधा
कितने मन के पार उतरकर
अंतस के भावों को साधा
भावों के उन मौन पलों से
हमने थोड़े मौन चुराकर
उनको बस गीतों में ढाला
सच तो ये है मौन पंक्तियाँ मेरे मन की प्राण वायु हैं।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       26नवंबर, 2022

मुक्तक।

मुक्तक

देख पावन रूप तेरा चाँद शरमाये
मुक्त पलकों की अदायें क्यूँ न भरमाये
नित्य पावस कर रही हों जिसका आचमन
क्यूँ न पाकर पास उसको मन ये हर्षाये।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        25नवंबर, 2022

मन के भाव पंक्तियों में।

मन के भाव-पंक्तियों में।

गीत लिखने का मुझको सलीका न था
शब्द खुद पंक्तियों में आ रचते गये
हमने बस भाव की एक माला बुनी
पृष्ठ की पंक्तियों में वो सजते गये।।

भाव से हमने पग-पग किया आचमन
आँजुरी में भरी छंदों की पाँखुरी
नयनों में प्रेम का जब हुआ आगमन
अधरों पर आ सजी प्रीत की बाँसुरी।।

नयनों के कोर ने दीप माला चुनी
पंथ के बन वो दीपक चमकते गये
हमने बस भाव की एक माला बुनी
पृष्ठ की पंक्तियों में वो सजते गये।।

माथ पर धूलिकण से यूँ कुमकुम सजे
संध्या की रोशनी में नहा मन गया
नेह के धागों से आज ऐसे बँधे
साँचे में मोह के मन सिमटता गया।।

मन से मन ने जो इक अभिलाषा बुनी
मन के आगोश में मन मचलते गये
हमने बस भाव की एक माला बुनी
पृष्ठ की पंक्तियों में वो सजते गये।।

हो चले रिक्त पलकों की जब सीपियाँ
नयनों ने पास आ कर के चुंबन दिया
धुंध बन छाईं जब याद की बदलियाँ
पाश में बाँध कर मन को चंदन किया।।

मन ने मधुमास की लालसा जो बुनी
मन का अहसास पाकर निखरते गये
हमने बस भाव की एक माला बुनी
पृष्ठ की पंक्तियों में वो सजते गये।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        25नवंबर, 2022





भुलाना आ गया होता।

भुलाना आ गया होता।  

अगर खामोशियों से दिल लगाना आ गया होता
बेवजहा तुमको भी मुस्कुराना आ गया होता

जो टकराते नहीं जज्बात यहाँ बहती हवाओं से
तो तुम्हें मँझदार में नौका चलाना आ गया होता

 कि आँचल में किसी छुपकर सुबक लेते जरा हम भी
गुनाहों पर सभी परदा गिरना आ गया होता

जरा सी जी-हुजूर सीख लेते हम दिखावे की
उसूलों से यहाँ आँखें चुराना आ गया होता 

लगे दिल पर सभी जख्मों को "देव" मलहम बना लेते
 हुआ जो दर्द दिल को वो भुलाना आ गया होता

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        23नवंबर, 2022

धीरे-धीरे।

धीरे-धीरे।

चली है कैसी पवन धीरे-धीरे
लुट रहा चैनो अमन धीरे-धीरे।।

रात का धुँधलका बढ़ा जा रहा है
रोशनी का हो जतन धीरे-धीरे।।

वादों का अब तो भरम जाल तोड़ो
टूटे सभी अब चलन धीरे-धीरे।।

उजड़ी नहीं एक दिन में ये दुनिया
सदियों ने तोड़ा बदन धीरे-धीरे।।

समय एक जैसा कहाँ तक रहा है 
इसने भी बदला वचन धीरे-धीरे।।

महफ़िल में तन्हा नहीं "देव" तुम ही
बनते हैं सारे रतन धीरे-धीरे।।

चलो फिर चलें हम वहीं एक बार
मिलते जहाँ मन से मन धीरे-धीरे।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        20नवंबर, 2022



क्यूँ इतना आसान नहीं।

क्यूँ इतना आसान नहीं। 

कम कह देना अधिक समझना
क्यूँ इतना आसान नहीं
आवाजों के इस मेले में
चुप की क्यूँ पहचान नहीं
घाव हृदय के भीतर हो जब
ऊपर से कब दिखता है
विष पीकर हँसने वालों के
होते क्या अरमान नहीं।।

दुःख के अनुभव से गुजरा जो
वो सुख का मोल समझता
अनुभव की चक्की में पिस कर
अंतस का रूप निखरता
अनुभव के उस पुण्य पथिक की
राहें अब आसान नहीं
कम कह देना अधिक समझना
क्यूँ इतना आसान नहीं।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        18नवंबर, 2022

उम्र ढलती रही कब रुकी है यहाँ।।

उम्र ढलती रही कब रुकी है यहाँ।।

दौड़ती भागती पटरियों की तरह
कुछ कहो जिंदगी कब रुकी है यहाँ
सब बदलते रहे मौसमों की तरह
उम्र ढलती रही कब रुकी है यहाँ।।

एक राहों से कितनी हैं राहें जुड़ीं
कुछ रुकी हैं कहीं कुछ मुड़ी हैं कहीं
कुछ चली झूमती मंजिलों की तरफ
और कुछ मंजिलों से चली हैं कहीं
कुछ, मचलती रही आस पल-पल मगर
उम्र ढलती रही कब रुकी है यहाँ।।

सपने नयनों में छुप गये खो गये
रात की गोद में जब कहीं सो गये
उम्र ने पलकों के कोर को तब छुआ
पलकों को नेह नूतन पुनः दे गये
पलकें झुकती रही बदलियाँ की तरह
उम्र ढलती रही कब रुकी है यहाँ।।

वो कहे-अनकहे भाव कुछ आज तक
कंठ में ही रहे जो नहीं कह सके
सालती वो रही टीस पल-पल मगर
अधर की पाँखुरी को नहीं छू सके
खो गईं मौन पल में ग्रहण की तरह
उम्र ढलती रही कब रुकी है यहाँ।।

मधुर एक कहानी की शुरुआत हो
पलकों की बूंद में फिर जज्बात हो
फिर चलो घूम आयें, किनारे वहीं
जुगनू की रोशनी में फिर बात हो
ओढ़ें आकाश फिर आँचल की तरह
उम्र ढलती रही कब रुकी है यहाँ।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       18नवंबर, 2022

बहती हवाओं में।

बहती हवाओं में।  

कहाँ पर है खड़ी दुनिया कहाँ हम आ के ठहरे हैं
क्यूँ लगता है कि अधरों पर बिठाए लाख पहरे हैं
दबी सी टीस उठती है हृदय के एक किनारे से
के खुल कर कह नहीं पाये मिले जो घाव गहरे हैं।।

के वादों में उलझती जिंदगी फरियाद करती है
इरादे नेक हो यदि वीराना आबाद करती है
मगर कथनी और करनी में जहाँ पर फर्क होता है
वहाँ जितनी भी दुनिया है महज बरबाद होती है।।

हमारा देश ये भारत नहीं कोई धर्मशाला है
के दे कर लाख कुर्बानी इसे सदियों ने पाला है
ये सुन लें आज दुश्मन सब लगाए घात बैठे जो
के लम्हों के इरादों ने बदल इतिहास डाला है।।

नहीं है धर्म क्यूँ कोई नहीं कोई निशानी है
दिलों में नेह जो भर दे नहीं ऐसी कहानी है
क्यूँ वोटों के लिए बस खेलते देखा हवाओं को
अंधेरों ने दिलों में क्यूँ बसाई राजधानी है।।

कब ठहरी रोशनी बोलो कहीं गहरी घटाओं से
कब ठहरी धार नदिया की बही उलटी हवाओं से
बनेंगी राहें तब खुद ही इरादे नेक जब होंगे
सजेगी फिर नई दुनिया इन्हीं बहती हवाओं में।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        17नवंबर, 2022




अदावत।

अदावत।  

है कैसा प्यार ये बोलो कि न आधार है कोई
के कुछ भी कह सके न जब कहो अधिकार क्या कोई
टूटी हैं कई कड़ियाँ क्यूँ इस राह में चलकर
महज जब नेह जिस्मों से कहो आधार क्या कोई।।

नहीं मजहब कहीं इसका नहीं कोई रवायत है
कि इसके रूप से हमको नहीं कोई शिकायत है
मगर जो खेल खेले आड़ में वहशी दरिंदों ने
मुझे उस खेल के अंजाम से गहरी अदावत है।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       16नवंबर, 2022

