रक्तिम रंजित भाव प्रकट कर
पृष्ठों पर कुछ दृश्य सँवारे
इन नैनों में चाहत भर कर
दूर किया सारे अँधियारे
पलकों के लालायित सपने
जोह रहे हैं अपनी बारी
कहते मन के भाव मचल कर
अपनी हो सूरज से यारी।।
अगणित पथ हैं अगणित बाधा
अगणित मन की अभिलाषाएँ
रह-रह कर प्रतिबिंबित होती
भावों में सारी गाथाएँ
प्रखर प्रेम की नव ज्वाला में
अभिलाषाएँ पंख पसारी
कहते मन के भाव मचल कर
अपनी हो सूरज से यारी।।
समय चक्र के साथ चलूँ मैं
जैसे चलते चंदा तारे
लिख डालूँ नव गीत गगन में
प्रकृति का जो रूप निखारे
आशाओं को पथ मिल जाये
अपनी हो इतनी तैयारी
कहते मन के भाव मचल कर
अपनी हो सूरज से यारी।।
©✍️अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
07जुलाई, 2022
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