बुने जाल में अंतर्मन।

बुने जाल में अंतर्मन।   

मन की आशायें पग पग पर कितने रूप सजाती हैं
कभी खिला है मन का उपवन कभी पीर दे जाती हैं।।

भावों के आँगन में मन ने
सपनों के कुछ पुष्प खिलाये
आशाओं की कलियाँ चुनकर
पग पग मन ने पंथ सजाये।।

भावों की फुलवारी पग पग काँटों पर बिछ जाती है
कभी खिला है मन का उपवन कभी पीर दे जाती हैं।।

आवाजों के मेले बोलो 
अब कैसे कहूँ अकेला हूँ
झाँझ मँजीरे नाद कहीं पर
अरु कहीं मौन से खेला हूँ।।

आवाजों के मेलों में ये मौन मचल रह जाती है
कभी खिला है मन का उपवन कभी पीर दे जाती हैं।।

जग से जो कुछ पाया हमने
कब उससे ज्यादा दिया यहाँ
इच्छायें जब भारी मन पर
पग पग पर केवल जाल बुना।।

बुने जाल में अंतर्मन ये कहो निकल कब पाती है
कभी खिला है मन का उपवन कभी पीर दे जाती हैं।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       09फरवरी, 2022






खुशियों की गागर।

खुशियों की गागर।   

प्राची से आ रही सवारी
दिनकर भी मुस्काया है
पंछी ने आवाज लगायी
सूरज सर चढ़ आया है
चलें निकलकर पनघट तक हम
अब कैसी ये दूरी है
राहें अपनी एक यहाँ जब
फिर कैसी मजबूरी है।।

शाखों पर नव पुष्प खिले हैं
कलियाँ भी मुस्काई हैं
पुरवा के झोंके भी हमतक
नव संदेशा लायी हैं
सुनो गा रही सभी दिशायें
गाते कँगना चूड़ी है
राहें अपनी एक यहाँ जब
फिर कैसी मजबूरी है।।

भोर तटों पर मिले रात दिन
जीवन नव राग सुनाये
पंछी के कलरव में सुन लो
जीवन संगीत समाये
खुशियों से भर लें अब गागर
बस थोड़ी सी दूरी है
राहें अपनी एक यहाँ जब
फिर कैसी मजबूरी है।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        09फरवरी, 2022



बूँद गिर कर कह गये।

बूँद गिर कर कह गये।   

नीर पलकों से मचलकर बूँद बनकर झर गये
कह न पाये जो अधर ये बूँद गिर कर कह गये।।

छुप गया सूरज क्षितिज पर मौन है सब रश्मियाँ
बस थके हारे कदम के रह गये थोड़े निशाँ
चल पड़े फिर मौन पथ पर दूर कितना पर गये
कह न पाये जो अधर ये बूँद गिर कर कह गये।।

यादों के पृष्ठों में था पुष्प मुरझाया हुआ
सूखी थी पत्तियाँ अरु भाव कुम्हलाया हुआ
थे मुखर पर भाव अब भी जो बिखर कर रह गये
कह न पाये जो अधर ये बूँद गिर कर कह गये।।

कलियों से सुरभित रहा मृदु अश्रु जीवन का यहाँ
स्मृतियों में अब तक अमिट हैं गीतों की सब पंक्तियाँ
कुछ शब्द आहों से सजे कुछ आह में मिट गये
कह न पाये जो अधर ये बूँद गिर कर कह गये।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        08फरवरी, 2022




पृष्ठों की धरा।

पृष्ठों की धरा।  

भाव जिनको गीत बनकर गूँजना था इस जहाँ में
वो मात्र बन कर शब्द पृष्ठों के धरा पर रह गये।।

इस हृदय की भावनाओं ने था रचा नवगीत इक
और उम्र ने भी आगोश में भर कर रचा था गीत इक
उम्र ने लिखे जो गीत सारे मौसमों में ढल गये
रोकता फिर कैसे बोलो जब दूर सब निकल गये।।

