भोर सुंदर मुस्कुराये।

भोर सुंदर मुस्कुराये।  

शब्द को पहचान मिलती भावना को अर्थ बोलो
चाहतों को राह मिलती कामना को अर्थ बोलो
आ मिलो इक बार देखो है राह क्यूँ सूनी पड़ी
जो छुपे हैं भाव दिल में आज उनका अर्थ बोलो।।

है रोशनी वो ही भली दूर तक रोशन करे जो
चाहतें वो ही भली हैं अंक को उपवन करे जो
औ कब मिली है दूर रहकर प्रीत को मंजिल यहाँ
प्रीत है वो ही भली मन भाव को मधुवन करे जो।।

है अँधेरों की धमक या के उजाले मंद बोलो
रोकते हैं जो राह को कौन सा प्रतिबंध बोलो
ये है समय की मांग या फिर स्वार्थ की सबको पड़ी
हैं बदलते आज पल पल क्यूँ यहॉं कटिबंध बोलो।।

है नहीं इतनी अँधेरी रात तारे डूब जायें
है नहीं इतनी घनेरी रात के पथ लड़खड़ायें
तुम ही कहो के भोर का पथ रुक सका है कब यहाँ
रात के उस पार देखो भोर सुंदर मुस्कुराये।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
         हैदराबाद
        10अगस्त, 2022

पलकों से जो बरसे गीत कहलाये।।

पलकों से जो बरसे गीत कहलाये।।

भाव पलकों में जो आये शब्द अकुलाए
और पलकों से जो बरसे गीत कहलाये।।

शब्द की ओढ़नी में छंद का श्रृंगार कर 
जो ले गयी सभी मेरे हृदय के भाव हर 
वो भाव निज हृदय की पंक्तियों में समाये
और पलकों से जो बरसे गीत कहलाये।।

लिखी बात मन की शब्द का लेकर सहारा
आस का आकाश पृष्ठ पर हमने उतारा
चित्र गढ़े तूलिका ने वो मन को बहलाये
और पलकों से जो बरसे गीत कहलाये।।

क्या करूँ अर्पित कहो अब तुम्हें मैं निशानी
जो बताये तुमको दर्द की सारी कहानी
आहें वो मेरे हृदय की मेघ बन छाये
और पलकों से जो बरसे गीत कहलाये।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        10अगस्त, 2022



कहीं तो रास्ता होगा।

गजल-कहीं तो रास्ता होगा।  

बंद से लगती इन गलियों में कहीं तो रास्ता होगा
कहीं तो होगा कोई ऐसा कि जिससे वास्ता होगा।।

आवाजें दूर से टकराकर फिर से लौट आती हैं
कहीं कुछ तो है यहाँ ऐसा के जिससे राब्ता होगा।।

सुना सच बोलने से दुश्मनी बढ़ जाती है शहर में
कोई तो है यहाँ ऐसा जो सच को भाँपता होगा।।

खड़ी न कर दीवारें दरमियाँ अपनी औ जमाने के
के अँधेरा है बहुत गहरा कोई तो रास्ता होगा।।

सिखाया है यही हमको यहाँ जमाने की अदावत ने
चलो जिस राह पर खुलकर देव वही तो रास्ता होगा।।

इस शहर में हर किसी ने अपनी महफ़िल सजा रखी है
लगता है तन्हाइयों से सभी का कुछ वास्ता होगा।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        08अगस्त, 2022

आओ फिर से गीत सजा लें अपने अधरों पर मिलकर।।

आओ फिर से गीत सजा लें अपने अधरों पर मिलकर।।


दुनिया के इस छोर से हमने
दुनिया के उस छोर को देखा
कितनी ही सूनी आँखों में
देखी है बेबस सी रेखा
कहीं बेबसी के मेले में खो मत जाना यूँ घिरकर
आओ फिर से गीत सजा लें अपने अधरों पर मिलकर।।

जाना जिनको चले गये हैं
जो तेरे, संग रह गये हैं
मिलना जुलना खेल जगत का
साथ चले, कुछ छूट गये हैं
छोड़ चले जो बीच सफर में व्यर्थ बहाना आँसू उनपर
आओ फिर से गीत सजा लें अपने अधरों पर मिलकर।।

बात बदल जाती है अकसर
उन पर यदि संज्ञान नहीं लो
ऐसी कोई गली बता दो
राह कभी सुनसान नहीं हो
कभी अकेले हुए यहाँ तो स्वयं परखना खुद को खुलकर
आओ फिर से गीत सजा लें अपने अधरों पर मिलकर।।

साथ चले तो बात बनेगी
दूर रहे तो रार ठनेगी
बहती आँधी से क्या डरना
कहाँ रुकी जो यहाँ रुकेगी
आँधी औ तूफानों में अब कश्ती पार करायें चलकर
आओ फिर से गीत सजा लें अपने अधरों पर मिलकर।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        06अगस्त, 2022

बहुत लिखे हैं मधुमासों के गीत मगर अब और नहीं।।

बहुत लिखे हैं मधुमासों के गीत मगर अब और नहीं।।

अपने मन की मधुशाला में
लिए खड़ा मैं मौन पियाला
कुछ छलकाये यादों पर अरु
कुछ को पृष्ठों पर लिख डाला
कुछ अधरों को आये छूकर
कुछ आँसू का बने निवाला
हाँ, बहुत गिरे हैं आँसू बनकर गीत मगर अब और नहीं
हाँ, बहुत लिखे हैं मधुमासों के गीत मगर अब और नहीं।।

गुपचुप गुमसुम प्यारी बातें
वो बीते दिन अरु बीती रातें
मिलना जुलना साथ निभाना
सबकुछ खोकर सबकुछ पाना
मिला यहाँ उन्माद नहीं है
अरु खोने का अवसाद नहीं
है खोकर पाया बहुत यहाँ पर जीत मगर अब और नहीं
हाँ, बहुत लिखे है मधुमासों के गीत मगर अब और नहीं।।

माना के इस गुंजित नभ में
मेरे हैं कुछ गीत अधूरे
माना मन की कुंज गली में
जो चाहे वो पुष्प न फूले
कुछ वंचित गीतों के कारण
पंथी अपना पथ क्यूँ भूले
हाँ, माना मन में रही अधूरी रीत मगर अब और नहीं
हाँ, बहुत लिखे हैं मधुमासों के गीत मगर अब और नहीं।।

मन करता है मुक्त गगन में
बस पंछी बनकर उड़ जाऊँ
इन राहों के साथ चलूँ मैं
राहों संग-संग मुड़ जाऊँ
ढूँढूँ अपने मन के भीतर 
बस अपनेपन को मैं गाऊँ
दिन अनुप्रासों के बहुत गये हैं बीत मगर अब और नहीं
हाँ, बहुत लिखे है मधुमासों के गीत मगर अब और नहीं।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        06अगस्त, 2022

जीवन की कितनी इच्छाएं मन में मोह जगाती हैं।।

जीवन की कितनी इच्छाएं मन में मोह जगाती हैं।।

कुछ सपने नयनों में भरकर
खुली आँख में खो जाती हैं
पलकों की पंखुरियों से जब
नींद सुनहरी ले जाती हैं।।

पलकों की पाँखुरियों पर हौले से चुम्बन दे जाती हैं
तब जीवन की कितनी इच्छाएँ मन में मोह जगाती हैं।।

जाने कितनी अभिलाषा से
मन प्रतिपल लिपटा जाता है
जाने कितने अनुरागों में
मन खुद को सिमटा पाता है।।

अनुरागों की मृदुल छुअन जब आशा के दीप जलाती है
तब जीवन की कितनी इच्छाएँ मन में मोह जगाती हैं।।

खुली पलक के स्वप्न सभी ये
निज नयनों के हैं आभूषण
आशाएँ भी घनीभूत हों
नित-नित करतीं जिनका पोषण।।

उम्मीदें नवदीप जला जब पल-पल मन हर्षाती हैं
तब जीवन की कितनी इच्छाएँ मन में मोह जगाती हैं।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        05अगस्त, 2022

अनगिन खुशियाँ लेकर आया राखी का त्योहार।।

अनगिन खुशियाँ लेकर आया राखी का त्योहार।।

प्रीत के धागों ने बांधा स्नेह का संसार
अनगिन खुशियाँ लेकर आया राखी का त्योहार।।

ये जग भूल भुलैया है इक, भटक रहे हैं सारे
सुख शांति की खातिर अपना सबकुछ हैं हारे
ऐसे में मन की शीतलता का है ये आधार
अनगिन खुशियाँ लेकर आया राखी का त्योहार।।

सावन की मस्ती में कोयल मधुमय गीत सुनाती
मेघों के मृदु ताप पे बरखा रानी भी मुस्काती
चहुँ ओर है हरियाली और बह रही मृदुल बयार
अनगिन खुशियाँ लेकर आया राखी का त्योहार।।

आज धरा ने चंदा मामा को संदेशा भिजवाया
इंद्रधनुषी राखी बाँधी माथे तिलक लगाया
सच है दुनिया में सबसे सच्चा भाई बहन का प्यार
अनगिन खुशियाँ लेकर आया राखी का त्योहार।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        01अगस्त, 2022

तुम बिन अब तक है अधूरा इस जीवन का गान।।

तुम बिन अब तक है अधूरा इस जीवन का गान।। 

तनिक ठहर जा मौन पल में ऐ मेरे मन प्राण
तुम बिन अब तक है अधूरा इस जीवन का गान।। 

युग-युग से अंधकार में तुमने मुझको पाला
नित राहों में दीप जला हाथ पकड़ सम्भाला
इस जीवन के तापों में तुमसे मिली है छाँव
तुम बिन नहीं पूरा होगा मेरे मन का गाँव।।

छोड़ चले जो बीच सफर मिलेगी कैसे ठाँव
तुम बिन अब तक है अधूरा इस जीवन का गान।। 

आज कह दो बातें मन की खोल हृदय का द्वार
कब तक मौन दबा रखोगे उर में हाहाकार
कंठ के कुंठित स्वरों का मोल तब कोई नहीं
पड़ रही हों लाल डोरे आंख जब सोई नहीं।।

खोल दो अपने हृदय को न अब रोको तूफान
तुम बिन अब तक है अधूरा इस जीवन का गान।। 

वक्त कितना शेष है अब सूर्य देखो ढल रहा
सांध्य की आगोश में जा मौन हो कुछ कह रहा
तुम कहो कितनी बची हैं उन हड्डियों में भार
कौन जाने किस समय में पुष्प बन जाये क्षार।।

कहने सुनने को यहाँ रह जायेंगे आख्यान
तुम बिन अब तक है अधूरा इस जीवन का गान।। 

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        01अगस्त, 2022


वसुधैव कुटुंबकम।

वसुधैव कुटुंबकम।  

विश्व पटल पर ऊँची प्रतिपल
धरती माता की शान रहे
शिक्षा, संस्कृति और सभ्यता
पर सबको अभिमान रहे।।

ऊंच नीच का भेद नहीं हो
जाति धर्म  अवरोध नहीं हो
सबके हों अधिकार सुरक्षित
मन में कहीं विरोध नहीं हो।।

घृणा भाव से ऊपर उठकर
जन-जन के मन में प्रेम रहे
सम्मान करें इक दूजे का
बस मानवता ही श्रेष्ठ रहे।।

एक धरा है एक विश्व है
हम सबको इसका भान रहे
वसुधैव कुटुंबकम मंत्र सभी का
गुंजित सदा अभियान रहे।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       31जुलाई, 2022


नदिया और समंदर।

नदिया और समंदर।  

चली है आज नदिया फिर समंदर में समाने को
मचलते भाव ले मन में नया फिर गीत गाने को
उसे अब इन हवाओं से नहीं कोई  शिकायत है
चली है आज जीवन से खुद मिलने मिलाने को।।

नहीं नदिया महज व्याकुल समंदर में सिमटने को
नहीं राहें महज व्याकुल निगाहों में सिमटने को
मंजिल की भी है चाहत कि राहें पास तक पहुँचे
समंदर की भी ख्वाहिश कि नदिया आये मिलने को।।

नदिया ये समंदर की नहीं यूँ ही दीवानी है
कि नदियों ने समंदर में बसायी राजधानी है
लिख डाले हैं कवियों ने मिलन के गीत कितने ही
गीतों को जो महकाये नदिया का ही पानी है।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        29जुलाई, 2022

अभिमान तिरंगा भारत का।।

अभिमान तिरंगा भारत का।।

शान तिरंगा भारत का 
अभिमान तिरंगा भारत का।।

युग युग से इसकी खातिर
है लाखों ने बलिदान किया
आज़ादी के पुण्य हवन में
अपना सब कुछ दान किया
यही कामना सबके दिल की
ऊँची हरदम शान रहे
घर घर में लहराये तिरंगा
गुंजित ये अभियान रहे।।

शान तिरंगा भारत का 
अभिमान तिरंगा भारत का।।

शान तिरंगा उद्देश्य यही
पल-पल हम दुहरायेंगे
याद शहीदों को करने को
घर-घर हम फहराएंगे
आज़ादी के मतवालों से
हर पल गूंजेगा नभ सारा
शान तिरंगे की खातिर है
अर्पित जीवन प्राण हमारा।।

शान तिरंगा भारत का 
अभिमान तिरंगा भारत का।।

अपनी है बस यही कामना
ये विश्व पटल पर लहराये
शांति सभ्यता मूल तत्व का
इससे ही दुनिया अपनाये
बने प्रतीक मानवता का
हर अधरों पर गुणगान रहे
जब तक ये सूरज चाँद रहे
दुनिया मे तेरा नाम रहे।।

शान तिरंगा भारत का 
अभिमान तिरंगा भारत का।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        29जुलाई, 2022

कितना दूर गाम तुम्हारा।।

कितना दूर गाम तुम्हारा।।

             1
कितना दूर अभी चलना है
रुकना है आगे बढ़ना है
पग नाप रहे मोड़-मोड़ को
जीवन के हर छोर-छोर को
कहीं धूप है छाँव कहीं है
मौसम में बदलाव कहीं है
अब बोलो क्या तुमको प्यारा
कितना दूर गाम तुम्हारा।।

              2
सिरहाने तुम आन खड़े हो
पकड़े बाँह मेरी खड़े हो
कितनी बार यहाँ पूछा है
शब्द कहो क्यूँ कर सूखा है
कह दो अपनी बात हृदय की
चाह नहीं क्या कहो अमिय की
कह दो जो है और सहारा
कितना दूर गाम तुम्हारा।।

              3
कभी लिया आलिंगन मुझको
कभी माथ लगाया पग धूल
तुमने जो सम्मान दिया है
उसे कैसे मैं जाऊँ भूल
दीप सजाया जो राहों में
आ ,उसको कभी जला जाओ
अपने उन सारे वादों को
आओ इक बार निभा जाओ
तेरे वादों पर सब हारा
कितना दूर गाम तुम्हारा।।

          4
हर गाँवों की चौपालों से 
संसद के उन गलियारों तक
दूर भागती इन सड़कों से
कहीं ठहरते चौराहों तक
हमने नजर जहाँ तक डाली
देखी बस रातें अँधियारी
थोड़ी लाली इधर बिखेरो
अपने उन वादों को तोलो
दे दो अब तो साथ हमारा
कितना दूर गाम तुम्हारा।।

             5
कितनी सदियाँ बीत गयी हैं
पर वैसा बदलाव न आया
आरोपों के रथ पर चढ़कर
क्या तुमने बस समय गँवाया
केवल अपनी बात कही है
प्रश्नों से प्रतिपल दूर रहे
प्रतिपल सदियों ने देखा है
लम्हे सत्ता में चूर रहे
लम्हा जीता लम्हा हारा
कितना दूर गाम तुम्हारा।।

          6
गहराती जा रही रात है
अधरों पर अनकही बात है
कौन पूछता जग में बोलो
अवरोधों को खुद ही खोलो
लिखो रात की नई कहानी
हो जाये दुनिया दीवानी
रचो भाव कुछ ऐसा सुंदर
रहे नहीं अब कोई अंतर
तुमसे पूछे स्वयं सितारा
कितना दूर गाम तुम्हारा।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        26जुलाई, 2022



गीत गजल जो रच न पाओ अफसोस यहाँ फिर क्यूँ करना।।

गीत गजल जो रच न पाओ अफसोस यहाँ फिर क्यूँ करना।।

शब्दों के पैमाने लेकर आज मिले हो मैखाने में
गीत गजल जो रच ना पाओ अफसोस यहाँ फिर क्यूँ करना।।

अनगिन लोग यहाँ मिलते हैं भावों का घट ले फिरते हैं
अंतस के सूने भावों को कुछ कहते हैं कुछ सुनते हैं
फिर भी कितने शब्द बिछड़ कर रह जाते हैं वहीं कहीं पर
जिनको मन ढूँढा करता है आशाओं में यहीं कहीं पर
जो भावों को समझ न पाये मोह भला उनसे क्यूँ करना
गीत गजल जो रच ना पाओ अफसोस यहाँ फिर क्यूँ करना।।

ऐसे कितने जीवन भी हैं पथ आसान नहीं जिनका
ऐसे कितने सपने भी हैं पलकों को भान नहीं जिनका
ऐसे जीवन के सपनों को छोड़ भला क्या रह पाओगे
छूट गिरा जो स्वप्न पलक से दर्द भला क्या सह पाओगे
जो स्वप्न सजे ही नहीं पलक पर चाह भला फिर क्यूँ करना
गीत गजल जो रच ना पाओ अफसोस यहाँ फिर क्यूँ करना।।

मौन पथ पर जीवन के माना चला रहा अब तक अकेला
कहो कौन है दुनिया में ऐसा मौन पल जिसने न झेला
अब तुम कहो है कौन ऐसा जिसने बस जीवन में पाया 
तुम ही कहो है कौन ऐसा कुछ भी नहीं जिसने गँवाया
खोना पाना रीत जगत की मोह यहाँ फिर क्यूँ कर करना
गीत गजल जो रच ना पाओ अफसोस यहाँ फिर क्यूँ करना।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       24जुलाई, 2022

चलो उजालों को लेकर के हम सब फिर गाँवों की ओर चलें।।

चलो उजालों को लेकर के हम सब फिर गाँवों की ओर चलें।।

दूर देश एक बस्ती जहाँ, न कोई आता है न जाता है
भूली बिसरी राहों को कहो, क्या कोई यहाँ अपनाता है
पग-पग दौड़ रही ये सड़कें कब कहो गाँव को आती हैं
गाँवों की पगडंडी ही अब तक शहरों को आती जाती हैं
मोड़ सड़क की राहों को आज यहाँ हम गाँवों के छोर चलें
चलो उजालों को लेकर के हम सब फिर गाँवों की ओर चलें।।

सूख रही हैं बावड़ियाँ सारी सूख रहे सब ताल तलैया
सूख रही धरती की माटी औ सूख रही बरगद की छइयां
सूनी-सूनी गलियाँ सारी औ सूने लगते त्यौहार सभी
मौन पड़ी खलिहान की हलचल जहाँ लगते थे चौपाल कभी
भीड़ भरे तहखानों से हट हम सब गलियारों की ओर चलें
चलो उजालों को लेकर के हम सब फिर गाँवों की ओर चलें।।

महज शहर की चकाचौंध से ही ये देश नहीं बन जायेगा
जो खलिहानों से दूर हुए तो ये जीवन क्या पल पायेगा
बूढ़ी झोंपड़ियों से अब भी वही प्रेम की खुशबू आती है
जिस माटी ने जीवन पाला वो कब छोड़ हमें रह पाती है
लोभ-मोह और स्वार्थ से हटकर सदव्यहारों की ओर चलें
चलो उजालों को लेकर के हम सब फिर गाँवों की ओर चलें।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        22जुलाई, 2022

पास पाकर तुम्हें जिंदगी मिल गयी।।

पास पाकर तुम्हें जिंदगी खिल गयी।।

सुन समय छुप चला बादलों में कहीं
साँझ ढलने लगी राह में ही कहीं
चाँदनी ओट से बादलों के चली
मन के आगोश में जिंदगी है खिली
एक अहसास से बंदगी खिल गयी
पास पाकर तुम्हें जिंदगी मिल गयी।।

पलकों में स्वप्न की स्वर्ण रेखा सजी
भाव मे मोहिनी रूप रेखा सजी
गीत अधरों पे आकर सजे इस तरह
नेह के पृष्ठ पर गीतिका है सजी
गीत ऐसे सजे ताजगी मिल गयी
पास पाकर तुम्हें जिंदगी मिल गयी।।

आस की पाँखुरी फिर निखरने लगी
रूप की रोशनी में सँवरने लगी
एक पल, एक क्षण, ये सदी, वो सदी
प्रीत की रश्मियाँ फिर बरसने लगी
मन के भावों में सादगी घुल गयी
पास पाकर तुम्हें जिंदगी मिल गयी।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        22जुलाई, 2022

उर के शांत सरोवर में फिर छेड़ो वीणा की तान मधुर।।

उर के शांत सरोवर में फिर छेड़ो वीणा की तान मधुर।।


मन उपवन की कुंज गली में पिय आओ आकर मिल जाओ
उर के शांत सरोवर में फिर छेड़ो वीणा की तान मधुर।।

इच्छाएँ फिर पर फैला कर मन को दूर कहीं ले जाती
सपने पलकों पर छाते हैं आशाएँ मृदु गीत सुनाती
कह लें मन की सारी बातें आ अंतस में यूँ मिल जाओ
साँसों की सरगम को छू लो फिर  मन हो जाये नवल मुकुल
उर के शांत सरोवर में फिर छेड़ो वीणा की तान मधुर।।

मन मृदु स्पर्श तुम्हारा पाकर पल-पल यूँ स्वप्न सँजोता है
बरखा की प्यासी धरती को जैसे मधु मेघ भिंगोता है
छू ले अंतस के भावों को अंतर्मन में यूँ घुल जाओ
उर से उर का संगम हो यूँ अधरों पर हो नव गान मधुर
उर के शांत सरोवर में फिर छेड़ो वीणा की तान मधुर।।

जिस सुख की मन करे प्रतीक्षा उसको तकता रहता प्रतिपल
निज मन की है यही कामना फैलाता कर नव दल हरपल
आशा के नव अंकुर फूटे यूँ सम्मुख आकर मिल जाओ
मिल जाये जीवन से जीवन इच्छाओं का सम्मान मधुर
उर के शांत सरोवर में फिर छेड़ो वीणा की तान मधुर।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        20जुलाई, 2022

सुधियों के दो पल कागज पे लिखता हूँ मुस्काता हूँ।।

सुधियों के दो पल कागज पे लिखता हूँ मुस्काता हूँ।।

यादों के मानसरोवर पे कितने बादल मँडराये
कुछ बरसे हैं आँसू बनकर कुछ भावों में गहराये
अंतस में घिरते बादल को गीतों से मैं बहलाता हूँ
सुधियों के दो पल कागज पे लिखता हूँ मुस्काता हूँ।।

लहरों की बहती धारा में दूर किनारे तक जाऊँ
चाहे मुझको छोड़ चले सब मैं तो सबको अपनाऊँ
अपने और पराये का कभी भेद समझ न पाता हूँ
सुधियों के दो पल कागज पे लिखता हूँ मुस्काता हूँ।।

नहीं दूर तक जाना मुझको नहीं चाहता सब पा लूँ
इस छोटे से जीवन के जो गीत चुनूँ उसको गा लूँ
गीतों में मन के भावों को छूता हूँ सहलाता हूँ
सुधियों के दो पल कागज पे लिखता हूँ मुस्काता हूँ।।

बहुत कर लिया मन की बातें अब कोई अधिकार नहीं
झंझाओं में उलझे मन से अब कोई प्रतिकार नहीं
खुद से ही बातें करता हूँ खुद को ही बहलाता हूँ
सुधियों के दो पल कागज पे लिखता हूँ मुस्काता हूँ।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       20जुलाई, 2022

कौन है फिर पूछता उसको यहाँ पर।।

कौन है फिर पूछता उसको यहाँ पर।।

जो पुष्प डाली से बिछड़ कर गिर पड़ा
कौन है फिर पूछता उसको यहाँ पर।।

मुक्त होने को मुखर हैं सब यहाँ पर
बंधनों से दूर दुनिया है जहाँ पर
पास जाकर देखते ही सब विकल है
कौन किसको पूछता सोचो वहाँ पर।।

बंधनों को तोड़ कर जो है चल पड़ा
कौन है फिर पूछता उसको यहाँ पर।।

कौन है जो पुष्प बस पाया यहाँ पर
कौन तपन में न कुम्हलाया यहाँ पर
स्वेद बूंदों ने लिखे जब गीत मन के
कंटकों में गीत मन गाया यहाँ पर।।

कंटकों से राह के जो डर गया है
कौन है फिर पूछता उसको यहाँ पर।।

पुष्प चरणों मे चढ़े या फिर माथ पर
पुष्प आँचल में भरे या फिर हाथ पर
भावनाओं से सजी है सृष्टि सारी
है सत्य, सारा पथ सँवरता साथ पर।।

निज स्थान के जो भाव को समझा नहीं
कौन है फिर पूछता उसको यहाँ पर।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        18जुलाई,2022

छाँव।

छाँव।   

एक माटी एक स्थल है एक सी धरती यहाँ
जन्म लेती भावनायें एक सी हरपल यहाँ
एक ही जीवन यहाँ पर एक ही है पालना
एक सा सींचा यहाँ क्यूँ द्वेष मन में मानना।।

नेह बरसाया गगन ने एक सा सब पर यहाँ
और धरती ने बिछाई है पुष्प की चादर यहॉं
कैसे फिर अंतर यहाँ मन में कोई पालता
जब एक सी ही चाँदनी चाँद सब पर डालता।।

जन्म के क्षण में जीवन बोलो कब है सोचता
लड़ के मृत्यु से यहाँ वो सत्य को है पोसता
काँटे चुन आँचल में वो पुष्प पथ पर डालती
लड़ती प्रकृति से यहाँ वो ऐसे हमें पालती।।

उम्र भर प्रतिपल बरसता नेह उसका शीश पर
छोड़ती है कब यहाँ वो प्रीत की कोई कसर
देव उसके त्याग को संसार ऐसे पूजता
ताउम्र उसकी छाँव को देवता भी खोजता।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        18जुलाई, 2022

वो थी अधूरी रात जब मृदु स्वप्न पलकों से गिरा।।

वो थी अधूरी रात जब मृदु स्वप्न पलकों से गिरा।।

आस जो मन में दबी थी फिर उठी इक टीस बनकर
गीत अधरों पर सजे सब दर्द का आशीष बनकर
साँस भी तब धड़कनों से कुछ यूँ उलझ कर रह गयी
आँसुओं में बह चले सब पीर पलकों से मचलकर।।

