माना पथ में रात अँधेरी नित जोह रही हो सूरज को
अनुमानों में घिरी प्रतिज्ञा कहीं खो न दे अब धीरज को
माना कि चंहुओर तिमिर है आ करें प्रकाशित अंतःपुर
आ भरें शून्य में अपनापन के हो उल्लासित अपना उर।।
दीप जलायें ज्ञान ज्योति का अंतस का तम दूर भगायें
आओ जग के अँधियारे में हम इक दीपक रोज जलाएं।।
लोभ-मोह माया का जीवन सब जगती का है सम्मोहन
निज आहों में, मधुमाया में उलझा रहता क्यूँ अपना मन
भावों में शीतलता भर लें आ मृदु गीतों से मन उपवन
पंथ पथिक का तब सम्मानित मन में जब जागे नव चेतन।।
क्षण भर का उल्लास यहाँ मन के सब अवसाद भगायें
आओ जग के अँधियारे में हम इक दीपक रोज जलाएं।।
मौन सफर हो अंधकार में मत पूछो के कैसी छाया
कुटिल नियति जब हावी हो तो क्या मतलब किसने क्या पाया
जगती के सब अनुमानों में कहीं सुहाना मौसम होगा
कहीं मिलेगी परछाईं जो दूर क्षितिज अनुबंधन होगा।।
मिलता जो कुछ मनोयोग से उससे ही जीवन महकाएँ
आओ जग के अँधियारे में हम इक दीपक रोज जलाएं।।
©✍️अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
17अगस्त, 2022
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें