थे स्वप्न नयनों में मगर रात जाने खो गईं।।
और कितने पात बनकर राह में ही खो गये
वक्त की पगडंडियों पर चाहतें कुछ यूँ बढ़ीं
थे स्वप्न नयनों में मगर रात जाने खो गईं।।
कब दिवस कब रात आयी ये समझ पाई नहीं
मेघ तो बरसे यहाँ पर आस मुरझाई रही
वक्त की थी जिद यहाँ या राह की मजबूरियाँ
जो पास था समझे नहीं दूर सुनवाई नहीं।।
चाह हर पल जीत की ले ख्वाहिशें ऐसी बढ़ीं
थे स्वप्न नयनों में मगर रात जाने खो गईं।।
साँस की हर आस पल-पल द्वार पर ठहरी रही
अंक से यूँ पल गिरे सब चाहतें बिखरी रहीं
अहसास कोरों से पलक के बूँद बन यूँ गिरे
आँजुरी से चाहतें सब रेत बन झरती रहीं।।
खोलने जब द्वार के पट चाहतें आगे बढ़ीं
थे स्वप्न नयनों में मगर रात जाने खो गईं।।
कंठ से कुछ शब्द निकले वीथि पर आगे बढ़े
होंठ तक आये मगर न जाने क्यूँ वो रुक गए
और जो निकले अधर से कामनाओं में घुलीं
ताप में जिनके झुलस कर रास्ते सभी दह गये।।
ओर जब कहने कहानी शब्द अधरों ने धरे
थे स्वप्न नयनों में मगर रात जाने खो गईं।।
©✍️अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
01अक्टूबर, 2022
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