इस क्षितिज से उस क्षितिज तक ये वक्त कुछ ऐसा घिरा
वो थी अधूरी रात जब मृदु स्वप्न पलकों से गिरा।।

सिंधु को गहराइयों तक बस दर्द का संसार था
अंक में सिमटा हुआ निज स्वप्न का पारावार था
कामनायें भी ठिठककर रुक गयीं मन के द्वार पर
क्या कहे उस एक पल में मन में जो हाहाकार था।।

रह गयीं ख्वाहिश अधूरी था टूट कर तारा गिरा
वो थी अधूरी रात जब मृदु स्वप्न पलकों से गिरा।।

संदर्भों के सब सिलसिले सहसा सिमटने से लगे
गीत अधरों पर सजे जो टूट कर झरने लगे
शब्दों में सिमट न पाये भाव अंतर्मन के सभी
अवशेष यादों के सभी आँसुओं में बहने लगे।।

बह गए सब आस के क्षण तम टूट कर ऐसे गिरा
वो थी अधूरी रात जब मृदु स्वप्न पलकों से गिरा।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       18जुलाई, 2022


मन जो बात नहीं कह पाता कविताओं में कह लेता हूँ।।

मन जो बात नहीं कह पाता
कविताओं में कह लेता हूँ।।

खुद के मन की बातें सारी
खुद ही खुद से कर लेता हूँ
मन जो बात नहीं कह पाता
कविताओं में कह लेता हूँ।।

छंदों की पहचान नहीं है
मात्राओं का भार न जानूँ
गजलों, दोहों, चौपाई की
मैं कोई पहचान न जानूँ
दग्ध हृदय में उमड़ रहे सब
भावों को मैं सह लेता हूँ
मन जो बात नहीं कह पाता
कविताओं में कह लेता हूँ।।

व्याकुलता के पल में कितने
मन में बहती हैं धाराएं
पीड़ा के निस क्षण में मन ने
रच डाली कितनी रचनायें
रचनाओं के इर्द-गिर्द में
डूबा खुद में रह लेता हूँ
मन जो बात नहीं कह पाता
कविताओं में कह लेता हूँ।।

जगती के सब ताने सारे
बन शब्द तड़पने लगते हैं
पीड़ित मन जब कह ना पाये
मन बूँदों में कहने लगते हैं
उन बूँदों के दर्द सभी वो
पलकों में ही सह लेता हूँ
मन जो बात नहीं कह पाता
कविताओं में कह लेता हूँ।।

कंटक में उलझे मन लेकिन
श्रृंगार सृष्टि का करना चाहे
अवसादों में भले घिरा हो
सत्कार सुरभि से करना चाहे
काँटे मन में भले चुभे हों
हँसते-हँसते सह लेता हूँ
मन जो बात नहीं कह पाता
कविताओं में कह लेता हूँ।।

शब्द बाण से मन हो घायल
चाहा जब प्रतिकार किया
अपने हों या भले पराये
मन ने सबका सत्कार किया
प्रतिकारों के दोष सभी तब
मन में लेकर रह लेता हूँ
मन जो बात नहीं कह पाता
कविताओं में कह लेता हूँ।।

पग-पग कितने आरोपों में
ये जीवन उलझा जाता है
पग-पग कितना गरल पिया है
फिर भी न सुलझ ये पाता है
अनसुलझे सारे प्रश्नों को
पलकों में ही दह लेता हूँ
मन जो बात नहीं कह पाता
कविताओं में कह लेता हूँ।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       14जुलाई, 2022

लिख सके न हम मन की बातें।

लिख सके न हम मन की बातें।  

जब लिख सके न हम मन की बातें
तुमने बोलो कैसे पढ़ डाला।।

जो बातें कभी निकली ही नहीं
तुमने बोलो कैसे सुन डाला।।

इक बात पकड़ कर जो बैठे हो
मन ही मन में क्या-क्या रच डाला।।

तुम शोषित हो हम शोषक माना
सोचो, तुमने क्या-क्या कह डाला।।

तुम मन तक कभी पहुँच कब पाये
कहते हो मेरा मन पढ़ डाला।।

कुछ शब्द गिराये होंगे हम सब
वक्त यूँ ही नहीं सब कढ़ डाला।।

क्या दोष यही है मेरा बोलो
बातें तेरी तुमसे कह डाला।।

अब ये नजर की बातें हैं "देव"
जिसने यहाँ रिश्ता बदल डाला।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        13जुलाई, 2022

आस का दीपक जलाये द्वारे पर ठहरा हूँ मैं।।

आस का दीपक जलाये द्वारे पर ठहरा हूँ मैं।।


नैन में भरकर प्रतीक्षा अंक में मृदु गीत भरकर
आस का दीपक जलाये द्वारे पर ठहरा हूँ मैं।।

छुप रही हैं रश्मियाँ भी दूर देखो अब क्षितिज पे
छा रही हैं बदलियाँ भी मौन भावों के हरिज पे
पक्षी भी अब उड़ चले हैं आसरे की ओर देखो
और सूरज लिख रहा कुछ शब्द पृष्ठों पर जलज के।।

सांध्य से कुछ पल चुराकर नैन में कुछ स्वप्न भरकर
आस का दीपक जलाये द्वारे पर ठहरा हूँ मैं।।

चिमनियों से सांध्य चूल्हे लिख रहे नूतन कहानी
सूर्य की अंतिम किरण भी कर रही पल को  सुहानी
धूम्र भी कुछ गढ़ रहे हैं बादलों में तूलिका से
देख फिर खिलने लगी है भाव में अब रातरानी।।

दृष्टि का विस्तार करके प्रेम अंगीकार कर के
आस का दीपक जलाये द्वारे पर ठहरा हूँ मैं।।

द्वार पर आकर पुकारा रात का पहला सितारा
चाँदनी भी खिल उठी है देखकर सुंदर नजारा
जुगनुओं ने छेड़ दी चौपाल पर फिर इक कहानी
तेज होती धड़कनें सुन कर रहीं हमको इशारा।।

अंग का विन्यास करके पाश में मधुमास भरकर
आस का दीपक जलाये द्वारे पर ठहरा हूँ मैं।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        12जुलाई, 2022

कुछ शब्दों में जीवन भर के मूल्य मुखर कब हो पाते हैं।।

कुछ शब्दों में जीवन भर के
मूल्य मुखर कब हो पाते हैं।।

जीवन इतना सरल रहा कब
के कोई सब कुछ लिख डाले
पल-पल यहाँ बदलते देखा
जगती ने किस्मत को पाले।।

इस पाले से उस पाले तक
सफर अधूरे रह जाते है
कुछ शब्दों में जीवन भर के
मूल्य मुखर कब हो पाते हैं।।

हाँ, सही कहा जो कहा नहीं
गलती पर, लेकिन झुका नहीं
जग ने तो बस शब्द चुने इक
पर, रुक कर कुछ भी सुना नहीं।।

खुद ही कथ्य बनाने वाले
हो प्रखर सत्य कब सुन पाते हैं
कुछ शब्दों में जीवन भर के
मूल्य मुखर कब हो पाते हैं।।

क्षण भर को बादल छाने से
कब सूर्य छुपा जो यहाँ छुपेगा
बाधाएँ कितना पथ रोकें
पुण्य पथिक जो, निडर चलेगा।।

निज संबंधों की बेदी पर
बर्फ कहो कब टिक पाते हैं
कुछ शब्दों में जीवन भर के
मूल्य मुखर कब हो पाते हैं।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       11जून, 2022

है प्रणय की प्यास गहरी प्रीत से आँगन सँवारो।।

है प्रणय की प्यास गहरी प्रीत से आँगन सँवारो।।


अंक में कुछ शब्द भर लो छंद को फिर से निखारो
है प्रणय की प्यास गहरी प्रीत से आँगन सँवारो।।

मैं हृदय में पुण्यता भर प्रीत का विश्वास पालूँ
दग्ध भावों को सँभालूँ मन के सारे दाह धो लूँ
आज खोलूँ बंधनों को मोह को अनुरंजनों को
नैन भर तुमको निहारूँ श्वास में अहसास पा लूँ।।

श्वास में संगीत भर लो साज को फिर से उतारो
है प्रणय की प्यास गहरी प्रीत से आँगन सँवारो।।

इन कपोलों पर बिखरती ये नेह की कुछ बदलियाँ
बूँद जल की हैं चमकती जैसे मेह की हों तितलियाँ
अधरों से मधुरस छलकते नयनों से है चाँदनी
जैसे पुलकित हो थिरकती साजों पर ये उँगलियाँ।।

गात का कण-कण पुकारे आ मुझे फिर से निखारो
है प्रणय की प्यास गहरी प्रीत से आँगन सँवारो।।

उर निलय के भाव सुरभित प्रेम का आसक्त गहना
स्वप्न की मृदु पाँखुरी को फिर नयन में आज पढ़ना
राग गुंजित हो पवन में खिल उठे मधुमास फिर से
नख से शिख तक राग मधुरिम साजों में आज गढ़ना।।

निज निशा से भोर तक फिर चाँद धरती पर उतारो
है प्रणय की प्यास गहरी प्रीत से आँगन सँवारो।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        08जुलाई, 2022

अपनी हो सूरज से यारी।।

अपनी हो सूरज से यारी।।

रक्तिम रंजित भाव प्रकट कर
पृष्ठों पर कुछ दृश्य सँवारे
इन नैनों में चाहत भर कर
दूर किया सारे अँधियारे
पलकों के लालायित सपने
जोह रहे हैं अपनी बारी
कहते मन के भाव मचल कर
अपनी हो सूरज से यारी।।

अगणित पथ हैं अगणित बाधा
अगणित मन की अभिलाषाएँ
रह-रह कर प्रतिबिंबित होती
भावों में सारी गाथाएँ
प्रखर प्रेम की नव ज्वाला में 
अभिलाषाएँ पंख पसारी
कहते मन के भाव मचल कर
अपनी हो सूरज से यारी।।

समय चक्र के साथ चलूँ मैं
जैसे चलते चंदा तारे
लिख डालूँ नव गीत गगन में
प्रकृति का जो रूप निखारे
आशाओं को पथ मिल जाये
अपनी हो इतनी तैयारी
कहते मन के भाव मचल कर
अपनी हो सूरज से यारी।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        07जुलाई, 2022

मेरे साथ देखो ये राहें चली हैं।।

मेरे साथ देखो ये राहें चली हैं।।

सफर में अकेला नहीं मैं मुसाफिर
मेरे साथ देखो ये राहें चली हैं।।

भोर से साँझ तक बस तपन ही तपन थी
मगर आस में एक मीठी छुअन थी
वो मीठी छुअन से हुआ भाव पावन
कि मरुधर में लहराया है आज सावन।।

ये पावस की रातें मुखर हो चली हैं
मेरे साथ देखो ये राहें चली हैं।।✅

हवाओं के झोंकों ने है राग छेड़ा
कलियों ने हंँसकर के अनुराग छेड़ा
सजने लगी जिंदगी बन सयानी
लिखी आज मौसम ने नूतन कहानी।।

कहानी सुनों आज भी मनचली है
मेरे साथ देखो ये राहें चली हैं।।

कैसे अकेला चला इस सफर में
यादों की बदली है छायी  डगर में
वो भीनी सी खुशबू महकती कहीं हो
है मालूम संग-संग मेरे तुम यहीं हो।।

 कि यादों में मेरे घुली जिंदगी है
मेरे साथ देखो ये राहें चली हैं।।

 ©✍️ अजय कुमार पाण्डेय 
        हैदराबाद 
        06जुलाई, 2022

क्या जाने किस ओर चलूँगा।।

क्या जाने किस ओर चलूँगा।।

अनजान नगर अनजान डगर
अनजानी राहों का नरतन
कहीं रुकी हैं कहीं मुड़ी हैं
भटका-भटका सा लगता मन
इन राहों के चक्रव्यूह से
सोच रहा कैसे निकलूँगा
प्रतिपल भावों में मंथन है
क्या जाने किस ओर चलूँगा।।

जिसे पूजना था मंदिर में
उसने ही मन को तोड़ दिया
जिससे मन की डोर बँधी थी
जाने बीच राह में छोड़ दिया
भूलों से जो घाव मिले हैं
उसे अकेला मौन सहूँगा
प्रतिपल भावों में मंथन है
क्या जाने किस ओर चलूँगा।।

सींचा था जिसको मृदु मधु से
इस जीवन की फुलवारी में
कैसे कह दूँ काँटे बोये
हैं, पग-पग उसने क्यारी में
उपवन के कुछ शुष्क पात हैं
किसको छोड़ूँ किसे चुनूँगा
प्रतिपल भावों में मंथन है
क्या जाने किस ओर चलूँगा।।

रीत गया मधुऋतु घट सारा
अब शेष रहा क्या बोध नहीं
अंतस के भावों को प्रकटूँ
अब ऐसा भी अनुरोध नहीं
बिखर चले जब स्वप्न सुनहरे
खारे जल से पग धोऊंगा
प्रतिपल भावों में मंथन है
क्या जाने किस ओर चलूँगा।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        04जुलाई, 2022

