गणपति जी पर दोहे।

तुम बन जाओ छंद गीत का जिसको मिलकर गायें हम।।

अब वो बात नहीं होती।

तेरे खत को जब पढ़ते हैं।।

पलकों में आँसू बोया था।
कुछ ने मन से किया किनारा

तुम्हें मुबारक हार पुष्प के मुझको अश्रु धार मुबारक।।

चल बटोही चल चलें आ इस भँवर को पार कर।।

फिर आज सहलाने चली हैं।

आओ जग के अँधियारे में हम इक दीपक रोज जलाएं।।

साँसों ने जो गीत लिखे वो शब्द-शब्द सारे चंदन।।

जागो भारत पुत्रों जागो फिर माँ ने तुम्हें पुकारा है।।

जो अश्रु सहारा न होता तो निज मन बात कहाँ कह पाता।।

अंतस की व्यथा।

फिर क्यूँ ना हो स्वीकार मुझे।।

भोर सुंदर मुस्कुराये।

पलकों से जो बरसे गीत कहलाये।।

कहीं तो रास्ता होगा।

आओ फिर से गीत सजा लें अपने अधरों पर मिलकर।।

बहुत लिखे हैं मधुमासों के गीत मगर अब और नहीं।।

जीवन की कितनी इच्छाएं मन में मोह जगाती हैं।।

अनगिन खुशियाँ लेकर आया राखी का त्योहार।।

तुम बिन अब तक है अधूरा इस जीवन का गान।।

वसुधैव कुटुंबकम।

नदिया और समंदर।

अभिमान तिरंगा भारत का।।

कितना दूर गाम तुम्हारा।।

गीत गजल जो रच न पाओ अफसोस यहाँ फिर क्यूँ करना।।

चलो उजालों को लेकर के हम सब फिर गाँवों की ओर चलें।।

पास पाकर तुम्हें जिंदगी मिल गयी।।

उर के शांत सरोवर में फिर छेड़ो वीणा की तान मधुर।।

सुधियों के दो पल कागज पे लिखता हूँ मुस्काता हूँ।।

कौन है फिर पूछता उसको यहाँ पर।।

छाँव।

वो थी अधूरी रात जब मृदु स्वप्न पलकों से गिरा।।

मन जो बात नहीं कह पाता कविताओं में कह लेता हूँ।।

लिख सके न हम मन की बातें।

आस का दीपक जलाये द्वारे पर ठहरा हूँ मैं।।

कुछ शब्दों में जीवन भर के मूल्य मुखर कब हो पाते हैं।।

है प्रणय की प्यास गहरी प्रीत से आँगन सँवारो।।

अपनी हो सूरज से यारी।।

मेरे साथ देखो ये राहें चली हैं।।

क्या जाने किस ओर चलूँगा।।

काश कभी मैं तुमसे मन की बात सभी वो कह पाता।।

मैं अब तक गीत न गा पाया।।

मेरे नयनों का सूनापन अगर जो पढ़ लिया होता।

लहरायें वन उपवन सारे।

जीवन के संधि-पत्र पर।

अब भी चुभ रहा बन शूल।
कुछ कहीं ऐसा है अब भी
चुभ रहा बन शूल।
अंक में मेरे सिमटकर
पाश में मेरे लिपटकर
कंठ में थे गीत के स्वर
कुछ कहा उस रोज तुमने
याद है वो आज साथी या गये हो भूल
कुछ कहीं ऐसा है अब भी चुभ रहा बन शूल।।
मौन पल में कुछ कहा था
दर्द कितना ही सहा था
शब्द अधरों से झरे कुछ
अश्रु पलकों से गिरे कुछ
याद है वो अश्रुकण या फिर गये हो भूल
कुछ कहीं ऐसा है अब भी चुभ रहा बन शूल।।
अब कहाँ मैं तुम कहाँ पर
दूर हैं हम, मौन हैं स्वर
लिख रहा पर गीत तेरे
भाव मन के, प्रीत तेरे
याद है क्या गुनगुनाना या गये हो भूल
कुछ कहीं ऐसा है अब भी चुभ रहा बन शूल।।
दूर हूँ सब बंधनों से
स्नेह के अनुरंजनों से
है नहीं अफसोस कोई
रात पलकें पर न सोईं
याद अब भी जागना है या गये हो भूल
कुछ कहीं ऐसा है अब भी चुभ रहा बन शूल।।
©✍️अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
16 जून, 2022

