कुछ तो लगाव है।
कदम-कदम पे रास्तों में कैसा ये दुराव है
न ओर है न छोर है न दिख रहा पड़ाव है।।
क्या अर्थ है, अनर्थ है क्या कहें क्या व्यर्थ है
हर घड़ी न जाने कैसा मोह का घेराव है।।
पलकों में भरे हैं स्वप्न कितने भोर के लिए
नींद से नयन का फिर जाने क्यूँ दुराव है।।
चल रहे हैं रास्ते यहाँ साथ में मेरे मगर
हैं पूछते कदम मेरे दूर कितना गाँव है।।
अब थक गई है साँझ भी कठिन रहा सफर यहाँ
सिलवटों पे माथे के अब रात का कसाव है।।
दूर आ गये कहाँ हम छोड़ कर गलियाँ सभी
जाने रास्तों से अब भी कैसा ये खिंचाव है।।
रात जोहती रही यहाँ भोर की कुछ रश्मियाँ
भोर का भी रात से, "देव" कुछ न कुछ लगाव है।।
©✍️अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
06अक्टूबर, 2022
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