काश कभी मैं तुमसे मन की बात सभी वो कह पाता।।

काश कभी मैं तुमसे मन की बात सभी वो कह पाता।।

कितने सपने पलकों पर ले
रातों के हम साथ जगे
बनकर बाती हम दीपक की
उम्मीदों के साथ जगे
तुम बिन कैसे रोशन दुनिया
बात यहाँ समझा पाता
काश कभी मैं तुमसे मन की बात सभी वो कह पाता।।

मैंने अपने सूनेपन को
तेरी यादों पे वारा
जीत गया मैं सबसे लेकिन
अपने ही दिल से हारा
दिल से क्यूँ मजबूर हुआ
बात यहाँ बतला पाता
काश कभी मैं तुमसे मन की बात सभी वो कह पाता।।

अब तुम कितने दूर बसे हो
चाहूँ तो कैसे आऊँ
ऊँची-ऊँची दीवारें हैं
कैसे तुम तक पहुँचाऊँ
मुझसे तुमको घाव मिले जो
काश उसे सहला पाता
काश कभी मैं तुमसे मन की बात सभी वो कह पाता।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        30जून, 2022

मैं अब तक गीत न गा पाया।।

मैं अब तक गीत न गा पाया।।

मैंने जग की बात परखकर
कुछ शब्द प्रखर हो कह डाले
मैंने मन के सूनेपन में
कुछ गीत मुखर हो रच डाले
मेरे उन गीतों को अब तक
कोई सद्भाव न मिल पाया
कहने को तो लिखे बहुत पर
मैं अब तक गीत न गा पाया।।

मैंने समझा साथ मिलेगा
जीवन के हर पथ पे मुझको
मैंने चाहा करूँ समर्पित
जीवन का हर पल मैं तुमको
लेकिन हाथों की रेखा में
मैं तुमको नहीं सजा पाया
कहने को तो लिखे बहुत पर
मैं अब तक गीत न गा पाया।।

मैंने अपने अंतर्मन के
भावों से श्रृंगार खिलाये
मैंने अपने हर गीतों में
सपनों के श्रृंगार सजाये
थे पलकों के तंग किनारे
मैं आँसू नहीं बहा पाया
कहने को तो लिखे बहुत पर
मैं अब तक गीत न गा पाया।।

कितने ही अवरोध मार्ग में
मैं कब तक मनन यहाँ करता
सूरज की ढलती किरणों में
मैं चिंतन कहो कहाँ करता
कुछ था कर्ज मेरे माथे पर
मैं जिसको नहीं चुका पाया
कहने को तो लिखे बहुत पर
मैं अब तक गीत न गा पाया।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       30जून, 2022

मेरे नयनों का सूनापन अगर जो पढ़ लिया होता।

मेरे नयनों का सूनापन अगर जो पढ़ लिया होता।

मेरे माथे की सिलवट को अगर जो पढ़ लिया होता
मेरे भावों की आहट को नजर में मढ़ लिया होता
नहीं घिरती कभी अफसोस की बदली इन हवाओं में
मेरे नयनों का सूनापन अगर जो पढ़ लिया होता।।

जो लफ्जों का सफर मुश्किल तो रस्ते छूट जाते हैं
कहे कोई यहाँ कुछ भी नजारे  रूठ जाते हैं 
नहीं बस दोष लहरों का किनारों की कुछ खता होगी
कि हल्की थाप लहरों की जो पाकर टूट जाते हैं।।

जी, चलो माना नहीं आता मुझे मिलना मिलाना कुछ
नहीं आता मुझे माना कि कहना कुछ सुनाना कुछ
मगर सब बात दिल में है अभी तक सालती तुमको
इशारों में  सही कुछ तो नजर से गढ़ लिया होता।।

हुए हैं दूर अब हम तुम समय का दंश है शायद
कहीं मेरे तुम्हारे भाव का कुछ अंश है शायद
जब मचली नाव लहरों में किनारा कढ़ लिया होता
मेरे नयनों का सूनापन अगर जो पढ़ लिया होता।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        29जून, 2022



लहरायें वन उपवन सारे।

लहरायें वन उपवन सारे।  

तन कोमल हो मन निर्मल हो
सुखमय जीवन का हर पल हो
खिल जाएं सबकी आशाएँ
स्वच्छ हवा से जग मंगल हो।।

द्वीप-द्वीप हरियाली छाये
कलरव मीठा राग सुनाये
जगती का हर गीत मनोहर
खग-मृग सब हिल मिल गायें।।

स्वच्छ धरा हो पुण्य भाव हो
नहीं कहीं कोई अभाव हो
जन-जन हर्षित मन पुलकित हो
हिय निर्मल निर्झर मृदु स्वभाव हो।।

अंबर से पग-पग शोभित हो
अवनी का कण-कण पोषित हो
लहराये वन उपवन सारे
शुभ गीतों से नभ गुंजित हो।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        28जून, 2022

जीवन के संधि-पत्र पर।

जीवन के संधि-पत्र पर। 

जीवन के उस संधिपत्र पर सच लिखना क्या भूल गये।।

कुछ पन्नों में नत्थी कर ली
सबने जीवन की गाथा
बिखरे-बिखरे कुछ पन्ने थे
बाँध नहीं पाया धागा
इक-इक पन्ने चुनने खातिर
रात-दिवस जीवन जागा
फिर भी जाने कितने पन्ने
जीवन पथ के छूट गये
जीवन के उस संधि-पत्र पर सच लिखना क्या भूल गये।।

कितनी सुधियों की खुशबू से
महक रहा जीवन अपना
कितने वादों की नरमी से
कितना कुछ हमको लिखना
पर इक आँधी के झोंके से
बिखरा पलकों का सपना
सपनों का कुछ दोष नहीं था
पलकों से क्यूँ टूट गये
जीवन के उस संधि-पत्र पर सच लिखना क्या भूल गये।।

इक पन्ने पर धुँधले चेहरे
पास कहीं परछाईं हैं
यादों के दीपक से मिलकर
अंतस में घिर आयीं हैं
यादें पलकों की बूँदों से
लगती कुछ घबराईं हैं
अधरों के वो गीत सभी अब
चुभते से क्यूँ शूल हुए
जीवन के उस संधि-पत्र पर सच लिखना जब भूल गये।।

 ©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        27जून, 2022


अब भी चुभ रहा बन शूल।

कुछ कहीं ऐसा है अब भी
चुभ रहा बन शूल।

अंक में मेरे सिमटकर
पाश में मेरे लिपटकर
कंठ में थे गीत के स्वर
कुछ कहा उस रोज तुमने
याद है वो आज साथी या गये हो भूल
कुछ कहीं ऐसा है अब भी चुभ रहा बन शूल।।

मौन पल में कुछ कहा था
दर्द कितना ही सहा था
शब्द अधरों से झरे कुछ
अश्रु पलकों से गिरे कुछ
याद है वो अश्रुकण या फिर गये हो भूल
कुछ कहीं ऐसा है अब भी चुभ रहा बन शूल।।

अब कहाँ मैं तुम कहाँ पर
दूर हैं हम, मौन हैं स्वर
लिख रहा पर गीत तेरे
भाव मन के, प्रीत तेरे
याद है क्या गुनगुनाना या गये हो भूल
कुछ कहीं ऐसा है अब भी चुभ रहा बन शूल।।

दूर हूँ सब बंधनों से
स्नेह के अनुरंजनों से
है नहीं अफसोस कोई
रात पलकें पर न सोईं
याद अब भी जागना है या गये हो भूल
कुछ कहीं ऐसा है अब भी चुभ रहा बन शूल।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        16 जून, 2022


पीड़ा ने मुझको अपनाया।।

पीड़ा ने मुझको अपनाया।।
          
               1⃣

पग-पग चलता रहा निरंतर
पलकों में भर प्रेम समंदर
आती जाती साँसें पल-पल
भावों में कब करती अंतर
नयनों ने सब भाव सँभाले
आस-निराश के ओढ़ दुशाले
अधरों पर नवगीत सजाये
आहों में भी गीत सुनाये
मेरा गीत जगत को भाया
पर जाने क्या भूल हुई जो
पीड़ा ने मुझको अपनाया।।

              2⃣

मैंने सुख में भाव सँभाले
दुख में सुख की राह निकाले
मीलों चलता रहा क्षितिज तक
कदमों से जीवन लिख डाले
कुछ भूलों ने ऐसा घेरा
सुख में दुख ने डाला डेरा
बदनामी की आँच लगी यूँ
बदल न पाया मन का फेरा
मन के भावों को समझाया
पर जाने क्या भूल हुई जो
पीड़ा ने मुझको अपनाया।।

                3⃣

यादों का जब लिया सहारा
उस पर अपना सबकुछ वारा
जगती से क्या करूँ शिकायत
सब से जीता खुद से हारा
हार-जीत के चक्र में फँसकर
भूल गया जब जीना खुलकर
फिर क्या देता दोष किसी को
समझ नहीं पाया जब मिलकर
विधना ने सब खेल रचाया
पर जाने क्या भूल हुई जो
पीड़ा ने मुझको अपनाया।।

               4⃣

उत्तर इतना सहज रहा कब 
के जब चाहो तब मिल जाये
भावुकता के क्षण में हमने
संदेशे पल-पल भिजवाये
जिस पल तुमसे राह मिली थी
जीवन क्या तब हमने जाना
अंजुलि से जब समय गिरा तब
खोना क्या तब हमने जाना
खो कर भी पल-पल मुस्काया
पर जाने क्या भूल हुई जो
पीड़ा ने मुझको अपनाया।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        15जून, 2022


है कुपथ क्या औ सुपथ क्या अब कौन बोलेगा भला।।

है कुपथ क्या औ सुपथ क्या
अब कौन बोलेगा भला।।

            1⃣
रात के उस पार देखो
भोर की उजली किरण है
बादलों के पार देखो
अवनि अंबर का मिलन है
हूँ जा रहा इस पंथ पर 
मैं अकेला गीत गाता
फिर कहो कोई यहां क्यूँ
आसमां सर पर उठाता
है सुगम या राह दुर्गम
अब कौन रोकेगा भला
है कुपथ क्या औ सुपथ क्या
अब कौन बोलेगा भला।।

            2⃣

राह कितनी मैं चला हूँ
और कितनी दूर जाना
मुश्किलें चाहे सफर में
सीखा केवल मुस्कुराना
शब्द लहरों से लिया हूँ
साहिलों से गीत गाना
आँधियाँ चाहे डगर में
दीप बनकर टिमटिमाना
दीप का व्यवहार बोलो
अब कौन समझेगा भला
है कुपथ क्या औ सुपथ क्या
अब कौन बोलेगा भला।।

               3⃣

क्या कठिन जीवन यहाँ पर
औ क्या है ये मृत्यु सरल
लगता जिंदगी के वास्ते 
सब पी रहे पल-पल गरल
हर किसी के अंक में है
उसका अपना आसमान
फिर नहीं पर्याप्त है क्यूँ
जो कुछ मिला सबको यहाँ
अब ये कसक दिन रात की 
क्या वक्त समझेगा भला
है कुपथ क्या औ सुपथ क्या
अब कौन बोलेगा भला।।

             4⃣
मौन रहकर इस सफर में
देखो चले कितने मगर
पार कितने पा सके हैं
हो ये डगर या वो डगर
ये नाव ही है जानती
वेग कितनी है लहर में
वो किनारे क्या करेंगे
दूर जो ठहरे सफर में
पतवार इन किश्तियों की
अब कौन पकड़ेगा भला
है कुपथ क्या औ सुपथ क्या
अब कौन बोलेगा भला।।

             5⃣

जब लिए संतोष मन में
चल पड़े मन के नगर में
क्यूँ यहाँ अफसोस करना
राह कैसी है नजर में
शब्द से उपचार कर के
दर्द को अपना बना लो
गीत में श्रृंगार भर के
स्वयं में ही गुनगुना लो
जब नहीं हो साथ कोई
बोलो शपथ क्यूँ ले भला
है कुपथ क्या औ सुपथ क्या
फिर कौन बोलेगा भला।।

©✍️ अजय कुमार पाण्डेय
         हैदराबाद
        11जून, 2022

आज अभिलाषा जगी है।।

आज अभिलाषा जगी है।।

          1

चाँदनी का रथ सजा है
और तारे भी सफर में
भाव की आलोड़नाएँ
गुदगुदाती हैं डगर में
अंक में आकर मिली है
आस जो थी मनचली
देख इसको फिर खिली है
कामनाओं की कली
मौन इस व्यवहार में
आस के संसार में
प्रीत की आशा जगी है
आज अभिलाषा जगी है।।
        
            2

नेत्र मन के आज मेरे
खुल रहे हैं पास आकर
साँस में सरगम सजी है
देख तुझको पास पाकर
रत्न आभूषण सभी अब
मोहते मन को निरन्तर
ये शिशिर ऋतु भी मुझे अब
लग रही पिय आज सुंदर
रूप के आकार में
इस मधुर संसार में
प्रीत की आशा जगी है
आज अभिलाषा जगी है।।

             3

आज मन के स्वप्न सारे
फिर पलक पे आ सजे हैं
भावनाओं के दुआरे
प्रेम के तोरण सजे हैं
चाह जो थी दूर कल तक
पास लाना चाहता हूँ
कल्पनाओं के सफर में
दूर जाना चाहता हूँ
मृदु हृदय उद्गार में
मोह के आकार में
प्रीत की आशा जगी है
आज अभिलाषा जगी है।।