भाव जिनको प्रीत बनकर गूँजना था इस जहाँ में
वो मात्र बन कर शब्द पृष्ठों के धरा पर रह गये।।

द्वार तक आयीं निरंतर रश्मियाँ जाने कहाँ हैं
स्वप्न सजने थे पलक पर छूट कर जाने कहाँ हैं
अक्षरों के खेल से यहाँ जो दृश्य मुखरित थे कभी
जाने किस आकाश में वो गुम हुए जाकर सभी।।

वो स्वप्न जिनको था निखरना इस खुले आकाश में
वो मात्र बन कर शब्द पृष्ठों के धरा पर रह गये।।

जिसने सदियों को समेटा लम्हों में संचित किया
जिसने पथ के कंटकों को पुष्पों से सिंचित किया
जिसने अँधियारे में बिखेरी आस की उजली किरण
जिसने खुद काँटे चुने अरु बाँटे जग को बस सुमन।।

जिनको बनकर सूर्य चमकना था खुले आकाश में
वो मात्र बन कर शब्द पृष्ठों के धरा पर रह गये।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        07फरवरी, 2022



मन की सारी कह लेता।

मन की सारी कह लेता।   

कुछ पल रात ठहर जाती जो
मन की सारी कह लेता
सुन लेता जी भरकर तुमको
और दर्द सभी सह लेता
कुछ पल रात ठहर जाती तो
मन की सारी कह लेता।।

अंतिम प्रहर रात का देखो
रह रह कर के पिघल रहा
तारों से आच्छादित नभ में
मन का चंदा मचल रहा
दूर कहीं टूटे तारे की
मन की पीड़ा सुन लेता
कुछ पल रात ठहर जाती तो
मन की सारी कह लेता।।

सोते क्या जब रात जाग कर
श्वेत धुँए से भर डाली
लेकिन पलकें बंद रात भर
की सपनों की रखवाली
करती रहीं प्रतीक्षा वो तो
बस थोड़ा तो रह लेता
कुछ पल रात ठहर जाती तो
मन की सारी कह लेता।।

निशि भर भाव पलक पर बैठीं
आशायें यूँ मँडराती
थकी उदासी धीरे धीरे
काश हृदय को छू पाती
छू पाती जो हृदय कभी तो
आहों में भी रह लेता
कुछ पल रात ठहर जाती तो
मन की सारी कह लेता।।

बुझी राख की यादें लेकर
रात सिमटने को आतुर
आकाशों को देख रहीं अब
बोझिल पलकें हो व्याकुल
व्याकुलता के भाव सभी ये
काश हृदय ये सह लेता
कुछ पल रात ठहर जाती तो
मन की सारी कह लेता।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        06फरवरी, 2022



पिय बसंत ऋतु बड़ी सुहानी।

पिय बसंत ऋतु बड़ी सुहानी।  

पिय बसंत ऋतु ये बड़ी सुहानी खिल गये धरती गगन
मुस्कुरा रही डाली डाली कह रही कुछ ये पवन।।

तार गूँजे हैं हँसी के खिल गया संसार सारा
पंछियों के मृदु स्वरों से गूँजता आकाश सारा
हो गईं हैं मदमस्त देखो आज सारी वादियाँ
लगता धरती पर है उतरा झूम कर स्वर्ग सारा।।

लिख गये नवगीत पथ पथ खिल रहे सभी अंतर्मन
पिय बसंत ऋतु ये बड़ी सुहानी खिल गये धरती गगन।।

नेह पलकों से झरे अधरों पे नवल मुस्कान है
देखो प्रकृति के अंक ने पाई नई पहचान है
उच्च शिखरों से चमकता ये सूर्य भी कुछ कह रहा
पंछियों के कलरवों में सब गूँजते गुणगान हैं।।

हुई धरा पुलकित बहुत केसर सम रंगे वन सघन
पिय बसंत ऋतु ये बड़ी सुहानी खिल गये धरती गगन।।