पीड़ा ने मुझको अपनाया।।

है कुपथ क्या औ सुपथ क्या अब कौन बोलेगा भला।।

आज अभिलाषा जगी है।।
आज अभिलाषा जगी है।।
1
चाँदनी का रथ सजा है
और तारे भी सफर में
भाव की आलोड़नाएँ
गुदगुदाती हैं डगर में
अंक में आकर मिली है
आस जो थी मनचली
देख इसको फिर खिली है
कामनाओं की कली
मौन इस व्यवहार में
आस के संसार में
प्रीत की आशा जगी है
आज अभिलाषा जगी है।।
2
नेत्र मन के आज मेरे
खुल रहे हैं पास आकर
साँस में सरगम सजी है
देख तुझको पास पाकर
रत्न आभूषण सभी अब
मोहते मन को निरन्तर
ये शिशिर ऋतु भी मुझे अब
लग रही पिय आज सुंदर
रूप के आकार में
इस मधुर संसार में
प्रीत की आशा जगी है
आज अभिलाषा जगी है।।
3
आज मन के स्वप्न सारे
फिर पलक पे आ सजे हैं
भावनाओं के दुआरे
प्रेम के तोरण सजे हैं
चाह जो थी दूर कल तक
पास लाना चाहता हूँ
कल्पनाओं के सफर में
दूर जाना चाहता हूँ
मृदु हृदय उद्गार में
मोह के आकार में
प्रीत की आशा जगी है
आज अभिलाषा जगी है।।
4
आज मन के निज नगर में
सज रहे हैं गीत के स्वर
प्रीत के पावस पवन में
गूँजते मधुमास के त्वर
है सजी ऋतु ये रसीली
हैं प्रहर सब आज पावन
गेह में पल-पल छुपा है
स्नेह का संपूर्ण गायन
देह के आधार में
कामना उपहार में
प्रीत की आशा जगी है
आज अभिलाषा जगी है।।
5
चल निकल कर मौन पल से
आज मन की कह लें सारे
अंक में जो कुछ हमारे
प्रीत पर हम क्यूँ न वारें
हाँ चलो पहचान लें अब
क्यूँ रहे मन में निराशा
दिख रही है आज हमको
प्रेम की कोमल सुभाषा
पंथ में अभिसार के
मौन के उद्गार में
प्रीत की आशा जगी है
आज अभिलाषा जगी है।।
6
लौट जाऊँ मैं यहाँ से
तो कहो कैसा लगेगा
साथ में जब हम न होंगे
भाग्य फिर कैसे जगेगा
इस निशा के निज पलों को
कौन देगा मान्यता
शुष्क भावों से कहो फिर
क्या जगेगी संज्ञान्यता
चेतना के सार में
स्वप्न के विस्तार में
प्रीत की आशा जगी है
आज अभिलाषा जगी है।।
©✍️अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
10जून, 2022

जीत सकूँ चाहे ना जग को पर जी लूँ इसको जी भरकर।।

जोड़ मन के तार सारे।।

जोड़ मन के तार सारे।।

कवि होना आसान कहाँ।

निज अलकों के बंधन खोलो।।

थोड़ा अहसास करा दो।

जो स्वप्न सजे ही नहीं पलक पर कैसे कह दूँ बिखर गये।।

वीथियों में उलझा मन।

हृदय का अनलिखा भाव।

क्यूँ कर मुझसे प्यार जताया।।

सपनों का क्या दोष।

प्रतीक्षा।

मधुर निशा के इस पल में काश नेह तुम्हारा मिल जाता।।

हृदय के भाव सारे बोल दो।

झुलसाऊँ या फिर गीत गाऊँ।

कोई पीछे से आवाज दे रहा।

थक कर हार मान ले जीवन कब राहों ने स्वीकार किया।।

भारतीय रेल- दोहे।

मौन भला क्यूँ कर रहना।

दीपक के मनोभाव।

हृदय तुम्हारा साथ छोड़ दे विरक्त नहीं इतना मन है।।

बनूँ गीत मैं नव जीवन का तेरे अधरों पर बस छाऊँ।।

प्यार में पीर लें पीर को प्यार दें
प्यार में पीर लें पीर को प्यार दें एक दूजे को हम इतना अधिकार दें, के प्यार में पीर लें पीर को प्यार दें। एक कसक सी न रह जाये दिल में कहीं, ...
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चन्द स्वार्थी सत्ता के मतवालों को रेखांकित करती एक रचना जिनके कारण जनता राजनीति और से कई कई बार विश्वास खोने लगती है-- ...
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सारे व्याकरण में है नहीं कैसे लिख दूँ गीतों में मैं प्यार के अहसास को वो शब्द अरु वो भाव सारे व्याकरण में है नहीं। यादें जब भी आँसू बनकर नैन...
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गीत की भावना शब्द दिल से चुने पंक्तियों में बुने, गीत की भावनाएं निखरने लगीं। कुछ कहे अनकहे शब्द अहसास थे, गीत की कामनाएं निखरने लगीं। द्वं...