             4

आज मन के निज नगर में
सज रहे हैं गीत के स्वर
प्रीत के पावस पवन में
गूँजते मधुमास के त्वर
है सजी ऋतु ये रसीली
हैं प्रहर सब आज पावन
गेह में पल-पल छुपा है
स्नेह का संपूर्ण गायन
देह के आधार में
कामना उपहार में
प्रीत की आशा जगी है
आज अभिलाषा जगी है।।

              5

चल निकल कर मौन पल से
आज मन की कह लें सारे
अंक में जो कुछ हमारे
प्रीत पर हम क्यूँ न वारें
हाँ चलो पहचान लें अब
क्यूँ रहे मन में निराशा
दिख रही है आज हमको
प्रेम की कोमल सुभाषा
पंथ में अभिसार के
मौन के उद्गार में
प्रीत की आशा जगी है
आज अभिलाषा जगी है।।

            6

लौट जाऊँ मैं यहाँ से
तो कहो कैसा लगेगा
साथ में जब हम न होंगे
भाग्य फिर कैसे जगेगा
इस निशा के निज पलों को
कौन देगा मान्यता
शुष्क भावों से कहो फिर
क्या जगेगी  संज्ञान्यता
चेतना के सार में
स्वप्न के विस्तार में
प्रीत की आशा जगी है
आज अभिलाषा जगी है।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        10जून, 2022





जीत सकूँ चाहे ना जग को पर जी लूँ इसको जी भरकर।।

जीत सकूँ चाहे ना जग को पर जी लूँ इसको जी भरकर।।

मैंने जग के सूनेपन में उल्लासों के गीत रचाये
कुछ में भाव लिखे हैं अपने कुछ में दूजे भाव सजाये
फिर भी सोचा इस रंगमंच पे आऊँ मैं क्या-क्या बनकर
जीत सकूँ चाहे ना जग को पर जी लूँ  इसको जी भरकर।।

लेकिन जगती रंगमंच पर कैसा अभिनय करवाती है
भरती है उल्लास कभी औ कभी निराशा दे जाती है
कभी नटी सा जीवन लगता और कभी लगती मनमानी
फिर भी जाने क्यूँ लगती है ये दुनिया जानी पहचानी।।

अपने मन के भावों को कह लेता हूँ यूँ ही लिखकर
जीत सकूँ चाहे ना जग को पर जी लूँ  इसको जी भरकर।।

तुमसे ये जो मेल हुआ है यही भाव है यही प्रणय है
जगती के इस आडंबर में सत को समझे वही हृदय है
एक सत्य है एक प्राण है बहती जिसमें जीवन धारा
करता रहता जिसमें जीवन हर हिस्से का अभिनय सारा।।

भले दृष्टि में अभिनय है ये जीता हूँ मैं इसको मनभर
जीत सकूँ चाहे ना जग को पर जी लूँ इसको जी भरकर।।

हैं हम सब किरदार जगत के मन ही अपना रंगमहल है
जिस पर सारा मंच सजा है ये जगती वो क्रीड़ाथल है
अपना अंश निभा लें जिसपल उन्हीं पलों में जीवन मूल
वरना जाने कौन यहाँ पर कब क्या हो जाये अगले पल।।

बीते पल की घोर निशा में फिर क्यूँ भटके मन घुट-घुट कर
जीत सकूँ चाहे ना जग को पर जी लूँ इसको जी भरकर।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        08जून, 2022


जोड़ मन के तार सारे।।

जोड़ मन के तार सारे।।

एक जैसी कामनायें
कह रही सुन भावनाएँ
गीत मन के गुनगुनाती
चाहती औ मुस्कुराती
मौन मन बस ये पुकारे
जोड़ मन के तार सारे।।

बादलों से नीर बरसा
फिर कहो क्यूँ गीत तरसा
भारी मन, क्यूँ दर्द गहरा
कैसा है अब दर्द ठहरा
तोड़ कुंठित बांध सारे
जोड़ मन के तारे सारे।।

एक तरह जब है जीवन
फिर कहो है मौन क्यूँ मन
क्यूँ नहीं यादें उभरतीं
क्यूँ नहीं ख़ुशियाँ ठहरती
आ चलें पनघट किनारे
जोड़ मन के तार सारे।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        04जून, 2022

जोड़ मन के तार सारे।।

जोड़ मन के तार सारे।।

एक जैसी कामनायें
कह रही सुन भावनाएँ
गीत मन के गुनगुनाती
चाहती औ मुस्कुराती
मौन मन बस ये पुकारे
जोड़ मन के तार सारे।।

बादलों से नीर बरसा
फिर कहो क्यूँ गीत तरसा
भारी मन, क्यूँ दर्द गहरा
कैसा है अब दर्द ठहरा
तोड़ कुंठित बांध सारे
जोड़ मन के तारे सारे।।

एक तरह जब है जीवन
फिर कहो है मौन क्यूँ मन
क्यूँ नहीं यादें उभरतीं
क्यूँ नहीं ख़ुशियाँ ठहरती
आ चलें पनघट किनारे
जोड़ मन के तार सारे।।

कब तक भटकेगा यूँ ही
दर्द ले तरसेगा यूँ ही
आह मन की कब सुनेगा
कह यकीं कैसे करेगा
चल चलें मन के सहारे
जोड़ मन के तार सारे।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        04जून, 2022

कवि होना आसान कहाँ।

कवि होना आसान कहाँ।।

घाव की कुछ पंक्तियाँ ले
भाव में कुछ बदलियाँ ले
भर नीर का सागर नयन 
औ वेदना आयी शरण 
तब लिखे कुछ गीत मन ने
भरे दर्द का सारा जहाँ
कवि होना आसान कहाँ।।

निज पृष्ठ पर परिणाम देकर
निज आस को विश्राम देकर
भर शब्द के पग-पग सुमन
कर मौन मन के मृदु नयन
जब सजे श्रृंगार मन के
तब लिखे जो मन ने कहा
कवि होना आसान कहाँ।।

सब मोह माया छोड़ कर
निज बंधनों को तोड़ कर
कर के कंटकों का चयन
कर दूर जगती के तपन
प्रिय शब्दों से सिंचित बदन
तब भाव मन का है कहा
कवि होना आसान कहाँ।।

सींच अश्रुओं से क्यारियाँ
कर दूर सब दुश्वारियाँ
सोये जगत में जाग कर
निज मोह सारे त्याग कर
सत्य पथ पर रखते कदम
सींचा लेखनी से जहाँ
कवि होना आसान कहाँ।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        04जून, 2022

निज अलकों के बंधन खोलो।।

निज अलकों के बंधन खोलो।।

माथे पर भावों का चंदन
उर में भरकर मृदु स्पंदन
कुछ कहता सुन धीरे से मन
अपने आलिंगन में भर लो
निज अलकों के बंधन खोलो।।

सूरज का पथ मद्धम-मद्धम
साँझ निखरती पल-पल थम-थम
निज अंतस में भर भाव प्रथम
कुछ कह दो कुछ मन की सुन लो
निज अलकों के बंधन खोलो।।

प्राची से किरणों की माला
बारह घोड़ों के रथवाला
मुख पर भरकर भाव सुनहरे
जाते-जाते बोले सुन लो
निज अलकों के बंधन खोलो।।


तुम में मैं हूँ मुझमें तुम हो
आस-निरास पल में तुम हो
तुम ही जीवन की अभिलाषा
मृदु पल को पलकों में भर लो
निज अलकों के बंधन खोलो।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        03जून, 2022

थोड़ा अहसास करा दो।

थोड़ा अहसास करा दो। 

मेरे मन के अरमानों को
बस तुम इतना आस धरा दो
अपने होने का तुम मुझको
बस थोड़ा अहसास करा दो।।

ये भौतिक उपहार सभी हैं
जैसे बरखा रुत का पानी
जड़ जग के व्यवहार सभी हैं
बिन भावों के जैसी वाणी।।

मेरे भावों में बस जाओ
मन का मेरे मान बढ़ा दो
अपने होने का तुम मुझको
बस थोड़ा अहसास करा दो।।

करी परिक्रमा डगमग पग से
इसमें मेरा दोष नहीं है
मेरे अंतस को झकझोरा
क्या तुमको अफसोस नहीं है।।

अनुभवहीन नहीं मैं इतना
इतना बस विश्वास दिला दो
अपने होने का तुम मुझको
बस थोड़ा अहसास करा दो।।

अपना कोई गीत सुना दो
जीवन भर जिसको मैं गाऊँ
बस इतना उपकार करो तुम
इस जग से परिचित हो जाऊँ।।

हुआ योग्य जब यहाँ जगत में
बस इतना आभास करा दो
अपने होने का अब मुझको
बस थोड़ा अहसास करा दो।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        30मई, 2022

जो स्वप्न सजे ही नहीं पलक पर कैसे कह दूँ बिखर गये।।

जो स्वप्न सजे ही नहीं पलक पर कैसे कह दूँ बिखर गये।।


यादों के मानसरोवर से कुछ मुक्तक गिर कर बिखर गये
जो स्वप्न सजे ही नहीं पलक पर कैसे कह दूँ बिखर गये।।

लय का जब कुछ भान नहीं था 
गीतों में कैसे कह पाता
सरगम से जब रहा अपरिचित
गीत कहीं मैं कैसे गाता
जब भाव सजे ही नहीं पटल पर कैसे कह दूँ बिछड़ गये
जो स्वप्न सजे ही नहीं पलक पर कैसे कह दूँ बिखर गये।।

जब अपना अध्याय नहीं था 
लिखता कैसे कहो कहानी
कैसे लिखता सारी बातें
जिनसे सुधियाँ थीं अनजानी
जब रहा कथानक का अभाव फिर कैसे कह दूँ बिसर गये
जो स्वप्न सजे ही नहीं पलक पर कैसे कह दूँ बिखर गये।।

कितना चाहा के कह डालूँ
बातें मन के मौन सफर की
कितना चाहा आज जता दूँ
प्यास मैं अधरों को अधर की
पर मधु से संपर्क नही जब कैसे कह दूँ बिछड़ गये
जो स्वप्न सजे ही नहीं पलक पर कैसे कह दूँ बिखर गये।।

यहाँ वहाँ से शब्द उठा कर
कैसे लिखता मन की बातें
कैसे लिखता भाव सभी वो
कैसे लिखता बीती रातें
जब रातों का इतिहास अधूरा कैसे कह दूँ बिछड़ गये
जो स्वप्न सजे ही नहीं पलक पर कैसे कह दूँ बिखर गये।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       28मई, 2022

वीथियों में उलझा मन।

वीथियों में उलझा मन।  

प्रिय सुधियों के कितने बादल आये आकर चले गये
कुछ बरसाये नेह यहाँ पर कुछ तरसा कर चले गये।।

नहीं कामना देखूँ तुझमें मैं नित नूतन रस धारा
मेरे नयनों को भाया प्रतिपल अल्हड़ रूप तुम्हारा
आस लगाये नैना प्रतिपल हर आती राह निहारें
उम्मीदें भी रहीं ढाँकती पल-पल ये जीवन सारा।।

उम्मीदों के साये में मन मचल-मचल कर छले गये
कुछ बरसाये नेह यहाँ पर कुछ तरसा कर चले गये।।

रखी सजा कर छवि तुम्हारी मन में बरबस झूम लिया
हर आहट को मैंने प्रतिपल पलकों से है चूम लिया
जितने गीत लिखे यादों के मैंने इस तन्हाई में
उन गीतों को अंग लगाकर सब अक्षर-अक्षर चूम लिया।।

मन के मौन समंदर में वो हलचल दे कर चले गये
कुछ बरसाये नेह यहाँ पर कुछ तरसा कर चले गये।।

मन में कितने झंझाओं ने पग-पग पर डेरा डाले
वीथियों पर व्योम की प्रतिपल थे कितने उल्का पाले
जितने प्रश्न उमड़ते मन में वो सारे रहे निरुत्तर
मन वीथी में अब तक उलझा है ढोये भाव निरन्तर।।

हाथ आहुती लेकर बैठे समिधाएँ पर सिमट गये
कुछ बरसाए नेह यहाँ पर कुछ तरसा कर चले गए।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       24मई, 2022

हृदय का अनलिखा भाव।

हृदय का अनलिखा भाव।।

उँगलियाँ पृष्ठ पर लिख न पायीं जिसे
मैं हृदय का वही अनलिखा भाव हूँ।।

थरथराती रहीं उँगलियाँ रात भर
नयन के नीर ठहरे अधर चूम कर
मेज पर पृष्ठ बिखरे इधर औ उधर
मैं उसी मेज का अनदिखा भाव हूँ
उँगलियाँ पृष्ठ पर लिख न पायीं जिसे
इस हृदय का वही अनलिखा भाव हूँ।।

यादों के झील में है कैसी लहर
छटपटाती रही तितलियाँ रात भर
रोक पाया नहीं मैं जिसे चाह कर
बिछड़े उस चाह का मौन प्रभाव हूँ
उँगलियाँ पृष्ठ पर लिख न पायीं जिसे
इस हृदय का वही अनलिखा भाव हूँ।।

मौज से जो किनारे गए हैं बिछड़
स्वप्न पलकों से जो गये हैं बिखर
कहे अनकहे गीत रुके अधरों पर
अनकहे गीत का मैं तो स्वभाव हूँ
उँगलियाँ पृष्ठ पर लिख न पायीं जिसे
इस हृदय का वही अनलिखा भाव हूँ।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        22मई, 2022

क्यूँ कर मुझसे प्यार जताया।।

क्यूँ कर मुझसे प्यार जताया।।

तन्हाई लिख रही गीत थी
पग-पग मेरे जीवन में
कैसा तुमने गीत सुनाया
भाव जगे इस तन मन में।।

क्यूँ मेरे भावों को तड़पाया
क्यूँ कर मुझसे प्यार जताया।।

मेरे साँसों की धड़कन में
अनजाने कुछ गीत सजे थे
मेरी आहों की तड़पन में
सूने मन के गीत सजे थे।।

सूने मन का भाव जगाया
क्यूँ कर मुझसे प्यार जताया।।

अर्द्धरात्रि में चंदा तारे
मधुर मिलन का गीत सुनाते
काश मिलन की इस बेला में
बस कुछ देर ठहर तुम जाते।।

क्षण भर क्यूँकर प्रीत जगाया
क्यूँ कर मुझसे प्यार जताया।।

मेरे अधरों पर अधरों का
तेरे चुंबन अब तक अंकित
मेरे मन के मंदिर में भी
भाव तुम्हारे हैं प्रतिबिंबित।।

क्षण भर क्यूँ कर नेह जगाया
क्यूँ कर मुझसे प्यार जताया।।

निज यादों की पर्णकुटी में 
उन्हें सँजो कर अब भी रखा
मैंने अपनी साँसों में वो
महक तुम्हारी अब तक रखा।।

फिर से क्यूँ भावों को जगाया
क्यूँ कर मुझसे प्यार जताया।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        21मई, 2022



सपनों का क्या दोष।

सपनों का क्या दोष।  

पलकों पर कुछ स्वप्न सजीले
चाहा बहुत पर कह न पाया।।

क्या अपराध कहूँ मैं अपना
पलकें निस दिन रहीं खोजती
दोषी है क्यूँ मन ये अपना
प्रतिपल बस ये रहीं सोचती।।

भ्रम में बिखरे भाव सभी थे
चाहा बहुत पर चुन न पाया
पलकों पर कुछ स्वप्न सजीले
चाहा बहुत पर कह न पाया।।

सपनों को अभियुक्त बना कर
पलकों को कटघरा बना दूँ
इतना दोष नहीं है इनका
जिसकी खातिर इसे सजा दूँ।।

आकांक्षाओं का भार बहुत
चाहा बहुत पर सह न पाया
पलकों पर कुछ स्वप्न सजीले
चाहा बहुत पर कह न पाया।।

रहा व्याकरण से अनजाना
प्रतिपल मन संघर्ष किया है
नैनों के कोरों की बूँदें
प्रतिपल बस संघर्ष जिया है।।

चाहा कितना बूँद रोक लें
पलकें बहुत पर रह न पाया
पलकों पर कुछ स्वप्न सजीले
चाहा बहुत पर कह न पाया।।

क्या परिणति है उन सपनों की
नयनों में जो कभी सजे थे
इक मूरत जो बनी हृदय में
पलकों ने जो कभी गढ़े थे।।

सपनों का फिर दोष नहीं है
चाह के परिचय कह न पाया
पलकों पर कुछ स्वप्न सजीले
चाहा बहुत पर कह न पाया।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        20मई, 2022

प्रतीक्षा।

प्रतीक्षा।  

निस चौखट की प्रहरी पलकें ये हिय उन पर आभारी
सत्य सनातन निष्ठा पर तेरे हम तो हैं बलिहारी
सदियों से कर रही प्रतीक्षा पलकें जिस के दरसन की
है समीप वो पल अपने होगी पूर्ण प्रतीज्ञा सारी।।

पलकों पर कितने ही सावन आये आकर बीत गए
पलकों के निस पनघट के कितने ही आँसू रीत गए
पर विश्वास नहीं खोये इक बस उम्मीद रही बाकी 
अनुमानों में समय चक्र के आखिर हम तो जीत गए।।

तुम आये पलकें भर आयीं मन को भी विश्राम मिला
तपती धरती पर बूँदों से जैसे है आराम मिला
पूर्ण प्रतीक्षा हुई समय की द्वार पलक के खुले सभी
जैसे शबरी के भावों को घट-घट में श्री राम मिला।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        18मई, 2022

मधुर निशा के इस पल में काश नेह तुम्हारा मिल जाता।।

मधुर निशा के इस पल में काश नेह तुम्हारा मिल जाता।।

मधुर निशा के इस पल में काश नेह तुम्हारा मिल जाता।।

पलकों के कुछ स्वप्न सजीले
अधरों पर आए हैं खुलकर
जैसे प्यासा पनघट आए
उम्मीदों की गागर सिर धर।।

काश कि पनघट पर प्यासे को शीतल जलधारा मिल जाता
मधुर निशा के इस पल में काश नेह तुम्हारा मिल जाता।।

चली चाँदनी धीरे-धीरे
तारों ने भी पंथ सजाये
मद्धिम-मद्धिम पौन चल रही
पावस ऋतु सा मन अकुलाए।।

बूँदें गिरती काश गात पर जीवन ये सारा मिल जाता
मधुर निशा के इस पल में काश नेह तुम्हारा मिल जाता।।

व्याकुल मन के भाव सँभाले
पलक चाँद की ओर तक रही
मन के पृष्ठों पर कुछ लिखकर
बार-बार कुछ बात कह रही।।

मेरी भग्न कुटी खिल जाती जो साथ तिहारा मिल जाता
मधुर निशा के इस पल में काश नेह तुम्हारा मिल जाता।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        16मई, 2022

हृदय के भाव सारे बोल दो।

हृदय के भाव सारे बोल दो।  

भर के मेरे गीत में कुछ शब्द अपने
प्रिय आज हृदय के भाव सारे बोल दो।।

पाप क्या पुण्य क्या इस धरा पे तुम कहो
है प्रेम क्या औ क्या घृणा तुम ही कहो
जो लिखे हैं ग्रन्थ में या जगत का चलन
मुक्त है ये पल के मन की तुम भी कहो।।

भर के नयनों में मृदुलतम भाव अपने
आज बंद पलकों के किनारे खोल दो
भर के मेरे गीत में कुछ शब्द अपने
प्रिय आज हृदय के भाव सारे बोल दो।।

है तुम्हारे नैन में जो स्वप्न सारे
उन को मैं साकार करना चाहता हूँ
जो कुछ रची है आकृति तुमने हृदय में
उनको मैं आकार देना चाहता हूँ।।

चाहता हूँ जिंदगी में हों रंग जितने
जिंदगी में वो रंग सारे घोल दो
भर के मेरे गीत में कुछ शब्द अपने
प्रिय आज हृदय के भाव सारे बोल दो।।

मैंने कब कहा कि देवता बन कर रहूँ 
मैंने कब कहा है दर्द जगती के सहूँ
इतना बस एलान करना चाहता हूँ
ज्योति बनकर दिल में जलना चाहता हूँ।।

छोड़ कर के मन के सारे भ्रांतियों को
अब हिय के अपने द्वार सारे खोल दो
भर के मेरे गीत में कुछ शब्द अपने
प्रिय आज हृदय के भाव सारे बोल दो।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       15मई, 2022



देवता भी उस जगह 
चाहता हूँ तूलिका में रंग भरो तुम





झुलसाऊँ या फिर गीत गाऊँ।

झुलसाऊँ या फिर गीत गाऊँ।  

मैं इस जगत के ताप में झुलसाऊँ खुद को
या किसी रमणी के संग-संग गीत गाऊँ।।

है, देव ने एक रूप दे मुझको निखारा
और भर कर भाव हृदय में उसको सँवारा
फिर दिए कुछ शब्द भाव अंतस के कहूँ मैं
जिसमें रच कर गीत मैंने प्रतिपल पुकारा।।

अब ये है मुझपर कि लिखूँ प्रेम के गीत मैं
या लिखूँ विरह के गीत औ ख़ुद को भुलाऊँ
या फिर जगत के ताप में झुलसाऊँ खुद को
या किसी रमणी के संग-संग गीत गाऊँ।।

है कौन सी ये ज्वाल जगत में जल रही है
मोहती जो किसी को, किसी को खल रही है
मोहती बूँद कहते ओस के सब यहाँ पर
फिर किसी को बूँद ये भला क्यूँ खल रही है।।

जो लतायें झुक गयी हों ओस के निज भार से
उन लताओं को सँभालूँ या कहो भूल जाऊँ
या फिर जगत के ताप में झुलसाऊँ खुद को
या किसी रमणी के संग-संग गीत गाऊँ।।

क्या नहीं फर्ज जानूँ पास में क्या हो रहा
जागता कौन पल-पल, कौन पल-पल सो रहा
कौन है जो जगत का भार काँधों पर लिये
कौन जगती के लिये आस पग-पग ढो रहा।।

क्या यही पुरुषार्थ है जो मिला हमको यहाँ
छोड़ दूँ तुम कहो या कहो इसको निभाऊँ
या फिर जगत के ताप में झुलसाऊँ खुद को
या किसी रमणी के संग-संग गीत गाऊँ।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       14मई, 2022

कोई पीछे से आवाज दे रहा।

कोई पीछे से आवाज दे रहा।  

चला जा रहा मैं तो प्रतिपल
थाम समय की डोर हाथ में
ऐसा क्यूँ लगता है कोई
पीछे से आवाज दे रहा।।

पग-पग जीवन गलियारों में
नूतन प्रतिमान लिखा मैंने
अवसादों में अवरोधों में
जीवन गतिमान लिखा मैंने
जब जो भी राह चुनी मैंने
लिया सभी का संग साथ में
फिर ऐसा क्यूँ लगता कोई
पीछे से आवाज दे रहा।।

अनुचित बंधन सभी तोड़ के
सुविधाओं का छोड़ा आँगन
मन में प्रण निश्चित कर हमने
बस दिया प्राण को नव स्पंदन
जीवन जीने की इच्छा में
चला समय के साथ-साथ में
फिर ऐसा क्यूँ लगता कोई
पीछे से आवाज दे रहा।।

कैसे चल दूँ उसे छोड़ के
जब स्वर जाना पहचाना सा
फिर क्यूँ मुझसे छुपता फिरता
जैसे मैं हूँ अनजाना सा
एकाकी इस जीवन में जब
लक्ष्य दिख रहा मुझे पास में
फिर ऐसा क्यूँ लगता कोई
पीछे से आवाज दे रहा।।

जब हम सबको इस जीवन में
चुनने का अधिकार मिला है
कहने, सुनने औ रचने का
सुंदरतम उपहार मिला है
रच डालें नवगीत यहाँ हम
लेकर सबका हाथ-हाथ में
फिर भी क्यूँ लगता है कोई
पीछे से आवाज दे रहा।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        12मई, 2022


थक कर हार मान ले जीवन कब राहों ने स्वीकार किया।।

थक कर हार मान ले जीवन कब राहों ने स्वीकार किया।।


तूफानों में झंझाओं में या बेमौसम विपदाओं में
थक कर हार मान ले जीवन कब राहों ने स्वीकार किया।।

निज पलकों के स्थापित सपने
विश्वासों में हो दृढ़ निश्चय
संकल्पित भावों का चंदन
आस अडिग हो अटल औ अक्षय
संदर्भों के भाव अलग हों मन ऐसा कहाँ विचार किया
थक कर हार मान ले जीवन कब राहों ने स्वीकार किया।।

कदम-कदम हों घातें कितनी
या उमस भरी हों रातें कितनी
ताप दिवस का गात जलाये
धूल भरी बरसातें कितनी
कंटक पथ-पथ बिछे हुए हों कब पग ने यहाँ विचार किया
थक कर हार मान ले जीवन कब राहों ने स्वीकार किया।।

तेरे स्वेद बूँद से सींची
बंजर धरती मुस्काई है
जब-जब तेरे कदम बढ़े हैं
बाँह स्वप्न की खिल आयी है
जब तेरे सारे सपनों को पलकों ने अंगीकार किया
थक कर हार मान ले जीवन कब राहों ने स्वीकार किया।।

तेरे पग की चिनगारी में
क्षमता, पथ रोशन करने की
तेरी दृढ़ता में वो बल है
निज संकट मोचन बनने की
तेज धार कितनी लहरों की कब तट ने है चीत्कार किया
थक कर हार मान ले जीवन कब राहों ने स्वीकार किया।।

जिस मिट्टी को तुमने सींचा
वो उपवन महकायेगी ही
मरुथल में भी तेरा उद्द्यम
जल बूँदें बरसायेंगी ही
तेरा तेज गगन तक छाया जब रवि ने है स्वीकार किया
थक कर हार मान ले जीवन कब राहों ने स्वीकार किया।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        09मई, 2022

भारतीय रेल- दोहे।

भारतीय रेल- दोहे।  

गाड़ी सीटी दे रही, यात्री सब तैयार
अपने जन से मेल हो, सबका यही विचार।।

रात-दिवस चलती रहे, कभी न करे विश्राम
मंजिल-मंजिल नापती, पहुँचाती सब धाम।।

रात-रात भर जाग कर, सारे करते काम
यात्रा जब पूरी हुई, तभी मिले आराम।।

नियमों का सम्मान है, जनसेवा है धरम
समय, सुरक्षा मूल तत्व, अपना तो है करम।।

इंजन की सीटी सुने, सबका मन हरषाय
जंगल, नदिया नापती, सबको घर पहुँचाय।।

राष्ट्र की जीवन रेखा, सब कोई अपनाय
मुस्कानों के साथ ये, सबको गले लगाय।।

रेल संपत्ति राष्ट्र की, सेवा ही सम्मान
आओ सब मिल प्रण करें, सदा रखेंगे मान।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        06मई, 2022

मौन भला क्यूँ कर रहना।

मौन भला क्यूँ कर रहना।  

गीत मुखर हों जब अधरों पर
मौन भला फिर क्यूँ कर रहना।।

अब तक जीवन भटका-भटका
घूम रहा था भूला-भूला
जैसे कोई भटका राही
अपने मंजिल का पथ भूला
पर शीतल छाया मिल जाये
घने ताप में फिर क्यूँ रहना
गीत मुखर हों जब अधरों पर
मौन भला फिर क्यूँ कर रहना।।

कहीं शोर हो कहीं शांति हो
मन के भीतर कहीं भ्रांति हो
बूँदें पलकों पर हो ठहरे
या यादों के सागर गहरे
मन के भीतर शोर बहुत हो
अरु पलकों से चाहे बहना
तब भावों से नेह लगा लो
मौन भला फिर क्यूँ कर रहना।।

धन्य हुआ उपहारों से मैं
संवादों में तुमने बाँटे
धन्य हुआ मेरा मन पाकर
तुमसे कंटक छल अरु काँटे
तुमसे कितना कुछ पाया है
अफसोस यहाँ फिर क्या करना
तुम पर अब ये गीत निछावर
मौन भला फिर क्यूँ कर रहना।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        05मई, 2022



दीपक के मनोभाव।

दीपक के मनोभाव।  

दीपक जब भी जला यहाँ पर
दुनिया को बस ताप दिखा है।।

लौ की ताप सभी ने देखी
पर बाती को कब है जाना
जिसको तुमने जलना समझा
सच वो ही उसका मुस्काना
राख हुई जलकर वो बाती
न चेहरे पर संताप दिखा
दीपक जब भी जला यहाँ पर
दुनिया को बस ताप दिखा है।।

जीवन के घुप अँधियारों ने
सच, मेरा मान बढ़ाया है
लेकिन जैसे हुआ सवेरा
फूँक मार मुझे बुझाया है
आभारी हूँ अँधियारों का
जिसने मेरा मान रखा है
दीपक जब भी जला यहाँ पर
दुनिया को बस ताप दिखा है।।

है मुझको मालूम यहाँ पर
कोई नहीं किसी का साथी
दीपक तब तक ही जलता है
जब तक जलती उसकी बाती
पल-पल जलते दीपक में पर
बाती को सम्मान दिखा है
लेकिन दीपक जला यहाँ जब
दुनिया को बस ताप दिखा है।।

अपनी तो किस्मत में जलना
जल कर भी आकाश सजाया
मैने पग-पग जीवन पथ पर
तम को पथ से दूर हटाया
हाँ, खुश हूँ बुझने से पहले 
अधरों पर मुस्कान दिखा है
क्यूँ कर के अफसोस करूँ अब
दुनिया को जो ताप दिखा है।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        02मई, 2022

हृदय तुम्हारा साथ छोड़ दे विरक्त नहीं इतना मन है।।

हृदय तुम्हारा साथ छोड़ दे विरक्त नहीं इतना मन है।।

हृदय तुम्हारा साथ छोड़ दे विरक्त नहीं इतना मन है।।

उँगली पर जो दिवस गिने हैं
कैसे तुमको मैं बतलाऊँ
पल-पल जीवन कैसे काटा
है मुश्किल उसको समझाऊँ
पृष्ठों पर सब भाव उकेरे लिखा वही जो अपनापन है
हृदय तुम्हारा साथ छोड़ दे विरक्त नहीं इतना मन है।।

अवनी से अंबर तक मन ने
पग-पग नाम तुम्हारा लिखा
जब-जब पलकें खोली हमने
केवल रूप तुम्हारा दिखा
हिय ने जो भी भाव बुने हैं सबमें तेरा स्पंदन है
हृदय तुम्हारा साथ छोड़ दे विरक्त नहीं इतना मन है।।

नैन बसी है छवि तुम्हारी
जो कहो यहाँ मैं दिखलाऊँ
तुमसे मेरी साँस जुड़ी है
कैसे मैं तुमको अलगाऊँ
नित्य वचन में बंधा तुम्हीं से तुमसे सारे बंधन हैं
हृदय तुम्हारा साथ छोड़ दे विरक्त नहीं इतना मन है।।

अंतस के सब बंध तोड़ दो
निज भावों को बह जाने दो
रोको मत तुम आँसू अपने
पलकों से सब कह जाने दो
पिय रखो अंक में शीश, कहो, मन में अब कैसा मंथन है
हृदय तुम्हारा साथ छोड़ दे विरक्त नहीं इतना मन है।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        29अप्रैल, 2022

बनूँ गीत मैं नव जीवन का तेरे अधरों पर बस छाऊँ।।

बनूँ गीत मैं नव जीवन का
तेरे अधरों पर बस छाऊँ।।


बनूँ गीत मैं नव जीवन का
तेरे अधरों पर छा जाऊँ।।

मेरे अधरों पर है आई
मेरे उर की मर्म कहानी
शब्द नहीं कह पाये जो कुछ
कहे आँसुओं ने वो वाणी
उर की बस ये चाह रही
तेरी साँसों में बस जाऊँ
बनूँ गीत मैं नव जीवन का
तेरे अधरों पर बस छाऊँ।।

बस ये मन की चाह रही के
अपनी ये पहचान मृदुल हो
कैसे भी हों पल जीवन के
हर पल के अनुमान मृदुल हों
अनुमानों में घुले भाव सब
पहचानों में यूँ ढल जाऊँ
बनूँ गीत मैं नव जीवन का
तेरे अधरों पर बस छाऊँ।।

अपने स्वर में तेरे स्वर के
राग मिला कर गीत सजाऊँ
चाह यही बस मेरे मन की
गीतों में बस तुमको गाऊँ
तुम्हीं चुनो वो गीत मेरे
जिसको तेरा साज बनाऊँ
बनूँ गीत मैं नव जीवन का
तेरे अधरों पर बस छाऊँ।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        28अप्रैल, 2022

गीत का संसार लिख दूँ।

गीत का संसार लिख दूँ।  

भाव शब्दों में पिरो कर
गीत का संसार लिख दूँ।।

चाहता हूँ आज लिख दूँ
जो कभी मैं कह न पाया
चाहता हूँ आज कह दूँ
बिन तिरे मैं रह न पाया
जो कहो अपने हृदय में
प्रीत पारावार लिख दूँ
भाव शब्दों में पिरो कर
गीत का संसार लिख दूँ।।

वेदना के निज पलों में
सब गीत आँसू से सने
न शरण, न संकेत कोई
पलकें स्वप्न कैसे बुने
वेदना ठहरी पलक पर
जो कहो अधिकार लिख दूँ
भाव शब्दों में पिरो कर
गीत का संसार लिख दूँ।।

साथ हो पल भर भले ही
प्रीत के पल जी उठेंगे
अधरों पर पल भर सजे जो
गीत सारे जी उठेंगे
अंक में तेरे बिखर कर
स्वप्न सब साकार लिख दूँ
भाव शब्दों में पिरो कर
गीत का संसार लिख दूँ।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        25अप्रैल, 2022


छू लिया जिसने हृदय को।

छू लिया जिसने हृदय को।   

कौन गाया गीत ऐसा
छू लिया जिसने हृदय को।।

सुप्त मन के भाव जागे
मौन से किसने जगाया
भाव का लेकर समंदर
कौन है जो पास आया
कौन है जिसकी धमक ने
अंक में बाँधा समय को
कौन गाया गीत ऐसा
छू लिया जिसने हृदय को।।

कौन जिसके आगमन पर
रश्मियाँ पथ को बुहारी
पुष्प-कलियों से सुसज्जित
माँग प्रकृति की सँवारी
कौन सा श्रृंगार जिसने
मोह डाला है अमय को
कौन गाया गीत ऐसा
छू लिया जिसने हृदय को।।

कौन जिसकी इक चमक ने
दामिनी को भी लुभाया
कौन जिसकी छाँव ने भी
सूर्य को पथ है भुलाया
है कौन जिसके प्रीत में
मन चाहता है, विलय हो
कौन गाया गीत ऐसा
छू लिया जिसने हृदय को।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        23अप्रैल, 2022


है दिया तुमने सवेरा।

है दिया तुमने सवेरा।  

पंथ से भटका हृदय जब
था प्रलय संकेत कोई
आह से विचलित हुआ हिय
चाह कर पलकें न सोईं
दृष्टिगोचर था यहाँ सब
पर नयन में था अँधेरा
इन दृगों में ज्योति बनकर
है दिया तुमने सवेरा।।

शब्द अधरों को दिये हैं
गीत से सुरभित किये हैं
भर दिये मुस्कान पथ में
साज से सज्जित किये हैं
जो भरा नव रंग हिय में
हो वही सुंदर चितेरा
इन दृगों में ज्योति बनकर
है दिया तुमने सवेरा।।

अब नहीं अनजान जग से
पंथ से परिचित हुआ मन
संग तेरा है मधुर यूँ
साज से सज्जित हुआ मन
नवगीत की तुम पंक्ति हो
छंद का पावन बसेरा
इन दृगों में ज्योति बनकर
है दिया तुमने सवेरा।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        21अप्रैल, 2022

ये आँसू पावन गंगाजल हैं व्यर्थ नहीं बह जाने दो।।

ये आँसू पावन गंगाजल हैं व्यर्थ नहीं बह जाने दो।।

तूफानों में घिरा भले मन
झंझावत हों कदम-कदम पर
अवसादों के बीच भले हो
या विपदायें कदम-कदम पर
अपने वश में मन को कर ले बिखर नहीं जाने दो
ये आँसू पावन गंगाजल हैं व्यर्थ नहीं बह जाने दो।।

यादों के झुरमुट में उलझे
सपनों के पनघट पर ठहरे
पंथ ताकती गीली नजरें 
जाने कौन राह फिर ठहरे
पलकों के निज कोर सँभालो व्यर्थ नहीं झर जाने दो
ये आँसू पावन गंगाजल हैं व्यर्थ नहीं बह जाने दो।।

अब धीर धर लो तुम हृदय में
अरु मुस्कुराकर मौन साधो
है भाव में जो प्रेम संचित
उसको आँचल में तुम बाँधो
आँसुओं से कब दीप जलता अब नैनों को समझाने दो
ये आँसू पावन गंगाजल हैं व्यर्थ नहीं बह जाने दो।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        20अप्रैल, 2022

कैसे कहो अत्याचार रोकूँ।

 कैसे कहो अत्याचार रोकूँ। 

इस मौन मन में द्वंद कितने
खल रहे पल-पल हृदय को
सामीप्यता के निज पलों में
छल रहे पल-पल समय को
पल रहे निज अंक में कैसे कहो ये व्यवहार रोकूँ
सोच में प्रतिपल हृदय कैसे कहो अत्याचार रोकूँ।।

अब प्यालियाँ कितनी अधर के
सामने आ रुक गये हैं
वो अश्रु नैनों से जो निकले
नैन में ही छुप गये हैं
छुप गये निज नैन में कैसे आँसुओं की धार रोकूँ
सोच में प्रतिपल हृदय कैसे कहो अत्याचार रोकूँ।।

कहो, तुमने क्या पाया यहाँ
वो, जो मिला हमको नहीं
अब जो भी हृदय भाव पाले
उससे गिला हमको नहीं
द्वेष जब कुछ भी नहीं कैसे कहो फिर प्रतिकार रोकूँ
सोच में प्रतिपल हृदय कैसे कहो अत्याचार रोकूँ।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        19अप्रैल, 2022

सांध्य जब घूँघट पट खोले।।

सांध्य जब घूँघट पट खोले।।

सांध्य जब घूँघट पट खोले।।

हँस कर बोला दिवस आज का
बीता हर पल थका-थका सा
कितनी राहें नापी पग ने
लगता फिर भी रुका-रुका सा
रुके पंथ हौले से बोले
सपनों को आलिंगन ले ले
सांध्य जब घूँघट पट खोले।।

डूबे मन क्यूँ सघन गगन में
जब है हल्की छुअन पवन में
मन का पपिहा प्यासा कैसा
आन बसे जब सपन नयन में
सपन सुहाने द्वार खड़े हो
पलकों को धीरे से खोले
साँध्य जब घूँघट पट खोले।।

गीतों में जहँ भरा समंदर
अवनी-अंबर मिले जहाँ पर
जहँ मन गाये गीत मनोहर
भावों का पथ खिले वहीं पर
जहाँ हृदय सम्मोहित होकर
मन से मन की बातें बोले
सांध्य जब घूँघट पट खोले।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        18अप्रैल, 2022

तपन छाँव की।

तपन छाँव की।  

यादों की बदली में मन जब
उमड़-घुमड़ कर रह जाता है
चाहे कितनी बातें कहना
मगर नहीं कुछ कह पाता है
मन के सूनेपन को बरबस
छल जाए तब, छुअन छाँव की
बेबस मन कुछ कर ना पाये
तड़पाए जब तपन छाँव की।।

मन जब विचलित प्रतिवादों से
ढूँढे रह-रह अनुवादों में
सूझे ना जब गति जीवन की
जब जीना मुश्किल अपवादों में
जीवन के हर पहलू में फिर
पल-पल ढूँढे नयन, छाँव की
बेबस मन कुछ कर ना पाये
तड़पाए जब तपन छाँव की।।