लहरें चाँदनी से बात अपनी कर रही हैं।

लहरें चाँदनी से बात अपनी कर रही हैं। 

ये रात सागर का किनारा और हम तुम घाट पर
देख लहरें चाँदनी से बात अपनी कर रही हैं।।

दूधिया आकाश ओढ़े रात पल-पल ढल रही है
और मीठी सी छुअन दे पौन मद्धम चल रही है
गा रही है गीत ऋतु का सुन रहे हैं चाँद तारे
घुल रही है चाँदनी भी देख अधरों पर हमारे
ओस बूँदें चाँदनी में मोतियों में ढल रही हैं
देख लहरें चाँदनी से बात अपनी कर रही हैं।।

नाचती हैं पंक्तियाँ औ आधरों पर गीत सारे
झूमती हैं बदलियाँ भी झूमते सारे नजारे
कनखियों से रास रचकर रात ने मन को लुभाया
भर दिया अनुराग मन में गीत ने आकाश पाया
नेह की मीठी छुअन से यामिनी भी तर रही है
देख लहरें चाँदनी से बात अपनी कर रही हैं।।

दूर इन पगडंडियों पे देख परियाँ नाचती हैं
गात में मधुमास भरतीं पुष्प से पथ साजती हैं
बीत जाये ना कहीं ये रात की घड़ियाँ सुहानी
और कुम्हलाये कहीं न आधरों की रात रानी
शब्द से श्रृंगार करती पंक्ति आगे बढ़ रही है
देख लहरें चाँदनी से बात अपनी कर रही हैं।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        15नवंबर, 2022

अपने अंतस के पट खोलें।।

 अपने अंतस के पट खोलें।।

दूर क्षितिज पर सूर्य ढल रहा आ नैनों में इसे सहेजें
नयनों के पृष्ठों को खोलें यादों को फिर चलो समेटें
पलक भरें यादों के झुरमुट सपनों को फिर चलो टटोलें
आओ इक दूजे से मिलकर अपने अंतस के पट खोलें।।

याद करो उस प्रथम भेंट को जब हम दोनों थे ऋतुणखी
अधरों के दो पुष्प खिले थे नयनों ने सम्मोहन बाँधी
कहें भाव फिर से अंतस के मन के बंद द्वार फिर खोलें
आओ इक दूजे से मिलकर अपने अंतस के पट खोलें।।

हों अक्षर-अक्षर मधुर गीत जब मन में तब छाता है सावन 
जहाँ गीत में फागुन आता वहीं गात होता वृंदावन
नेहमुग्ध हो बाँधे मन को अधरों के फिर मधुघट खोलें
आओ इक दूजे से मिलकर अपने अंतस के पट खोलें।।

पता नहीं मधुमास ढले कब जाने कब साँसें ढल जायें
जीवन का ये महादिवस भी संध्या में कब जा घुल जाये
हैं भूली बिसरी जो स्मृतियाँ उनसे फिर से नैन भिंगो लें
आओ इक दूजे से मिलकर अपने अंतस के पट खोलें।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        14नवंबर, 2022

मुक्तक- अधरों पर उपकार बहुत है।

अधरों पर उपकार बहुत है।

जीवन के इस महासमर में पीड़ा का आभार बहुत है
जग से इतना कुछ पाया है अब तो ये अधिकार बहुत है
निज पीड़ा पर गीतों ने जो मलहम बनकर चैन दिया है
गीतों के उस महा पंक्ति का अधरों पर उपकार बहुत है।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        13नवंबर, 2022 

समय संग रीत जाता है।

समय संग रीत जाता है।

न समझो राह का पत्थर मैं वही रस्ता पुराना हूँ
जो तुम हो गीत की दुनिया तो मैं भी इक फसाना हूँ
नहीं कोई अदावत है मुझे तुम्हारे जमाने से
जो तुम हो आज की दुनिया तो मैं गुजरा जमाना हूँ।।

जहाँ तुम आज पहुँचे हो उसे हमने ही बनाया है
हटा कर के राह से काँटे नया रस्ता बनाया है
नहीं थी मखमली राहें चुभे कितने शूल पैरों में
औ कितनी ठोकरें खाईं तब जाकर पथ सजाया है।।

नया क्या सूर्य है देखा औ नया कब चंद्रमा देखा
सुना है क्या कभी तुमने नया कोई आसमां देखा
पुराने हैं सितारे ये औ वही रातें पुरानी है
सिवा धरती के आँचल के कोई क्या आसना देखा।।

नया तब दौर आता है जब पुराना बीत जाता है
है समय का खेल कुछ ऐसा समय ही जीत जाता है
कहाँ ठहरी हैं ये राहें उमर संग बीत जाती हैं
भरो सागर से घट कितना समय संग रीत जाता है।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        13नवंबर, 2022

अश्रु पलकों के बहुत कुछ कह गये।।

अश्रु पलकों के बहुत कुछ कह गये।।

बावले कुछ गीत मन में चुभ गये
नैन थे बेचैन कुछ-कुछ कह गये
कुछ कपोलों पर गिरे कुछ मौन थे
अश्रु पलकों के बहुत कुछ कह गये।।

मौन, कितनी व्यथा का भार ढोते
शब्द के घाव का व्यवहार ढोते
हैं कलेजे पर चुभे तीर कितने
कह न पाये, मौन हर बार रोते
दर्द थे जितने सभी चुप सह गये
अश्रु पलकों के बहुत कुछ कह गये।।

अश्रुओं में भींगते मन हारते
देखा है कितने जीवन वारते
जीत के द्वार पे जितने खड़े थे
देखा कितनों को उनमें हारते
हार कर बात दिल जो कह न पाये
अश्रु पलकों के बहुत कुछ कह गये।।

अंक में जो भाव हैं जो है कसक
छोड़ता है मन कहाँ कोई कसर
कंठ में जो शब्द की अब तक तपन
देखा है मन पे सदियों ने असर
कंठ में जो शब्द दब कर रह गये
अश्रु पलकों के बहुत कुछ कह गये।।

क्या नहीं इस अश्रु ने अब तक किया
मौन रह कर बात कितनी कह दिया
किंतु जाने रेख में क्या था यहाँ
आँसुओं ने दर्द को पल-पल सिया
सी न पाए दर्द जो सब बह गये
अश्रु पलकों के बहुत कुछ कह गये।।

भाग्य में जिनके व्यथा लिपटी रही
दर्द से उनका सदा नाता रहा
थी अभागे शब्द की कुछ तो व्यथा
आँसुओं में भींगता गाता रहा
शब्द कितने मौन झर-झर बह गये
अश्रु पलकों के बहुत कुछ कह गये।।

मौन पलकों में कभी आ जब कढ़े
था भला यदि टूट गिर जाते वहीं
जब न कोई दिल पसीजा क्या कहें
टूट कर यूँ ही बिखर जाते कहीं
छूट पलकों से अकेले रह गये
अश्रु पलकों के बहुत कुछ कह गये।।

बह चले जो शब्द दुखिया आँख से
इस जगत ने बस उसे पानी कहा
फिर जगत की लाज क्यूँ पलकें करें
जब किसी ने भी नहीं आँसू कहा
बूँद माटी में मिले गुम हो गये
अश्रु पलकों के बहुत कुछ कह गये। 

क्या कहें क्या बेबसी इनकी रही
साँस से कैसा सदा नाता रहा
जब कपोलों पर लुढ़क कर आ गिरे
नैन से क्यूँ नेह भी जाता रहा
सूख कर के भी हृदय में छप गये
अश्रु पलकों के बहुत कुछ कह गये।।

मौन लम्हों ने कई सदियाँ लिखी
मोड़ कितने और क्या गलियाँ लिखीं
उम्र भी जिस मोड़ पर आ थक गई
उस मोड़ पर आखिरी दुनिया लिखी
काँप कर के शब्द जिस पल दह गये
अश्रु पलकों के बहुत कुछ कह गये।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        10नवंबर, 2022









आज मन के द्वार किसने बीन छेड़ी।।

आज मन के द्वार किसने बीन छेड़ी।। 

घाव सारे आज मन के धुल गये
नैन जो कल तक मुँदे थे खुल गये
आज किस करवट हवायें चल रहीं हैं
बंद थे जो द्वार सारे खुल गये
सज गए सुर तार किसने बीन छेड़ी
आज मन के द्वार किसने बीन छेड़ी।।

