आज मिला जब मन से मन का दर्पण मन पर रीझ गया।।
जगती के कितने कोने हैं
कुछ जाने कुछ पहचाने
कुछ ने कुछ से आप मिलाया
कुछ अब तक भी अनजाने।।
उस अनजाने जीवन में जो पका नहीं था सीझ गया
आज मिला जब मन से मन का दर्पण मन पर रीझ गया।।
आज मिला जब मन दर्पण से मन का दर्पण रीझ गया।।
जीवन की मुश्किल राहों ने
पग-पग खेल रचाये हैं
चले साथ राहों के जो भी
वे आहों में गाये हैं।।
आहों के गायन में देखा मन का उपवन भींग गया
आज मिला जब मन से मन का दर्पण मन पर रीझ गया।।
रातों में सूनी पगडंडी
मौन दूर तक जाती है
सूने कितने हों गलियारे
रात भोर को पाती है।।
सूनी पगडंडी का नरतन अंतरतम तक बींध गया
आज मिला जब मन से मन का दर्पण मन पर रीझ गया।।
नदिया की लहरों पर नौका
डगमग-डगमग जाती है
माना दूर किनारा कितना
लहरें फिर भी आती हैं।।
लहरों पर नौका का नरतन देखा सावन भींग गया
आज मिला जब मन से मन का दर्पण मन पर रीझ गया।।
पलकों पर कितने सपने हों
नयनों को अफसोस नहीं
आहों ने कितना कह डाला
साँसों को अफसोस नहीं।।
साँसों के इस अपनेपन से आहों का मन रीझ गया
आज मिला जब मन से मन का दर्पण मन पर रीझ गया।।
©✍️अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
02अक्टूबर, 2022
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