ठहरे हैं जो शब्द अधरों पर उन्हें अब बोल दो
मन के भावों को ना रोको वक्त है ये खोल दो
कह दो मन की बात सारी अब मौन ऐसे न रहो
जो किसी से न कही हो वो बात खुलकर के कहो।।

चलो हम गायें गीत ऐसा पुण्य हो जाये मिलन
पिय बसंत ऋतु ये बड़ी सुहानी खिल गये धरती गगन।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       04फरवरी, 2022

पँक्तियाँ एक मोड़ तक आईं आकर थम गयीं।

पँक्तियाँ एक मोड़ तक आईं आकर थम गयीं।

जब भी लिखने को चले हम जिंदगी की इक गजल
पँक्तियाँ एक मोड़ तक आईं आकर थम गयीं
ये पलक जब भी हुई है इन वीथियों पे सजल
इक गीतिका होंठों तक आई आकर जम गयी।।

पृष्ठ पर जो भी लिखे वो गीत जाने गुम हुए
शब्द भावों से चुने न जाने कहाँ वो गुम हुए
जो लिखे थे गीत हमने छंद के सत्कार के
पँक्तियाँ खोई सभी अरु भाव जाने गुम हुए।।

चाहा कितना कि रचूँ बस प्रीत का नव पंथ मैं
न चल सके मेरे कदम ये राहें थम सी गयी
जब भी लिखने को चले हम जिंदगी की इक गजल
पँक्तियाँ एक मोड़ तक आईं आकर थम गयीं।।


भोर को शैशव समझ मेल उससे कर सके ना
जब हुआ थोड़ा उजाला तेज भी सह सके ना
अब क्षितिज पर देख कर जाती हुई उजली किरण
रोकता कैसा कि मन जब व्यक्त भी कर सके ना।।

कह सके न भाव खुल के जाने कैसी द्वंद थी
लिख सके ना गीत कोई लेखनी थम सी गयी
जब भी लिखने को चले हम जिंदगी की इक गजल
पँक्तियाँ एक मोड़ तक आईं आकर थम गयीं।।

रात ने देकर सहारा भोर को आवाज दी
चाँद किरणों ने मचल कर इक नई शुरुआत दी
तारों ने भी झिलमिलाकर हौले से कुछ कहा
अब कहो कि किस्मतों ने हमको भी ये रात दी।।

रात मन की कह सकी ना या रश्मियाँ मंद थीं
भाव बन नीर पलकों के किनारे तर कर गयीं
जब भी लिखने को चले हम जिंदगी की इक गजल
पँक्तियाँ एक मोड़ तक आईं आकर थम गयीं।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        04फरवरी, 2022


भाव की अलोड़नाएँ।

भाव की अलोड़नाएँ।  

स्वप्न हैं ठहरे नयन में तुम कहो तो बोल दूँ
भाव की आलोड़नाओं को कहो तो खोल दूँ।।

लाज ने रोका अधर पर भाव जो छाये कभी
कहते कहते रुक गये शब्द कुम्हलाये सभी
दृष्टि पड़ते ही नयन के भाव सब झंकृत हुये
और भूले गीत सारे याद फिर आये सभी।।

शब्द जो ठहरे अधर पर तुम कहो तो बोल दूँ
भाव की आलोड़नाओं को कहो तो खोल दूँ।।

लिख रहे हैं गीत हम तो आस के अनुबंध के
शब्दों का लेकर सहारा बिना किसी प्रतिबंध के
कल कही जो बात तुमने यहाँ बांधे हुए है
अन्यथा मैं लिख न पाता गीत मृदु संबन्ध के।।

आस के अनुबंध को जो तुम कहो तो बोल दूँ
भाव की आलोड़नाओं को कहो तो खोल दूँ।।

एक ही जीवन मिला है तुम कहो तो वार दूँ
एक तुम्हारा साथ हो मैं सभी कुछ हार दूँ
क्या करूँगा वो जगत जिसमें तेरा साथ न हो
कामना बस है यही ये जिंदगी उपहार दूँ।।