आज लहरों ने मधुर संगीत गाया
दूर सागर से मिलन का पथ सजाया
चल पड़ी, मँझधार नौका कब रुकी है
दूर तारों ने मिलन का गीत गाया
चाँद करे सिंगार किसने बीन छेड़ी 
आज मन के द्वार किसने बीन छेड़ी।।

पौन ने छूकर मधुर संगीत गाया
दूर लहरों ने नया फिर सुर सजाया
दो दृगों में स्वप्न फिर नूतन सजे हैं
मौन लम्हों ने नया है राग गाया
मौन हैं उद्गार किसने बीन छेड़ी 
आज मन के द्वार किसने बीन छेड़ी।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        08नवंबर, 2022




हमने जीत-हार के गीत हैं लिखे बहुत।।

हमने जीत-हार के गीत हैं लिखे बहुत।।

प्रेम के व्यवहार के गीत हैं लिखे बहुत
हमने अश्रुधार के गीत हैं लिखे बहुत
क्या मिला नहीं मिला अब कोई गिला नहीं
हमने जीत-हार के गीत हैं लिखे बहुत।।

चाहतों की रश्मियाँ ढूँढते रहे सदा
अंधड़ों में बस्तियाँ ढूँढते रहे सदा
भीड़ में रहे कभी या नीड़ में रहे कभी
मौन अपनी हस्तियाँ ढूँढते रहे सदा।।

वक्त के मनुहार के गीत हैं लिखे बहुत
हमने जीत-हार के गीत हैं लिखे बहुत।।

शीत में रहे जो तो धूप की कशिश रही
धूप में रहे जो तो छाँव की कशिश रही
पूर्णता के भाव क्यूँ मन को छलते रहे
मौन में पुकार की मन को इक़ खलिश रही।।

मौन के आधार के गीत हैं लिखे बहुत
हमने जीत-हार के गीत हैं लिखे बहुत।।

मन की सभी ख्वाहिशें पूर्ण कब हुई यहाँ
उम्र संग चली और कुछ उम्र में घुलीं यहाँ
कुछ ने रास्ते बुने राह में कुछ खो गए
कुछ को चित्रकार की तूलिका मिली यहाँ।।

चित्रों के आधार के गीत हैं लिखे बहुत
हमने जीत-हार के गीत हैं लिखे बहुत।।

रात जब हुई कभी भोर ने आवाज दी
शून्य जब हुए कभी मौन ने आवाज दी
कब कहो के रश्मियाँ सिमट कर रही कहीं
रश्मि के श्रृंगार ने जिंदगी को साज दी।।

रश्मि से श्रृंगार के गीत हैं लिखे बहुत
हमने जीत-हार के गीत हैं लिखे बहुत।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        05नवंबर, 2022



पास हम आने लगे।

पास हम आने लगे।  

शब्द अधरों पर हमारे गीत बन छाने लगे
बेकसी में जब कभी भी याद तुम आने लगे।।

बात पूरी हो न पायी दूर सबसे हो गए
दूरियाँ वो गीत बनकर होंठ पर आने लगे।।

सिलवटों ने माथ पर हैं लिखी जितनी कहानी
उम्र की दहलीज पर वो मौन समझाने लगे।।

कुछ अधूरे गीत उस दिन राह में भटके कहीं
देख कर तुमको यहाँ पर याद सब आने लगे।।

यूँ था सफर छोटा मगर दूरियाँ ऐसी बढ़ीं
दूरियों को पाटने में उम्र को जमाने लगे।।

जिंदगी की रेल का "देव" यूँ सफर चलता रहा 
दूर हम जबसे हुए हैं पास हम आने लगे।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        03नवंबर, 2022


शर्वरी भी गा रही थी।

शर्वरी भी गा रही थी। 

द्वार पर मधुमास लेकर 
प्रेम का अनुप्रास लेकर
लाज का श्रृंगार ओढ़े
पास पल-पल आ रही थी
शर्वरी भी गा रही थी। 

दो दृगों में नेह लेकर
अंक में मृदु प्रेम भरकर
आस का आकाश ओढ़े
स्वप्न नूतन ला रही थी
शर्वरी भी गा रही थी।।

सजल नयन में स्वीकृति थी
नवल नयन नव आकृति थी
झाँझरों के मृदु स्वरों से
साँसें सुर सजा रही थी
शर्वरी भी गा रही थी।।

चाँदनी में आज लिपटी
दो पलों में रात सिमटी
ओस की चादर सुनहरी
पौन मद्धम आ रही थी
शर्वरी भी गा रही थी।।

आँजुरी संसार सारा
अंक में आकाश तारा
भोर भी जिसके सहारे
आस नूतन ला रही थी
शर्वरी भी गा रही थी।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        02नवंबर, 2022



कहीं दूर सरगम साँसों की आहें अब भी बाकी।।

कहीं दूर सरगम साँसों की आहें अब भी बाकी।।

साँझ ढले सागर के तट पर तरुवर है एकाकी
आस सिमटती चली जा रही कितना कुछ है बाकी
लहरों से भी शोर अधिक अब अंतस में उठता है
कहीं दूर सरगम साँसों की आहें अब भी बाकी।।

कौन किनारा छोड़ सका जो छोड़ चले जाओगे
दूर कहीं भी जाओ सबसे यादों में आओगे
कहीं रागिनी मद्धम-मद्धम जब मन बहलायेगी
बरबस तब तस्वीर हमारी नयनों में पाओगे।।

नयनों के कोरों में अब भी कहीं नमी है बाकी
कहीं दूर सरगम साँसों की आहें अब भी बाकी।।

टूटे कितने दफा किनारे लहरों से टकराए
कभी दूर से घात लगाया कभी पास तक आये
बिछड़े कितनी बार लहर से कितने दाग उठाये
दूर कहो कब हुए किनारे, पास लहर के आये।।

लहरों की हर घातों में कुछ, कहीं कशिश है बाकी
कहीं दूर सरगम साँसों की आहें अब भी बाकी।।

छूटा अवसर जो हाथों से मुश्किल फिर आएगा
छूटा मन का साथ कहीं तो जीवन पछतायेगा
बिखरे मन से गीत भला कब कोई गा पाया है
सरगम गीतों से रूठी छंद सँवर कब पाया है।।

सरगम में फिर गीत सजाओ राग अभी भी बाकी
कहीं दूर सरगम साँसों की आहें अब भी बाकी।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        01नवंबर, 2022




राग बिखरने से पहले प्रिय वीणा के तार सँभालो।।

राग बिखरने से पहले प्रिय वीणा के तार सँभालो।।

कितनी घड़ियाँ बीत गईं
 इक दूजे के भाव समझते
कितनी कड़ियाँ छूट गईं
इक दूजे का राग समझते
इक युग बीत गया हमको 
इक दूजे को गीत सुनाते
इक युग बीत गया हमको 
इस ड्योढ़ी तक आते जाते।।

राह भटकने से पहले गीतों का संसार सँभालो
राग बिखरने से पहले प्रिय वीणा के तार सँभालो।।

मन के भाव कहे हर कोई 
इतना तो अधिकार सभी का
मन के भाव समझ पायें 
इतना हो सत्कार सभी का
सबकी रेखों ने कब पाया 
दुनिया का अनमोल खजाना
किंतु समय का मर्म समझना 
हाय, न अब तक सबने जाना।।

समय छिटकने से पहले आहों का व्यवहार सँभालो
राग बिखरने से पहले प्रिय वीणा के तार सँभालो।।

मोल विजय का क्या बोलो
जीत माथ जब चढ़ कर बोले
हारा पर वो जीत गया
जिसने मन के भाव झिंझोड़े
जीत कभी जो कहा नहीं
हार बात वो कह जाती है
आवाजें जो कही नहीं
मौन हृदय के कह जाती है।।

हार-जीत के निस पल में रिश्तों का आधार सँभालो
राग उतरने से पहले प्रिय वीणा के तार सँभालो।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        29अक्टूबर, 2022




पास तेरे आ चुका हूँ दूर अब जाना नहीं है।।

पास तेरे आ चुका हूँ दूर अब जाना नहीं है।।

बाँध मुझको आज अपने नेह के नव बंधनों में
पास तेरे आ चुका हूँ दूर अब जाना नहीं है।।

