जयद्रथ वध

जयद्रथ वध                                                 

कुरुक्षेत्र के रण में
एक वीर जब सज्जित हुआ
देख उस युद्ध की गति
सुरराज भी लज्जित हुआ।

घेर कर उस वीर को
कायरों ने वध किया
युद्ध के प्रतिमान सारे
भय के कारण त्यज दिया।

देख उसका रौद्र रूप
सम्मुख न कोई आ सका
जो भी आया सामने
नर्क का भागी बना।

तब घेर कर कौरवों ने
ध्यान उसका भंग किया
चारों दिशा से वार कर
वीर को निःशस्त्र किया।

फिर भी हिम्मत थी कहां
कि पास उसके आ सके
प्रचंड वारों व प्रहारों से
पार उसके पा सके।

चक्रव्यूह बिखरता देख कर
शत्रुओं ने घात किया
युद्ध नियमों के विरुद्ध पीछे से
जयद्रथ ने निहत्थे वीर पर घात किया।

वार इतना तीव्र था
कि वीर सहन कर ना सका
कर्तव्यपालन की दिशा में
वीरगति को प्राप्त हुआ।

चमकी प्रलय की बिजलियाँ
शत्रु का खड्ग भी खंडित हुआ
वीर का सान्निध्य पाकर
सुरलोक भी मंडित हुआ।

वीरगति से वीर के
कौरवों में हर्ष छा गया
सर्वत्र पांडव पक्ष में
शोक था छा गया।

देख उसका हाल ऐसा
निःशब्द नव वधु हो गयी
नेत्र में भरे अश्रु सूखे 
वो धरा पर गिर गयी।

सुन सूचना वीरगति की
अर्जुन क्रोध से पागल हुए
आत्मदाह की की प्रतिज्ञा
जो अगले सूर्यास्त तक शत्रु का न वध किये।

थी प्रतिज्ञा घनघोर इतनी
भू-भाग भी गुंजित हुआ
देख पार्थ का रौद्र रूप
त्रिलोक तक कंपित हुआ।

करने जयद्रथ का दूर भय
दुर्योधन भी उपस्थित हुआ
करूंगा रक्षा तुम्हारी
सम्मुख सबके प्रण किया।

कुरु सेना के रक्षण में रहोगे
तुम तक वो पहुंच न पायेगा
प्रतिज्ञा पूरी न हुई तो
स्वतः ही आत्मदाह कर जाएगा।

भोर की पहली किरण पर
युद्ध का शंखनाद हुआ
दिन चला निर्वाध गति से
जयद्रथ न कहीं मिला।

निराश देख माधव ने कहा
पार्थ न विचलित बनो
रक्षा कवच में छुपा है वो
संहार करने शीघ्र तुम आगे बढ़ो।

सुनकर माधव के वचन
उत्साह अर्जुन का बढ़ा
त्याग कर विषाद के क्षण
उत्साह से लड़ने लगा।

सांध्य होने को चली
जयद्रथ तक पहुंच जब मुश्किल हुआ
वासुदेव ने माया रची
सूर्य बादलों में छिप गया।

सांध्य होने के भ्रम ने
कौरवों को हर्षित किया
आत्मदाह अब अर्जुन करेगा
अट्टहास जयद्रथ ने क्या।

देख शत्रु सामने
श्री कृष्ण ने अर्जुन से कहा
पार्थ उठाकर गांडीव
शत्रु का तुम वध करो।

संध्या अभी भी शेष है
तनिक भी न विलंब करो
ध्यान रहे इतना तुम्हे कि
मस्तक धरा पर न गिरे।

देखते ही देखते सूर्य
बादलों से निकल गया
देख कर दृश्य ऐसा, प्राण
गले में शत्रु के अटक गया।

जैसे ही जयद्रथ
रणभूमि से भागने को हुआ
गांडीव उठा कर पार्थ ने
तत्क्षण में उसका वध किया।

जयद्रथ का शीश धड़ से हो अलग
जाकर गोद में, उसके पिता की गिरा
गोद में गिरते ही, सर उसके पिता का 
भी टुकड़ों में विभक्त हुआ।

हुई प्रतिज्ञा पूर्ण अर्जुन की
और शत्रु का वध हुआ
गुंजित हुआ सुरलोक भी
इक पाप का था अंत हुआ।।

अजय कुमार पाण्डेय

हैदराबाद


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