उम्र का संबन्ध है जो तुम कहो तो बोल दूँ
भाव की आलोड़नाओं को कहो तो खोल दूँ।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        03फरवरी, 2022

ज्ञान का दीपक।

ज्ञान का दीपक।  

चलो फिर आज गीतों में समर्पण गान हम भर लें
चुन कर शब्द जीवन से मधुर गुणगान हम कर लें
जला डालें सभी अवगुण रोकें राह खुशियों की
लिखें फिर गीत जीवन के नव आह्वान हम कर लें।।

सभी दुरवृत्तियों को त्याग कर मन शुद्ध कर डालें
मिटा डालें सभी दुर्गुण अरु मन को बुद्ध कर डालें
भटक जाये न ये जीवन कहीं अनगिन व्यथाओं में
जला कर ज्ञान का दीपक अँधेरे रुद्ध कर डालें।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        28जनवरी, 2022

आलिंगन में हमने जीवन भर लिये।

आलिंगन में हमने जीवन भर लिए।  

भावों की फुलवारी से चुन प्रेम की कुछ पाँखुरी
हमने आलिंगन में अपने आज जीवन भर लिया।।

कह दिये जो शब्द तुमने भाव मन का खिल गया
क्या कहूँ तुमसे यहाँ पर क्या क्या मुझको मिल गया
चुन लिये हैं प्रीत के पल भर लिये हैं आँजुरी
मुझको जीवन के भँवर में जैसे किनारा मिल गया।।

पास आती हर लहर से भर के मन की गागरी
हमने आलिंगन में अपने आज जीवन भर लिया।।

कह दिया कुछ आज मन की और मन की सुन लिया
राहों में जो पुष्प बिखरे हमने उनको चुन लिया
रच लिये नव गीत हमने छू के तेरी आँगुरी
मन के विचलन को यहाँ जैसे सहारा मिल गया।।

मिल गया मन आज ऐसे खत्म मन की आतुरी
हमने आलिंगन में अपने आज जीवन भर लिया।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        27जनवरी, 2022

यादों की बातें।

यादों की बातें।  

मन के सारे भाव मचल कर पन्नों में यूँ सिमट गये
गा ना पाये गीत यहाँ जो यादों में सब लिपट गये।।

बहुत सरल है इस जग में आरोपों की झड़ी लगाना
बहुत सरल है जग में औरों के ऊपर प्रश्न उठाना
सच है मन की बात कठिन जो औरों के मन को भाये
और सुनाना गीतों में मन के भावों को समझाना।।

समझा ना पाये भाव यहाँ जो गीतों में सिमट गये
गा ना पाये गीत यहाँ जो यादों में सब लिपट गये।।

कितनी आहें कितने आँसू कितनी रची कहानी है
कितनी बातें दबी रह गयीं कितनी और सुनानी है
लिखे कलम शब्द सँजोकर उतने भाव मुखर हो बैठे
शब्द नहीं जो लिखे कलम ने गीतों में कह जानी है।।

आँखों के आँसू पलकों में आये आकर सिमट गये
गा ना पाये गीत यहाँ जो यादों में सब लिपट गये।।

डूबा है आकाश कहीं तो किरणें भी तो मंद हुईं
तम के भ्रम में दूर क्षितिज पर किरणों की गति कुंद हुई
जलते दीपक आज निशा से आंखमिचौली खेल रहे
आशाओं के इंद्रधनुष क्यूँ रंगों में बेमेल रहे।।

इंद्रधनुष के रंग यहाँ सब आकाशों में सिमट गये
गा ना पाये गीत यहाँ जो यादों में सब लिपट गये।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        27जनवरी, 2022

संभावनाएँ।

संभावनाएँ।  

भोर की पहली किरण 
जब चूमती हैं गात को
मुक्त होती हैं दिशायें
फैलती हैं ज्योत्सनायें।।