रोक मुझको न सकीं संसार की घातें कोई भी
बाँध मुझको न सकीं अवसाद की रातें कोई भी
माना मेरे पथ में केवल कंटकों के जाल थे
जंजीर थी इक पाँव में औ अंक में जंजाल थे
दूर आया हूँ सभी से लौट अब जाना नहीं है
पास तेरे आ चुका हूँ दूर अब जाना नहीं है।।

धूल के कुछ कण उड़े जो शीश पर मेरे गिरे थे
सिलवटें कभी मिट सकी न भाल पर ऐसे सटे थे
किंतु मेरी भावनाओं ने मुझे बाँधा यहाँ पर
थे भरे जब नैन मेरे दोष था आधा वहाँ पर
बहुत बिखर का दर्द पाया और अब पाना नहीं है
पास तेरे आ चुका हूँ दूर अब जाना नहीं है।।

मुक्त हूँ सब बंधनों से मुक्त आहों के सफर से
मुक्त हैं अब सब किनारे मुक्त सागर की लहर से
आज मन की रागिनी निर्बाध निर्झर बह रही है
संग पा कर के मधुर सब भाव मन के कह रही है
कह रही है चाह मन की और अब पाना नहीं है
पास तेरे आ चुका हूँ दूर अब जाना नहीं है।।


©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        27अक्टूबर, 2022

दिन ने माना दिया बहुत कुछ कम रातों ने भी दिया नहीं।।

दिन ने माना दिया बहुत कुछ
कम रातों ने भी दिया नहीं।।

नभ के सारे पंछी थककर
तरुवर को अपने लौट रहे
सागर में बलखाती नौका
फिर तटबंधों को ओर चले
पश्चिम की गोदी में जाकर
थक कर किरणें कहीं छुप रहीं
दबे पाँव संध्या भी आकर
रातों को आवाज दे रहीं
कितना कुछ दिन ने ढोया है
उफ्फ तक लेकिन किया नहीं।।

दिन के कितने काम अधूरे
चाहे लेकिन कर ना पाये
अधरों तक कितनी ही बातें
आईं लेकिन कह ना पाये
पलकों ने था किया इशारा
औ साँसों ने स्वीकार किया
पर कुछ बातें रहीं अधूरी
आ रातों ने सत्कार किया
मन से मन की डोरी बाँधी
नव सपनों को पर दिया यहीं।।

रवि का रजनी से आलिंगन
संध्या साक्षी स्नेह मिलन का
उपवन का हर कोना महका
ऐसे बहका झोंक पवन का
आज प्रतीक्षा में यादों ने
फिर से मन का दीप जलाया
आलिंगन में पिय को पाकर
पपिहे ने मधुमास जगाया
दिन का चाहे ताप गहन था
रातों ने उफ्फ किया नहीं।।

दिन ने माना दिया बहुत कुछ
कम रातों ने भी दिया नहीं।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        26अक्टूबर, 2022

देख खुशियाँ आ रही हैं।

देख खुशियाँ आ रही हैं।  

दीप की जगमग लताओं ने कुहासों को मिटाया
रात की गुमनामियों से देख पर्दा है उठाया
आज खुशियाँ स्वयं चल कर द्वार देखो आ रही है
और चादर जो तिमिर की दूर देखो जा रही है
दीप आशा के जगे हैं जिंदगी भी गा रही है
देख खुशियाँ आ रही हैं।।

रोशनी से जगमगाया औ गेह वंदनवार से
झूम कर दिल मिल रहे हैं इस दीप के त्यौहार में
आज आशा की किरण भी देख नर्तन कर रही है
और ये बहती हवायें आस नूतन भर रही हैं
दीप की लड़ियों में सजकर रात मुस्कुरा रही है
देख खुशियाँ आ रही हैं।।

आज हम भूलें दिवस के ताप थे जो भी हठीले
आज मिलकर गुनगुनाएं राग जीवन के सुरीले
अवसादों के अंधेरे अब आज सारे त्याग दो
वीथियों पे नेह लिख दो औ गात को नव साज दो
गात का श्रृंगार करने की घड़ी अब आ रही है
देख खुशियाँ आ रही है।।

भाव को चंदन करें हम थाल पूजा के सजाएँ
आंजुरी में आस भरकर नेह से हम पथ सजाएँ
जब मिलेंगे दिल सभी के गीत अधर ये गाएंगे
प्रेम को आशय मिलेगा देव धरा पर आएंगे
रात का श्रृंगार करने दीपमाला छा रही है
देख खुशियाँ आ रही हैं।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        23अक्टूबर, 2022

जब बिछड़ना है हमें कहो कैसे मन के तार बाँधूं।।

जब बिछड़ना है हमें कहो कैसे मन के तार बाँधूं।।

सत्य हो या कल्पना हो या फिर कोई अभ्यर्थना हो
स्वप्न हो माधुर्य कोई भावों की अभिव्यंजना हो
व्यर्थ आशाएं सभी कहो मन से क्यूँ कर रार ठानूं
जब बिछड़ना है हमें कहो कैसे मन के तार बाँधूं।।

आज रोना व्यर्थ होगा आँसुओं का कुछ न अर्थ होगा
जब बूँद माटी में मिलेगी चाँदनी पल-पल जलेगी
जब चाँदनी अपनी नहीं फिर क्यूँ कहो श्रृंगार साजूं
जब बिछड़ना है हमें कहो कैसे मन के तार बाँधूं।।

आएगा मधुमास फिर से, फिर से पपीहे गायेंगे
चाहे तुम जितना पुकारो पर हम नहीं फिर आएंगे
गीत ही जब ना रहेंगे कैसे कहो नव राग साजूं
जब बिछड़ना है हमें कहो कैसे मन के तार बाँधूं।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        21अक्टूबर, 2022

सोचते ही रह गये।

सोचते ही रह गये।   

कल्पना के पृष्ठ अंकित नेह की कुछ पंक्तियाँ
गीत का अधिकार पायें सोचते ही रह गये।।

प्रश्न लाखों उठ रहे नेह की संवेदना पर
उँगलियाँ भी उठ रही गेह की अवचेतना पर
हैं दिलासे लाख लेकिन पास सम्मुख कुछ नहीं
दूर तक इन वीथियों पे दीखता भी कुछ नहीं
मौन सब संवेदनाएँ वीथियों में ढह गये
गीत का अधिकार पायें सोचते ही रह गये।।

चाहतें हर पल रही दूर हैं जो पास आएं
जो कभी बिछड़े सफर में साथ मिल गुनगुनाएं
सोचता हर पल यही दिल आज उसको क्या मिला
क्यूँ नहीं टूटा अभी तक हादसों का सिलसिला
हादसों के सब निशाँ वो साँस में ही घुल गये
गीत का अधिकार पायें सोचते ही रह गये।।

हूक कभी उठी हृदय में कंठ में ही रुक गयी
नैन बरबस भींग कर के क्या कहे बस झुक गये
आज जाना हर कहानी ढूँढती है छाँव क्यूँ
और पगडंडी अकेली ढूँढती है गाँव क्यूँ
छाँव की मारीचिका में स्वप्न सारे ढह गये
गीत का अधिकार पायें सोचते ही रह गये।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       20अक्टूबर, 2022

अंक में बस प्यार लिखना।

अंक में बस प्यार लिखना।  

स्वप्न का चुंबन पलक पर नेह का आधार लिखना
रात कितनी भी घनेरी अंक में बस प्यार लिखना।।

इस हृदय से उस हृदय का मेल माना के कठिन है
पास से गुजरो कभी तो पंथ का विस्तार लिखना।।

भूल हो चाहे जिधर की या दर्द की स्मृतियाँ पुरानी
भाव कुछ भी हो हृदय में आस का संसार लिखना।।

रूठ कर जो जा रहे हैं आज जीवन के सफर में
लौट कर आओ कभी तो नेह का अधिकार लिखना।।

रात माना है घनेरी कुछ नहीं जब दिख रहा हो
खोल पलकों के किनारे इक नया भिनसार लिखना।।

कौन कहता बादलों को दर्द कभी होता नहीं है
बूँद छूटी बादलों से टूटता अधिकार लिखना।।

उम्र कब ठहरी है बोलो "देव" सदियों के सफर में
मौन लम्हों में, पलों में स्नेह का विस्तार लिखना। 

