आस जो मन में दबी थी फिर उठी इक टीस बनकर
गीत अधरों पर सजे सब दर्द का आशीष बनकर
साँस भी तब धड़कनों से कुछ यूँ उलझ कर रह गयी
आँसुओं में बह चले सब पीर पलकों से मचलकर।।
इस क्षितिज से उस क्षितिज तक ये वक्त कुछ ऐसा घिरा
वो थी अधूरी रात जब मृदु स्वप्न पलकों से गिरा।।
सिंधु को गहराइयों तक बस दर्द का संसार था
अंक में सिमटा हुआ निज स्वप्न का पारावार था
कामनायें भी ठिठककर रुक गयीं मन के द्वार पर
क्या कहे उस एक पल में मन में जो हाहाकार था।।
रह गयीं ख्वाहिश अधूरी था टूट कर तारा गिरा
वो थी अधूरी रात जब मृदु स्वप्न पलकों से गिरा।।
संदर्भों के सब सिलसिले सहसा सिमटने से लगे
गीत अधरों पर सजे जो टूट कर झरने लगे
शब्दों में सिमट न पाये भाव अंतर्मन के सभी
अवशेष यादों के सभी आँसुओं में बहने लगे।।
बह गए सब आस के क्षण तम टूट कर ऐसे गिरा
वो थी अधूरी रात जब मृदु स्वप्न पलकों से गिरा।।
©✍️अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
18जुलाई, 2022
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