गात का नव आवरण हो।
शब्द को विस्तार देकर भाव में व्यवहार लाकर
गीत की नव कल्पना हो औ सुनहरी अल्पना हो
हाँ, भरे कुछ रंग मन में नेह का आशय गगन में
मौन का फिर से क्षरण हो गात का नव आवरण हो।।
वो मनुजता व्यर्थ होगा आहों का क्या अर्थ होगा
नेह किंचित जिसमें होगा स्वार्थ सिंचित जिसमें होगा
संशयों का भाव होगा प्रतीति का अभाव होगा
संशयों का फिर क्षरण हो गात का नव आवरण हो।।
सत्य तो लाचार कैसा झूठ का अधिकार कैसा
हैं निपुण जब पंथ सारे राह में पाषाण कैसा
दृष्टिगोचर कल्पना जब व्यर्थ सारी जल्पना तब
दुस्साध्य का फिर वरण हो गात का नव आवरण हो।।
©✍️अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
10अक्टूबर, 2022
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