©✍️अजय कुमार पाण्डेय "देववंशी"
        हैदराबाद
       19अक्टूबर, 2022

काश समय की बहती धारा मैं मोड़ उधर ले आ पाता।।

काश समय की बहती धारा मैं मोड़ उधर ले आ पाता।।

बहुत सुनी हमने गीतों में
अनुरागों की मधुर कहानी
बहुत सुनी है जग से हमने
प्यार मुहब्बत और जवानी
मैं काश पलों के भावों को अपने गीतों में गा पाता
काश समय की बहती धारा मैं मोड़ उधर ले आ पाता।।

नाजुक लम्हों में जीवन का
भूले से पल वो बिछड़ गया 
बसने से पहले सपनों का
पलकों से रिश्ता उजड़ गया
काश स्वप्न के बिखरे पल को मैं नयनों में फिर ला पाता
काश समय की बहती धारा मैं मोड़ उधर ले आ पाता।।

कुछ अश्रु तुम्हारे पलकों में
कुछ मेरी पलकों में आये
संध्या के उन मौन पलों ने
जाने तुमको क्या दिखलाये
काश नयन की निज पीड़ा को मैं तुमको फिर बतला पाता
काश समय की बहती धारा मैं मोड़ उधर ले आ पाता।।

सूरज मौन क्षितिज में जाकर
जब सागर तल में डूब गया
सांध्य सिमटती रही अकेली
तब अंजुलि से पल छूट गया
बिखरे पल की उस पीड़ा का मैं घाव अगर दिखला पाता
काश समय की बहती धारा मैं मोड़ उधर ले आ पाता।।

गात खंडहर वीराना सा
मन में लेकिन शोर उठ रहा
रात उनींदी पलकों में क्यूँ
पल-पल कोई कोर चुभ रहा
काश हाथ से छूटे पल से मैं पलकों को नहला पाता
काश समय की बहती धारा मैं मोड़ उधर ले आ पाता।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        17अक्टूबर, 2022

चंचल नदिया लहराने दो।।

चंचल नदिया लहराने दो।।

मुक्त धरा उन्मुक्त गगन है
मुक्त भाव उन्मुक्त पवन है
मुक्त नयन में मौन सपन है
फिर क्यूँ ऐसी आज तपन है
मन भावों को महकाने दो
चंचल नदिया लहराने दो।।

कौन लहर का कहाँ किनारा
कहती कब नदिया की धारा
दूर क्षितिज पर तटबंधों का
कहो यहाँ है कौन सहारा
पल-पल ये बलखाती नदिया
विकल समंदर को पाने को।।

संध्या के इन मौन पलों में
कितना कुछ तुमसे कहने को
जो तुम मेरे पास नहीं हो
यादों को कुछ पल रहने दो
यादों के मानसरोवर में
मेरे मन को खो जाने दो।।

माना पथ में रात हुई है
दूर भोर किरणों की नगरी
अब भी पनघट की राहों पर
भोर खड़ी सर पर ले गगरी
दो बूँद प्यार की गागर के
मेरे अधरों को पाने दो।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       16अक्टूबर, 2022


साथी पर अब चलना होगा।।

साथी पर अब चलना होगा।।

बहुत हुईं बातें मृदुवन की
जगती के संवेदन मन की
तुमने मन की बात कही है
मैंने सारी बात सुनी है
मैंने भी कुछ तुमसे बोला
तुमने बंद हृदय को खोला
जीवन पथ पर मन जब हारा
इक दूजे का बने सहारा
ऐसे ही तो पलना होगा
साथी पर अब चलना होगा।।

कैसे बाँधूँ तुमसे बंधन
मन पर बोलो किसका शासन
मन तो प्रतिपल चला अकेला
साथ भले दुनिया का मेला
मन ने मन की बात सुनी है
तब जाकर ये राह चुनी है
जगती में है कौन हमारा
वादों का ही एक सहारा
वादा फिर से करना होगा
साथी पर अब चलना होगा।।

तकदीरों का कैसा नर्तन
संसृति का ये कैसा शासन
सागर के लहरों की जाने
तटबंधों से कैसी अनबन
टकराते हैं दूर किनारे
इक दूजे को मगर पुकारें
लहरों पर मन का नौकायन
खोल द्वार, सारे वातायन
लहरों सा ही बहना होगा
साथी पर अब चलना होगा।।

साथी हम दूजे को मानें
ऊंच-नीच क्या है पहचानें
इक दूजे का मान करें हम
इक दूजे का ध्यान धरें हम
अपनी सीमाओं को जानें
संकेतों को हम पहचानें
निजता का सम्मान करें हम
आहों में गुणगान करें हम
पल का मूल्य समझना होगा
साथी पर अब चलना होगा।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       13अक्टूबर, 2022

आशाओं के पुष्प खिलाओ।।

आशाओं के पुष्प खिलाओ।।

माना तेज बहुत है धारा
पथिक वही जो थका न हारा
पग-पग जिसने पंथ बुहारा
आहों का ना लिया सहारा
जिसने जीवन क्या समझाया
आहों में भी जिसने गाया
उसके सपने हैं सुखदाई
जिसने मन की प्यास बुझाई
ऐसे ही पथ को अपनाओ
आशाओं के पुष्प खिलाओ।।

मरुथल जिसने पीछे छोड़ा
बिखरी सांसों को फिर जोड़ा
छोड़ा जिसने सभी निराशा
मन में भरकर नूतन आशा
जिसने सपनों को अपनाया
जिसने पलकों को सहलाया
जिसने राहें नई सुझाईं
जिसने की मन की सुनवाई
ऐसा जीवन तुम अपनाओ
आशाओं के पुष्प खिलाओ।।

कौन कहो जो सदा रहेगा
समय कहो क्या यहाँ रुकेगा
कौन कहो जो यहाँ अमर है
मिला यहाँ जो सब नश्वर है
जीवन छोटा पग-पग आशा
बड़ी, उमर से है प्रत्याशा
दूर दृष्टि वीथी पर डालो
अपना पथ तुम स्वयं सजालो
मन से मन को स्वयं मिलाओ
आशाओं के पुष्प खिलाओ।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        11अक्टूबर, 2022

गात का नव आवरण हो।

गात का नव आवरण हो।  

शब्द का अवतार पा भाव में व्यवहार ला
शब्द को विस्तार देकर भाव में व्यवहार लाकर
गीत की नव कल्पना हो औ सुनहरी अल्पना हो
हाँ, भरे कुछ रंग मन में नेह का आशय गगन में
मौन का फिर से क्षरण हो गात का नव आवरण हो।।

वो मनुजता व्यर्थ होगा आहों का क्या अर्थ होगा
नेह किंचित जिसमें होगा स्वार्थ सिंचित जिसमें होगा
संशयों का भाव होगा प्रतीति का अभाव होगा
संशयों का फिर क्षरण हो गात का नव आवरण हो।।

सत्य तो लाचार कैसा झूठ का अधिकार कैसा
हैं निपुण जब पंथ सारे राह में पाषाण कैसा
दृष्टिगोचर कल्पना जब व्यर्थ सारी जल्पना तब
दुस्साध्य का फिर वरण हो गात का नव आवरण हो।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       10अक्टूबर, 2022


देख संध्या ढल रही है।

देख संध्या ढल रही है। 

मुक्त हो कर बंधनों से मिल रहे धरती गगन
झूमती हैं नाचती हैं बदलियाँ भी हो मगन
सज रहे गीत मनहर देख सागर के किनारे
चाहतों की तितलियाँ गीत में तुमको पुकारे
आज फिर से मिलन की आस मन में पल रही है
देख संध्या ढल रही है।।

ढल रहा है सूर्य देखो बादलों के अंक में
घुल रही है सांध्य देखो चाँदनी के रंग में
सांध्य का चमका सितारा कह रहा है पास आ
आ मिलें हम इस सफर में देखो अब न दूर जा
इस सफर की राह भी साथ अपने चल रही है
देख संध्या ढल रही है।।

रश्मियाँ भी चाँद की देखो धरा को चूमती
ओढ़ कर आँचल गगन का मस्त हो कर झूमती
पंछियों के शांत स्वर भी कुछ इशारे कर रहे
दूर मन को छाँव के, सुंदर नजारे हर रहे
आस के आकाश की चाह मद्धम पल रही है
देख संध्या ढल रही है।।

चाहता है दिल यहाँ अब बात सब कुछ बोल दूँ
बंद सदियों से हृदय के द्वार सारे खोल दूँ
बोल दूँ भाव सारे जो बसे दिल में हमारे
तुम कहो पंक्तियों में आज भर दूँ चाँद तारे
देख तुमको गगन की बदलियाँ भी जल रही हैं
देख संध्या ढल रही है।।

