फिर क्यूँ ना हो स्वीकार मुझे।।

फिर क्यूँ ना हो स्वीकार मुझे।।

कुछ सपने पलकों पर ठहरे
क्या-क्या भाव रचाते हैं
सतरंगी बादल से मिलते
पल-पल स्वप्न सजाते हैं।।

इन सपनों में ही दिखता है
जीवन का आधार मुझे
फिर क्यूँ ना हो स्वीकार मुझे।।

पल-पल रंग बदलता जीवन
आहों में खिलता उपवन
आती जाती इन लहरों से
भींग उठा सारा तन मन।।

जब लहरों की चंचलता में
दिखी नयन की धार मुझे
फिर क्यूँ ना हो स्वीकार मुझे।।

अंतस में लिए अंतर्द्वंद्व
बाँट रहे नयन मकरंद
निज सपनों का मोह त्याग कर
बाँधा सबसे मृदु निबंध।।

मृदु बंधन की शीतलता में
दिखा मृदुल श्रृंगार मुझे
फिर क्यूँ ना हो स्वीकार मुझे।।

नवगीत सजा कर अधरों पर
हरण किया जगत की पीर
मुक्त कंठ हो गाया तुमने
रोक न पाया जग अधीर।।

तेरे हर भावों में प्रतिपल
दिखती है मनुहार मुझे
फिर क्यूँ ना हो स्वीकार मुझे।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       11अगस्त, 2022



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