गीतों में जब साज सजे, ना
अधरों पर जब राग सजे, ना
व्याकुल मन कुछ लिखना चाहे
पृष्ठों पर अल्फाज सजे, ना
तब गीतों की करुण साधना
ढूँढे कोई, कलम नाम की
बेबस मन कुछ कर ना पाये
तड़पाए जब तपन छाँव की।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        16अप्रैल, 2022


प्रीत साँसों में उतरती।

प्रीत साँसों में उतरती।  

चल पड़ीं राहें मचलकर
शब्द अधरों पर सँभलकर
यद्दपि पलकों ने कहा कुछ
जब मिले फिर सोचना क्या
देख संध्या है मचलती
प्रीत साँसों में उतरती।।

साँस को छूती किरण ये
पंथ में बिखरे सुमन ये
याद के पट खोलते हैं
नैन के धुंधले सपन ये
स्वप्न पलकों में निखरती
प्रीत साँसों में उतरती।।

हो उजाला जब हृदय में
तब अँधेरे क्या करेंगे
आवरण कितने भले हों
मन को कहो क्या छलेंगे
तिमिर धीरे से सरकती
प्रीत साँसों में उतरती।।

है दिवस का खेल सारा
अंक में जाकर क्षितिज के
मौन कैसे छुप गया है
पाश में जाकर हरिज के
अंक में नव रीत भरती
प्रीत साँसों में उतरती।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        15अप्रैल, 2022

पुकार।

पुकार।  

सोच में पड़े हो क्यूँ
मौन तुम खड़े हो क्यूँ
झूठ के प्रभाव को उखाड़ दो
सत्य का प्रभाव हो
झूठ का अभाव हो
बस यही तो एक ही प्रमाण हो।।

चल पड़े जो पंथ में
कैसा भय फिर दंश से
हाथ मे स्वयं जब कमान है
धर्म की विजय करो
अधर्म से न फिर डरो
धर्म जो जिया वही महान है।।

राम का स्वभाव हो
कृष्ण का प्रभाव हो
शत्रु पर भीम सा दबाव हो
जो चल पड़े रुको नहीं
जो हो खड़े झुको नहीं
शत्रु पर तेरा बस प्रभाव हो।।

जो चला हो सत्य पे
कंटकों से कब डरा
झूठ के प्रलापों से
पंथ से वो कब टरा
हर कदम पे जीत के
बस तेरा ही निशान हो।।

जो लेखनी चले कभी
तो सत्य ही लिखे सदा
राष्ट्र धर्म भावना को
प्राणों में भरे सदा
शून्य में भी उसका ही प्रभाव हो
जिस कलम में धार न हो
जीत की गुहार न हो
उस कलम पे न कोई झुकाव हो।।

वेद हो पुराण हो
या गीता का सार हो
युद्ध मे हो जब खड़े
न मन पे कोई भार हो
युद्ध का समय हो या
कि शांति का चुनाव हो
जो सत्य की विजय करे
वही तो बस महान है।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        14अप्रैल, 2022

आया है नूतन सवेरा।

आया है नूतन सवेरा।  

थी गगन में पूर्व कुछ पल
तम की गहरी रेख काली
खो गयी थी बादलों में
सांध्य की उजली वो लाली
पर मिटा है तब अँधेरा
तम की जब चादर हटी है
देख प्राची की दिशा से
आया है नूतन सवेरा।।

खो गयी थी रोशनी भी
रात की चादर थी गहरी
या भरम था मौन मन का
जिस पे जाकर बात ठहरी
पर खुले तब मौन मन के
प्राची से जब पौ फटी है
धुंध मन के चीरने को
आया है नूतन सवेरा।।

रात भर जिन प्रहरियों की
पलकें ना सोई न जागी
आस थी पल-पल नयन में
नींद लेकिन कब वो माँगी
पर मिला है तब सहारा
दूरी नयनों की मिटी है
मौन साँसें पूजने को
आया है नूतन सवेरा।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       13अप्रैल, 2022



प्रीत का व्यवहार देखूँ।

प्रीत का व्यवहार देखूँ।  

है नयन की चाह जग में
प्रीत का व्यवहार देखूँ।।

इस जगत के पुण्य पथ पर
चल रहा इक आस लेकर
दूर तक जाते हुई इस
पंथ पर विश्वास लेकर
नैन, जिनके पल रहे हैं
स्वप्न जीवन के मृदुलतम
उन सभी पलकों पर सदा
जीत का आकार देखूँ
है नयन की चाह जग में
प्रीत का व्यवहार देखूँ।।

सोचता हूँ मैं जगत में
द्वेष, छल है क्यूँ घृणा है
मनुज मन में त्रास कैसा
मद मोह में क्यूँ पड़ा है
है हृदय पर भार कैसा
और कैसा पल विकटतम
हो घड़ी कितनी विकटतम
पुण्य का सत्कार देखूँ
है नयन की चाह जग में
प्रीत का व्यवहार देखूँ।।

जब जगत में पुण्य अगणित
फिर कहो कैसे टलूँ मैं
छोड़ कर उस पंथ को फिर
तुम कहो कैसे चलूँ मैं
पल रहा नव भाव प्रतिपल
ले आस मन में पुण्यतम
पुण्य हो जीवन सफल हो
स्वप्न को साकार देखूँ
है नयन की चाह जग में
प्रीत का व्यवहार देखूँ।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       11अप्रैल, 2022

व्यग्र घड़ियों में मन की बात।

व्यग्र घड़ियों में मन की बात।  

मौन जीवन के पलों में दृष्टी बीती पर जो डाली
कितनी घड़ियाँ व्यग्र देखीं मन बात अपनी बोलने को।।

क्या फिर करता उन पलों में मन को जब समझा न पाया
गाँठ उर की खोलने को जब पास में कोई न आया
स्वयं कितने ही गढ़े फिर गल्प भावों की प्रचुरता के
अब कौन जाने मन यहाँ पर भार कितना है उठाया।।

थे शब्द पल-पल कुछ तड़पते गाँठ मन की खोलने को
कितनी घड़ियाँ व्यग्र देखीं मन बात अपनी बोलने को।।

ये मौन जीवन का सुखद है या राग जीवन का सुखद
जब ये गात मधुमय गीत गाये फिर कहें कैसे दुखद
जब भी रचे मन गीत सुंदर बाट कब तक जोहता हिय
रोक न पाया हृदय सब कह दिया था सुखद या के दुखद।।

हिय में सजे जब राग सुखमय श्वास मन के तोलने को
कितनी घड़ियाँ व्यग्र देखीं मन बात अपनी बोलने को।।

प्रलाप से जब दग्ध हो कंठ गीत कोई सजते नहीं
जब हृदय में पीर ठहरी कोई साज तब सजते नही 
जब सुख का कोई माप न हो दुख कोई मापेगा क्या
जब हो तुला पर जिन्दगी फिर स्वांग कोई रचते नहीं।।

जब मुक्त हो सुखमय हृदय अहसास मन के तोलने को
कितनी घड़ियाँ व्यग्र देखीं मन बात अपनी बोलने को।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        09अप्रैल, 2022

भाव को संवेदनाएँ।

भाव को संवेदनाएँ।  

आज प्राची के क्षितिज से
रोशनी की भावनायें
आ रही हिय को लुभाती
भाव को संवेदनाएँ।।

कुछ कहा कवि के हृदय ने
लेखनी ये चल पड़ी फिर
पृष्ठ पर कुछ भाव अंकित
मौन हँस कर कह पड़ी फिर।।

कह रही साँसें प्रखर हो
गूँजती अनुरंजनाएँ
आ रही हिय को लुभाती
भाव को संवेदनाएँ।।

सौम्य सुंदर है सुघड़ है
इस हृदय को दिख रहा जो
अब नहीं मरुथल यहाँ पर
फिर कहो क्या खल रहा है।।

अंक में मन को सँभाले
थाल भर कर अर्चनायें
आ रही हिय को लुभाती
भाव को संवेदनाएँ।।

पार बादल दिख रहा है
देख लो सुंदर सवेरा
दीप्त हों जब भाव हिय के
रोकेगा फिर क्या अँधेरा।।

अंक में भरती किरण धन
हर रहीं अब वेदनायें
आ रही हिय को लुभाती
भाव को संवेदनाएँ।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        07अप्रैल, 2022

धरती की पीड़ा।

धरती की पीड़ा।   

देख पीड़ा इस सदी की
संपूर्ण धरती रो रही है
घाव जो, नासूर हैं अब
निज आँसुओं से धो रही है।।

जो धरा का रूप दिखता
क्या है यही अनुरूप इसका
आज निखरा है यहाँ जो
कुछ तो कहो है धूप किसका।।

रोशनी भी ताप से अब
ज्यूँ पाप अपने धो रही है
घाव जो, नासूर हैं अब
निज आँसुओं से धो रही है।।

संकटों में है घिरा क्यूँ
अवनी और अंबर यहाँ पर
स्वार्थ का सागर उमड़ता 
है दिख रहा पग-पग यहाँ पर।।

स्वार्थ लोलुप श्राप से अब
क्या दीप्ति अपनी खो रही है
घाव जो, नासूर हैं अब
निज आँसुओं से धो रही है।।

युद्ध का संकट कहीं पर
अरु कहीं पे हाहाकार है
स्वार्थ को आश्रय मिला है
कहो कैसा ये व्यवहार है।।

लग रहा जैसे धरा ये
बस जिन्दगी को ढो रही है
घाव जो, नासूर हैं अब
निज आँसुओं से धो रही है।।

सोचता हूँ अब यहाँ पर
ये धरणी अब तक न गली क्यूँ
जिस व्यथा में जल रही है
ये धरणी अब तक न जली क्यूँ।।

अपराध क्या उसका यहाँ
जब मनुजता ही सो रही है
घाव जो, नासूर हैं अब
निज आँसुओं से धो रही है।।

इस व्यथा से हो न विचलित
है तब यही परिणाम निश्चित
स्वार्थ में जड़ बन चुके जब
फिर कब रहा जीवन सुनिश्चित।।

आज सिक्कों की खनक में
सब भावनायें खो रही हैं
घाव जो, नासूर हैं अब
निज आँसुओं से धो रही है।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        07अप्रैल, 2022


उमर भर राह तकती रही जिन्दगी।

उमर भर राह तकती रही जिन्दगी।  

वक्त की रेत पर धुँधलके कुछ निशाँ
उमर भर राह तकती रही जिन्दगी।।

कुछ कहे कुछ सुने कुछ लिखे कुछ पढ़े
भाव के गांव में गल्प कितने गढ़े
कुछ मिले कुछ खिले कुछ ढले भाव में
कुछ क्षितिज पर राह देखते हैं खड़े।।

आस की आस में यूँ सजी बन्दगी
उमर भर राह तकती रही जिन्दगी।।

लिये चलते रहे भावनायें मधुर
चाह गढ़ती रही कामनायें मधुर
कुछ मिले राह में चाह कुछ की रही
भाव हिय ने गढ़े हैं सदा ही मधुर।।

कामनायें मधुर चाहती बन्दगी
उमर भर राह तकती रही जिन्दगी।।

क्या कहा अनकहा कौन किसको कहे
सोचती जिन्दगी कौन कैसे सहे
कहते हैं रास्ते ये सियासी कथन
जब डँसे जिन्दगी दूर कैसे रहें।।

धड़कनों में तड़पती रही बन्दगी
उमर भर राह तकती रही जिन्दगी।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        06अप्रैल, 2022

मानव मन।

मानव मन।  

निज भावों के महिसागर में
मानव मन नित झूल रहा है
जीवन ये बहती धारा है
लगता पल-पल भूल रहा है।।

आज यहाँ कल कहाँ ठिकाना
क्या खोया था जो फिर पाना
कौन रुका है इस जगती में
इक दिन सबको ही है जाना।।

जब सबका परिणाम सुनिश्चित
क्यूँ किंतु-परन्तु में झूल रहा है
निज भावों के महिसागर में
मानव मन नित झूल रहा है।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        05अप्रैल, 2022

नव-संवत्सर।

नव-संवत्सर।   

नव संवत्सर दिवस पुनिता
पूजहीं धरम मिलहिं अशीषा
भाँति-भाँति है ज्ञान प्रसारा
चहुँ दिस होहिं धरम विस्तारा।।

सब हिय पनपहिं प्रेम पुनिता
हर हिय बसहिं राम अरु सीता
लिखहिं पढ़हिं सब होयहिं ज्ञानी
सत्य सनातन जुग-जुग विज्ञानी।।

चहुँ दिस हर्ष उलास मन गाई
प्रेम प्रसार होहिं जग माहीं
कष्ट मिटे हो सज्जन शीला
मन मोहहि सब देह सुशीला।।

राम कथा सुनि मन हरषाये
रोग दोष सब दूर भगाये
काम क्रोध मद मोह मिटे जब
पुण्य प्रवाहित जग में हो तब।।

जीवन सुखद सुफल बन जाये
हरषि-हरषि मन पुनि-पुनि गाये
शुद्ध हृदय मन-चित ले गावहिं
राम कृपा आजीवन पावहिं।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       02अप्रैल, 2022

प्यार में पीर लें पीर को प्यार दें

 प्यार में पीर लें पीर को प्यार दें एक दूजे को हम इतना अधिकार दें, के प्यार में पीर लें पीर को प्यार दें। एक कसक सी न रह जाये दिल में कहीं, ...