है तमन्ना चाहतों के गीत सब अर्पित करूँ
और अधरों पर हृदय के प्रीत मैं अंकित करूँ
स्वप्न सिन्दूरी सजाऊँ नैन की पाँखुरी में
और भर दूँ नेह बस इस सुकोमल आँजुरी में
स्वप्न सिन्दूरी लिए चाँदनी भी चल रही है
देख संध्या ढल रही है।।

रात से निस्तार होकर चाँदनी बिखरी यहाँ
रूप का श्रृंगार पाकर कामना निखरी यहाँ
आ भी जाओ गीतों की पंक्तियाँ खो न जायें
रात की आगोश में रश्मियाँ भी सो न जायें
सो न जाये प्रीत की दीपिका जो जल रही है
देख संध्या ढल रही है।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय

         हैदराबाद

        09अक्टूबर, 2022

आहों के कुछ चिन्ह बचे हैं यादों में मेरे रहने दो।।

आहों के कुछ चिन्ह बचे हैं यादों में मेरे रहने दो।।

तेरी पलकों के आँसू को अपनी पलकों में लेता हूँ
अपने हिस्से की खुशियाँ सब तेरी झोली में देता हूँ
कितना कुछ पाया है तुमसे उसको हँसकर के सहने दो
आहों के कुछ चिन्ह बचे हैं यादों में मेरे रहने दो।।

धूप-छाँव में इस जीवन के माना तुमने सबकुछ पाया
पर तुमको मालूम नहीं है तुमने कितना कुछ ठुकराया
मुझमें जो अवशेष बचे हैं उसको मुझको ही सहने दो
आहों के कुछ चिन्ह बचे हैं यादों में मेरे रहने दो।।

तुमको क्या जब भी चाहोगी नए बहाने मिल जाएंगे
जिस पथ तेरे कदम पड़ेंगे नए ठिकाने मिल जाएंगे
माना तेज बहुत है धारा लहरों में मुझको बहने दो
आहों के कुछ चिन्ह बचे हैं यादों में मेरे रहने दो।।

तुमसे कुछ भी प्रश्न करूँ मैं आहों को स्वीकार नहीं है
कैसे तेरा नाम पुकारूँ अधरों को अधिकार नहीं है
साँसों में कुछ ताप बसे हैं उनको साँसों में बसने दो
आहों के कुछ चिन्ह बचे हैं यादों में मेरे रहने दो।।

कागज पर अब कलम चला कर अंतरतम को रीत रहा हूँ
जब से तुमसे दूर हुआ हूँ खुद से लड़ना सीख रहा हूँ
जीता जो पल पास नहीं है हार गया जो पल सहने दो
आहों के कुछ चिन्ह बचे हैं यादों में मेरे रहने दो।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        07अक्टूबर, 2022

कुछ तो लगाव है।

कुछ तो लगाव है। 

कदम-कदम पे रास्तों में कैसा ये दुराव है
न ओर है न छोर है न दिख रहा पड़ाव है।।

क्या अर्थ है, अनर्थ है क्या कहें क्या व्यर्थ है
हर घड़ी न जाने कैसा मोह का घेराव है।।

पलकों में भरे हैं स्वप्न कितने भोर के लिए
नींद से नयन का फिर जाने क्यूँ दुराव है।।

चल रहे हैं रास्ते यहाँ साथ में मेरे मगर 
हैं पूछते कदम मेरे दूर कितना गाँव है।।

अब थक गई है साँझ भी कठिन रहा सफर यहाँ 
सिलवटों पे माथे के अब रात का कसाव है।।

दूर आ गये कहाँ हम छोड़ कर गलियाँ सभी
जाने रास्तों से अब भी कैसा ये खिंचाव है।।

रात जोहती रही यहाँ भोर की कुछ रश्मियाँ
भोर का भी रात से, "देव" कुछ न कुछ लगाव है।।


©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
         06अक्टूबर, 2022

कितने प्रश्न रुके अधरों पर आधार यहाँ मालूम नहीं।।


कितने प्रश्न रुके अधरों पर आधार यहाँ मालूम नहीं।।

घने अँधेरे गलियारों में छोटा सा इक द्वार तलाशो
अंतरतम आह्लादित कर दे ऐसा कुछ उपकार तलाशो
निपट दूसरों की आहों में अपने गीत नहीं सुनना
दूजे के गीतों में भी अपने कुछ व्यवहार तलाशो।।

गीतों में जो मिला यहाँ उपहार कहो मालूम नहीं
कितने प्रश्न रुके अधरों पर आधार यहाँ मालूम नहीं।।

अनुरोधों औ अनुदानों के मध्य झूलता जीवन सारा
जीवन की बाजी में जीवन कितना जीता कितना हारा
अवसादों के गायन में बस व्यर्थ नहीं ये जीवन करना
बहता पानी मीठा होता रुका यहाँ जो होता खारा।।

पानी सम जीवन का है क्या व्यवहार यहाँ मालूम नहीं
कितने प्रश्न रुके अधरों पर आधार यहाँ मालूम नहीं।।

कद ऊँचा या पद ऊँचा हो समय सभी का न्याय किया है
अनुकंपा कब किया किसी पर कब बोलो अन्याय किया है
रुकी यहाँ लहरें नदिया की औ बंद हुए जब मार्ग कभी
दूर किनारे के कोरों से आशा का संचार किया है।।

आशाओं से जो पाया क्या आकार यहाँ मालूम नहीं
क्यूँ कर प्रश्न रुके अधरों पर आधार यहाँ मालूम नहीं।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        03अक्टूबर, 2022

आज मिला जब मन से मन का दर्पण मन पर रीझ गया।।

आज मिला जब मन से मन का दर्पण मन पर रीझ गया।।

जगती के कितने कोने हैं
कुछ जाने कुछ पहचाने 
कुछ ने कुछ से आप मिलाया
कुछ अब तक भी अनजाने।।

उस अनजाने जीवन में जो पका नहीं था सीझ गया
आज मिला जब मन से मन का दर्पण मन पर रीझ गया।।

आज मिला जब मन दर्पण से मन का दर्पण रीझ गया।।

जीवन की मुश्किल राहों ने
पग-पग खेल रचाये हैं
चले साथ राहों के जो भी
वे आहों में गाये हैं।।

आहों के गायन में देखा मन का उपवन भींग गया
आज मिला जब मन से मन का दर्पण मन पर रीझ गया।।

रातों में सूनी पगडंडी
मौन दूर तक जाती है
सूने कितने हों गलियारे
रात भोर को पाती है।।

सूनी पगडंडी का नरतन अंतरतम तक बींध गया
आज मिला जब मन से मन का दर्पण मन पर रीझ गया।।

नदिया की लहरों पर नौका
डगमग-डगमग जाती है
माना दूर किनारा कितना
लहरें फिर भी आती हैं।।

लहरों पर नौका का नरतन देखा सावन भींग गया
आज मिला जब मन से मन का दर्पण मन पर रीझ गया।।

पलकों पर कितने सपने हों
नयनों को अफसोस नहीं
आहों ने कितना कह डाला
साँसों को अफसोस नहीं।।

साँसों के इस अपनेपन से आहों का मन रीझ गया
आज मिला जब मन से मन का दर्पण मन पर रीझ गया।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        02अक्टूबर, 2022



चुप को हथियार बना।

गांधी जयंती एवं लालबहादुर शास्त्री जी के जन्मजयंती की आप सभी को हार्दिक शुभकामनाएं।
आज मैं आप सभी के समक्ष अपनी रचना प्रस्तुत कर रहा हूँ जो मैं इन महापुरुषों को समर्पित करता हूँ, आप के सम्मुख समीक्षा हेतु प्रस्तुत है--
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चुप को हथियार बना।  

चुप को अब हथियार बना कर
चुपचाप यहां रहना होगा
मन की सारी पीड़ाओं को
चुपचाप यहां कहना होगा।

आवाजों का शोर बहुत ही
फैला हो जब दरबानों में
लगे भटकने मुखर चेतना
सांझ ढले जब मैखानों में।

तब चुप को हथियार बना कर
प्रतिकार यहां करना होगा
मन की सारी पीड़ाओं को
चुपचाप यहां कहना होगा।

संवादों का दौर बहुत है
संवाद नहीं पर दिखता है
संसाधन के सम्मुख बोलो
खबरनवीस कहीं झुकता है।

लेकिन खबरों की दुनिया भी
जब मौलिक राह भटकती है
लिए मशाल हाथ मे तब-तब
उजियार यहां करना होगा।