वेद मंत्रों की ऋचाएँ
कानों में मृदु गीत घोलें
पंछियों की आहटें मृदु
कान में संगीत घोलें
गूँजते हैं दश दिशायें
दे रही संभावनाएँ।।

प्राची से दिनकर निकलकर
पुण्य पंथों को सजाता
दे के नव एहसास फिर
शून्य से सबको जगाता
भर रहा जीवन में प्रतिपल
मृदु आस की संवेदनाएँ।।

जागो है भारत तुम्हें है
नव गीत का निर्माण करना
गूँजे जिससे विश्व सारा
संगीत का निर्माण करना
त्यागो आलस्य हैं खड़ी
सामने मृदु कामनायें।।

सत्य का संज्ञान कर के
लक्ष्य का संधान कर लो
आस का आकाश ले कर
पुण्य का अनुमान कर लो
संशयों से दूर देखो
रच रहीं संभावनाएँ।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       26जनवरी, 2022

सिहरन मन की।

सिहरन मन की।  

चंदन गात तुम्हारा रूपसी यादों में मुस्काता है
हौले से इक सिहरन मन के मृदु भावों को छू जाता है।।

प्राची से छनकर किरणें जब मन का चुंबन लेती हैं
भावों के उपवन में कितने सपने में वो बुन लेती हैं
सपनों के आलिंगन में जब-जब ऊषा ने अँगड़ाई ली 
हौले से मुस्काती प्राची भाव सुनहरे रच देती है।।

रूप सुनहरा जब जब तेरा मन उपवन में लहराता है
हौले से इक सिहरन मन के मृदु भावों को छू जाता है।।

पदचापों की मधुर रागिनी जब भरती गीतों का आँगन
तब-तब मन के उपवन में सजती है पुण्य सुरों की सरगम
कंगन की खन-खन सुन कर तब खिल जाती हैं मन की कलियाँ
नये सुरों में गीत सजा मन सुनना चाहे मृदु संबोधन।।

अधरों का मृदु कंपन जब-जब नवगीत मनहरा गाता है
हौले से इक सिहरन मन के मृदु भावों को छू जाता है।।

शब्दों का संयोजन ऐसा गीतों की हो मधुर पालकी
अधरों का संबोधन ऐसा बातें किरणें स्वतः मानती
रच जाते हैं नव गीत कई मृदु भावों के मुस्काने से
खिल जाता हैं मधुवन सारा गीतों में तेरे गाने से।।

तेरे पलकों के नरतन से दृश्य मनोरम हो जाता है
हौले से इक सिहरन मन के मृदु भावों को छू जाता है।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        25जनवरी, 2022

जमाना गुनगुनायेगा।

जमाना गुनगुनायेगा।  

हाल ए दिल जानने तिरा यहाँ अब कौन आयेगा
हवाओं ने नजर फेरी संदेशा कौन लायेगा।।

ये माना नींद तुझको तो कभी आई नहीं लेकिन
बता पलकों में तिरी नींदों को फिर कौन लायेगा।।

तिरे गीतों ने पलकों को दिखाये हैं कई सपने
संग में तू नहीं होगा उन्हें फिर कौन गायेगा।।

मिले जो जख्म दुनिया से नहीं मुश्किल भुलाना है
मगर दिल की लगी को फिर कोई कैसे भुलायेगा।।

है बाकी रोशनी अब भी कहीं मन के अँधेरों में
तुम्हारा साथ पाया जो दिया फिर टिमटिमायेगा।।

चलो कुछ गीत हम रच दें ज़माने की रवायत के
सदियों बाद भी जिनको ये जमाना गुनगुनायेगा।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        23जनवरी, 2022

ऐसा कोई मिला नहीं।

ऐसा कोई मिला नहीं।   

यादों के तहखाने में धूल धूसरित छवि तुम्हारी
ऐसा कोई मिला नहीं हम जिसको अपना कह पाते।।

