अनजान नगर अनजान डगर
अनजानी राहों का नरतन
कहीं रुकी हैं कहीं मुड़ी हैं
भटका-भटका सा लगता मन
इन राहों के चक्रव्यूह से
सोच रहा कैसे निकलूँगा
प्रतिपल भावों में मंथन है
क्या जाने किस ओर चलूँगा।।
जिसे पूजना था मंदिर में
उसने ही मन को तोड़ दिया
जिससे मन की डोर बँधी थी
जाने बीच राह में छोड़ दिया
भूलों से जो घाव मिले हैं
उसे अकेला मौन सहूँगा
प्रतिपल भावों में मंथन है
क्या जाने किस ओर चलूँगा।।
सींचा था जिसको मृदु मधु से
इस जीवन की फुलवारी में
कैसे कह दूँ काँटे बोये
हैं, पग-पग उसने क्यारी में
उपवन के कुछ शुष्क पात हैं
किसको छोड़ूँ किसे चुनूँगा
प्रतिपल भावों में मंथन है
क्या जाने किस ओर चलूँगा।।
रीत गया मधुऋतु घट सारा
अब शेष रहा क्या बोध नहीं
अंतस के भावों को प्रकटूँ
अब ऐसा भी अनुरोध नहीं
बिखर चले जब स्वप्न सुनहरे
खारे जल से पग धोऊंगा
प्रतिपल भावों में मंथन है
क्या जाने किस ओर चलूँगा।।
©✍️अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
04जुलाई, 2022
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