खबरों की नैतिकता पर जब
शंका के बादल छाते हैं
लोकतंत्र दिग्भ्रमित हुआ तब
बस कुटिल जन प्रश्रय पाते हैं।

खबरों के व्यवहारों पर
विचार पुनः-पुनः करना होगा
जहाँ मिले नहीं मार्ग कोई
प्रतिकार हमें करना होगा।

लोकतंत्र में चुप्पी भी अब
है जनता का हथियार बड़ा
इसे बनाकर शस्त्र यहां पर
कितनों ने पग-पग युद्ध लड़ा।।

मुश्किल हो जब कहना कुछ भी
मौन भाव से कहना होगा
इसको ही हथियार बनाकर
कुत्सित से फिर लड़ना होगा।।

 ✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       02अक्टूबर,2022

थे स्वप्न नयनों में मगर रात जाने खो गईं।।

थे स्वप्न नयनों में मगर रात जाने खो गईं।।

इस जिंदगी की वाटिका में उम्र के कुछ पल मिले
और कितने पात बनकर राह में ही खो गये
वक्त की पगडंडियों पर चाहतें कुछ यूँ बढ़ीं
थे स्वप्न नयनों में मगर रात जाने खो गईं।।

कब दिवस कब रात आयी ये समझ पाई नहीं
मेघ तो बरसे यहाँ पर आस मुरझाई रही
वक्त की थी जिद यहाँ या राह की मजबूरियाँ
जो पास था समझे नहीं दूर सुनवाई नहीं।।

चाह हर पल जीत की ले ख्वाहिशें ऐसी बढ़ीं
थे स्वप्न नयनों में मगर रात जाने खो गईं।।

साँस की हर आस पल-पल द्वार पर ठहरी रही
अंक से यूँ पल गिरे सब चाहतें बिखरी रहीं
अहसास कोरों से पलक के बूँद बन यूँ गिरे
आँजुरी से चाहतें सब रेत बन झरती रहीं।।

खोलने जब द्वार के पट चाहतें आगे बढ़ीं
थे स्वप्न नयनों में मगर रात जाने खो गईं।।

कंठ से कुछ शब्द निकले वीथि पर आगे बढ़े
होंठ तक आये मगर न जाने क्यूँ वो रुक गए
और जो निकले अधर से कामनाओं में घुलीं
ताप में जिनके झुलस कर रास्ते सभी दह गये।।

ओर जब कहने कहानी शब्द अधरों ने धरे
थे स्वप्न नयनों में मगर रात जाने खो गईं।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        01अक्टूबर, 2022

जो अगर मैं शब्द होता गीत मैं बनता तुम्हारा।।

जो अगर मैं शब्द होता गीत मैं बनता तुम्हारा।।

उम्र के हर पृष्ठ पर पंक्ति बनकर मैं निखरता
छू के अधरों को तेरे प्रीत बनकर मैं गुजरता
और भरता अंक तेरे छंद की नव पाँखुरी से 
और पलकों पे तुम्हारे स्वप्न लेकर मैं सँवरता।।

और भरता अंक में उम्मीद का नूतन सितारा
जो अगर मैं शब्द होता गीत मैं बनता तुम्हारा।।

मैं चाहता हर रोज मेरे नेह का संचय बढ़े
और संचित कोष में तू प्रीत का आशय पढ़े
वक्त दोहराता हमारी गीत की जब पंक्तियाँ
भाव के आकाश पर बिन कहे सब कुछ कहे।।

बिन कहे भावों को देता जो यहाँ पल-पल सहारा
जो अगर मैं शब्द होता गीत मैं बनता तुम्हारा।।

भाव की आलोडनाएँ हैं मुझे अकसर लुभाते
आपकी संवेदनाएँ पास हैं पल-पल बुलाते
जानता हूँ है कठिन इस पार से उस पार जाना
फिर भी आना चाहता हूँ मुश्किलें सारी भुला के।।

और बस जाता तुम्हारे नभ का बन आकाशतारा
जो अगर मैं शब्द होता गीत मैं बनता तुम्हारा।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        30सितंबर, 2022



लग रहा नैन तेरे राह मेरी जोहते हैं।।

लग रहा नैन तेरे राह मेरी जोहते हैं।।

ये कटीले राह मुझको लग रहे हैं मखमली
लग रहा नैन तेरे राह मेरी जोहते हैं।।

दूर तक आया सफर में पर अकेला कब रहा
राह की दुश्वारियों को मैं अकेला कब सहा
जब भी भटका राह में मुझे नई राहें मिली
लग रहा नैन तेरे राह मेरी जोहते हैं।।

राह की ठोकरों ने राह है नूतन दिखाई
और रातों में मुझे भोर की सूरत दिखाई
थी अँधेरी रात जब भी दीप बन कर के जली
लग रहा नैन तेरे राह मेरी जोहते हैं।।

सिलवटों पर माथ के हैं लिखी कितनी कहानी
वक्त के कुछ घाव की चुभ रही अब भी निशानी
घाव के अहसास में पर जिंदगी पल-पल पली
लग रहा नैन तेरे राह मेरी जोहते हैं।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        29सितंबर, 2022

जयद्रथ वध।


जयद्रथ वध

जयद्रथ वध                                  

 भाग 1  

महाकाव्य की दिशा में आगे बढ़ते हुए आज मैं आप सभी के सम्मुख एक अन्य महत्वपूर्ण प्रकरण - जयद्रथ बध को अपने शब्दों में प्रस्तुत करने का प्रयास कर रहा हूँ, उम्मीद है कि मुझे आप सभी का आशीष प्राप्त होगा--
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 जयद्रथ वध       
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भाग 1 

कुरुक्षेत्र के रण में एक वीर जब सज्जित हुआ
देख उस युद्ध की गति सुरराज भी लज्जित हुआ।।1।।

घेर कर उस वीर का था कायरों ने वध किया
युद्ध के प्रतिमान सभी भय के कारण त्यज दिया।।2।।

देख उसका रौद्र रूप सम्मुख न कोई आ सका
जो भी आया सामने वो नर्क का भागी बना।।3।।

घेर कर के कौरवों ने ध्यान फिर अन्यत्र किया
चहुँ दिशा से वार कर के वीर को निःशस्त्र किया।।4।।

फिर भी हिम्मत थी कहां कि पास उसके आ सके
प्रचंड उसके वार से वो पार कैसे पा सके।।5।।

चक्रव्यूह बिखरता देख शत्रुओं ने घात किया
युद्ध नियमों के विरुद्ध पीठ पर आघात किया।।6।।

व्यूह असफल देख कर जब काँपने सारे लगे
धूर्तता के भाव मन ले घात तब करने लगे।।7।।

क्रमशः---

        भाग 2

गतांक से आगे--

तोड़ डाला नीतियों को हार सम्मुख देखकर
गिर गए प्रतिमान सारे एक ही आदेश पर।।8।।

जयद्रथ ने घात करके पीठ पर फिर वार किया
युद्ध नियमों के विरुद्ध धूर्तता व्यवहार किया।।9।।

हो निशस्त्र शत्रु जब भी वार तब करते नहीं
नीति है रणभूमि की स्वीकार क्यूँ करते नहीं।।10।।

धर्म को रौंदा जिन्होंने अधर्म के व्यवहार से
रक्त था उसने बहाया आज कुत्सित वार से।।11।।

वीरता के पीठ पर ये धूर्तता का वार था
रक्तरंजित थी धरा अब कुछ नहीं आधार था।।12।।

वार इतना तीव्र था कि वीर उसको सह सका न
ऐसे धरती पर गिरा चाह कर भी उठ सका न।।13।।

चमकी प्रलय की बिजलियाँ खड्ग भी खंडित हुआ
वीर का सान्निध्य पा सुरलोक भी मंडित हुआ।।14।।

क्रमशः--

भाग 3

गतांक से आगे--

सूचना पा वीरगति की पार्थ फिर व्याकुल हुए
शत्रु के संहार का वो सब के सम्मुख प्रण किये।।15।।

वध जयद्रथ का करूँगा है ये मेरा प्रण यहाँ
दाह कर लूँगा अगर सूर्यास्त तक जीवित रहा।।16।।

थी प्रतिज्ञा घोर इतनी ब्रम्हांड सब गुंजित हुआ
पार्थ के इस रौद्र से भूभाग सब कंपित हुआ।।17।।

