दूर देश एक बस्ती जहाँ, न कोई आता है न जाता है
भूली बिसरी राहों को कहो, क्या कोई यहाँ अपनाता है
पग-पग दौड़ रही ये सड़कें कब कहो गाँव को आती हैं
गाँवों की पगडंडी ही अब तक शहरों को आती जाती हैं
मोड़ सड़क की राहों को आज यहाँ हम गाँवों के छोर चलें
चलो उजालों को लेकर के हम सब फिर गाँवों की ओर चलें।।
सूख रही हैं बावड़ियाँ सारी सूख रहे सब ताल तलैया
सूख रही धरती की माटी औ सूख रही बरगद की छइयां
सूनी-सूनी गलियाँ सारी औ सूने लगते त्यौहार सभी
मौन पड़ी खलिहान की हलचल जहाँ लगते थे चौपाल कभी
भीड़ भरे तहखानों से हट हम सब गलियारों की ओर चलें
चलो उजालों को लेकर के हम सब फिर गाँवों की ओर चलें।।
महज शहर की चकाचौंध से ही ये देश नहीं बन जायेगा
जो खलिहानों से दूर हुए तो ये जीवन क्या पल पायेगा
बूढ़ी झोंपड़ियों से अब भी वही प्रेम की खुशबू आती है
जिस माटी ने जीवन पाला वो कब छोड़ हमें रह पाती है
लोभ-मोह और स्वार्थ से हटकर सदव्यहारों की ओर चलें
चलो उजालों को लेकर के हम सब फिर गाँवों की ओर चलें।।
©✍️अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
22जुलाई, 2022
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