रौद्र देखा पार्थ का तो काँपने धरती लगी
गर्जना सुन पार्थ की थर-थर काँपने मृत्यु लगी।।18।।

जयद्रथ की प्राण रक्षा स्वयं दुर्योधन करेगा
जो करेगा घात उसपे नर्क का भागी बनेगा।।19।।

मेरे रक्षण में रहो तुम तक पहुँच न पायेगा
टूटी पार्थ की प्रतिज्ञा क्षोभ से मर जायेगा।।20।।

घेर में ऐसे रहोगे पार्थ न फिर पायेगा
टूटेगा जब प्रण यहाँ क्षोभ से मर जायेगा।।21।।

क्रमशः--

भाग 4

गतांक से आगे--

भोर की पहली किरण से सारथी रथ ले चला
दिन चला निर्वाध गति से कहीं जयद्रथ न पर मिला।।22।।

पार्थ का मन आज कितने क्षोभ से था भर गया
यूँ लगा के पार्थ का प्रण टूट कर के गिर गया।।23।।

वध किया न आज अरि का कैसे वापस जाऊँगा
टूटा जो प्रण यहाँ मुख कैसे मैं दिखलाऊँगा।।24।।

इस धरा पर जीने का न अब मुझे अधिकार है
है ये जीवन व्यर्थ मेरा हाँ मुझे धिक्कार है।।25।।

आज जो माधव यहाँ प्रण मेरा न पूर्ण होगा
बना भागी हास्य का हाय जी कर क्या करूँगा।।26।।

क्या करूँगा राज्य लेकर शत्रु को न साध पाया
व्यर्थ है गाण्डीव मेरा वक्त को न बांध पाया।।27।।

पार्थ छोड़ मन की भ्रांतियां यूँ क्षोभ में न तुम पड़ो
है कवच में वो छुपा संहार को आगे बढ़ो।।28।।

क्रमशः--

भाग 5

गतांक से आगे--

जिस भुजा में वीरता हो वो रुदन करते नहीं
देख कर बाधाओं को पथ से वो टरते नहीं।।29।।

देख शत्रु सामने है अब शोक का ये क्षण नहीं
शत्रु का संहार हो है बस तुम्हारा प्रण यही।।30।।

सुन के माधव के वचन उत्साह अर्जुन का बढ़ा
त्याग कर क्षोभ सारे उत्साह से आगे बढ़ा।।31।।

जयद्रथ तक पहुँचना वहाँ पार्थ को मुश्किल हुआ
युद्ध के अंतिम प्रहर को सांध्य ने जैसे छुआ।।32।।

देख सांध्य को निकट पार्थ का मन डोल गया
है समीप अंत मेरा स्वयं से वो बोल गया।।33।।

यूँ देख दुविधा पार्थ की कृष्ण तब मुखरित हुए
हो प्रभावित सूर्य भी जा बादलों में छुप गये।।34।।

वहाँ कौरवों में सांध्य का हर्ष चहुँदिश व्याप्त था
पार्थ को संकेत इतना अब वहाँ पर्याप्त था।।35।।

क्रमशः--

भाग 6

गतांक से आगे--

है दिवस का अंत ये प्राण कैसे अब हरोगे
बचा विकल्प कुछ नहीं सोच कर के क्या करोगे।।36।।

कौरवों के पक्ष में अब उल्लास ही उल्लास था
दर्प में डूबा जयद्रथ कर रहा अट्टहास था।।37।।

है दिवस का अंत ये रह गयी प्रतिज्ञा अधूरी
अग्नि में खुद जल मरेगा आस न होगी पूरी।।38।।

शत्रु सम्मुख है तुम्हारे विलंब नहीं अब करो
सांध्य में क्षण शेष है चलो शत्रु का अब वध करो।।39।।

गाण्डीव लो हाथ में अब लक्ष्य का संधान हो
दुष्ट, पापी कायरों का अंत ही परिणाम हो।।40।।

अभी वक्त थोड़ा शेष है व्यर्थ न इसको करो
अब एक ही प्रहार में सबके सम्मुख वध करो।।41।।

लक्ष्य में जब शत्रु हो ध्यान तब टरे नहीं
वार इतना तीव्र हो धरा पर शीश फिर गिरे नहीं।।42।।

क्रमशः--

भाग 7

गतांक से आगे--

बादलों से फिर निकलकर सूर्य जब सम्मुख हुआ
पार्थ का कुंठित हृदय भी क्षोभ से तब मुक्त हुआ।।43।।

सूर्य को फिर देखते ही आँख भय से झुक गयी
मौत सम्मुख देखते ही साँस उसकी रुक गयी।।44।।

जब मिली ना राह कोई भागने को जब हुआ
गाण्डीव लेकर हाथ में पार्थ ने फिर वध किया।।45।।

पूर्ण प्रतिज्ञा पार्थ ने की शत्रु का स्थल रिक्त हुआ
गुंजित हुआ सुरलोक भी पाप से जो मुक्त हुआ।।46।।

झूठ कितना तीव्र हो सत्य को कब ढँक सका है
मार्ग की बाधाओं से बोलो कब रूक सका है।।47।।

झूठ का प्रभाव केवल मूर्ख को भरमायेगा
चीर अँधेरा जगत का सत्य बाहर आयेगा।।48।।

इतिश्री🙏🙏

©✍️अजय कुमार पाण्डेय

       हैदराबाद

          26सितंबर, 2022

एक झलक प्रियवर की पाकर जो चमक जाती यहाँ ।।



एक झलक प्रियवर की पाकर जो चमक जाती यहाँ ।।

भावों की अठखेलियों में प्रीत वो नवगीत सखी
एक झलक प्रियवर की पाकर जो चमक जाती यहाँ।।

आहें लिखती साँसों में आस की नूतन कहानी
गुनगुनाती जिंदगी भी नेह की होकर दिवानी
मन सोचता फिर क्या कहे औ क्या यहाँ धारण करे
बिन कहे जो सब कहे मन में बसाए राजधानी। 

मन के सारे भाव की है प्रीत वो नवगीत सखी
एक झलक प्रियवर की पाकर जो चमक जाती यहाँ।।

मन से जब तक मन मिले न प्रीत भी कब पूर्ण होती
गीत रहते सब अधूरे चाहतें कब पूर्ण होती
पूर्णता के चाह में प्रतिपल मौन मन भटका करे
रहती अधूरी जिंदगी ये उम्र भी न पूर्ण होती।।

उम्र की नादानियाँ भी हैं प्रीत की नवगीत सखी
एक झलक प्रियवर की पाकर जो चमक जाती यहाँ।।

यूँ धधक कर मत जलो निज आग में बिरहन के सखी
इस विरह के बाद ही मिलता सुख मिलन का हे सखी
बढ़ती जाती हैं वो पल-पल प्रीत की नव रश्मियाँ
और भावों को परखती हैं चाहतों की तितलियाँ।।

चाहतों की तितलियाँ ही जीवन का नवगीत सखी
एक झलक प्रियवर की पाकर जो चमक जाती यहाँ।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        23सितंबर, 2022


चुभे हृदय में शूल।।

चुभे हृदय में शूल।।

आतंकित हो गयी मनुजता चुभे हृदय में शूल
आँखों ने जो दृश्य दिखाया गये ज्ञान सब भूल।।

नफरत के प्याले छलकाये 
कुछ मासूमों को फिर बहकाये
दे कर नयनों में मृदु सपने 
राहों से उनको भटकाये।।

लालच की यूँ ललक जगी गया पथिक पथ भूल
आतंकित हो गयी मनुजता चुभे हृदय में शूल।।

दो पल की रोटी को तरसा
दहशत के साये में जीवन
खिलने से पहले ही उजड़े
ना जाने कितने ही बचपन।।

बिछड़े सर से कितने साये औ डाली से फूल
आतंकित हो गयी मनुजता चुभे हृदय में शूल।।

आमों के उन बागीचों में
कल कोयल गायी कूक जहाँ
नफरत के अंधों ने बोई
अब नफरत की बंदूक वहाँ।।

नफरत के प्यालों में डूबे मानवता के मूल
आतंकित हो गयी मनुजता चुभे हृदय में शूल।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        22सितंबर, 2022

प्यार में पीर लें पीर को प्यार दें

 प्यार में पीर लें पीर को प्यार दें एक दूजे को हम इतना अधिकार दें, के प्यार में पीर लें पीर को प्यार दें। एक कसक सी न रह जाये दिल में कहीं, ...