अंतस में वो गीत अभी तक ठहरे हैं कुछ यादें बनकर
जिनको तुमने कभी लिखा था शब्दों की कलियाँ चुन चुन कर
रच डाले थे गीत कई मृदु मौसम के परिधानों के
गीत मगर सब दबे रह गये ऋतुओं के व्यवधानों में
अधरों तक आकर सब ठहरे गाते भी तो कैसे गाते
ऐसा कोई मिला नहीं हम जिसको अपना कह पाते।।

साँझ ढले मन सिंधु तीर पर छिपता सूरज देख रहा
भूली बिसरी यादों में मन लुका छिपी है खेल रहा
नभ के गलियारे में अब तक ठहरे वो चंदा तारे
सपनों को आलिंगन भर चले कभी जो साथ हमारे
छूटा नभ का साथ कभी तो टूटे तारे गिर जाते
ऐसा कोई मिला नहीं हम जिसको अपना कह पाते।।

यादों के मानसरोवर में गीत अभी तक गूंज रहे
तेरे अधरों ने मुस्काकर कानों में जो कभी कहे
उन गीतों की सरगम से ही जीवन क्या हमने जाना
प्राण बाँसुरी की सरगम है अधरों तक जाकर जाना
लेकिन स्वर जब मिला नहीं हम गाते भी तो कैसे गाते
ऐसा कोई मिला नहीं हम जिसको अपना कह पाते।।

जीवन के इस महासिन्धु में कितने गीत सजाए थे
रुँधे भले थे कंठ मगर संग संग मिल कर गाये थे
जर्जर धूल धूसरित छवि देवालय में कहीं दबी है
माना जग से दूर हुए लेकिन मुझमें यहीं कहीं है
मन के सूने देवालय में तुम बिन क्या दीप जलाते
ऐसा कोई मिला नहीं हम जिसको अपना कह पाते।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        22जनवरी, 2022

गीत कैसे मान लूँ।

गीत कैसे मान लूँ।   

कुछ शब्द भरकर गीत में इतरा न मन तू इस तरह
होंठ पर जब तक सजे ना गीत कैसे मान लूँ।।

मन एक प्यासा समंदर राह नदिया की तके है
दूर उद्गम हो भले पर राह बोलो कब थके है
जब चल दिये आवेग में ये रास्ते खुल जायेंगे
और जो मन में उठे वो प्रश्न सभी मिट जायेंगे
प्रश्न के उत्तर सभी क्या स्वीकार होंगे इस तरह
जो बात मन की ना कहे तो गीत कैसे मान लूँ।।

दर्द का ना बोध हो ऐसा कोई प्राणी नहीं है
सुख ही सुख का ढेर हो ऐसी अमरवाणी नहीं है
न हो सजग इस पंथ में तो पाँव ये छिल जायेंगे
हौसलों पर यदि हो पकड़ तो रास्ते मिल जायेंगे
चोट खाकर टूट जायें इस राह में जो इस तरह
उसके क्रंदन को कहो यहाँ गीत कैसे मान लूँ।।

व्यर्थ होंगे शब्द सारे गीतों का न बोल होगा
अधरों पर जो न सजे तो गीत का क्या मोल होगा
जग को जो कुछ दे सके ना व्यर्थ जीवन जायेंगे
ये शब्द कोरे ही रहेंगे गीत न बन पायेंगे
जब तक सजे ना होंठ पर तो प्रीत कैसे मान लूँ
और मन को जो छुये न उसे गीत कैसे मान लूँ।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        20जनवरी, 2022

लोकतंत्र फिर खिल खिल जाये।

लोकतंत्र फिर खिल खिल जाये।  

अनगिन मौन कहानी मन की
बाट जोहती संकेतों की
लेकिन बारी जब आयी तो
कोलाहल में दबी रह गयी।।

मंचों से कितनी ही बातें
उम्मीदों के दीप जलाती
मन के संकेतों को पढ़ती
संकोचों में पर खो जाती
मिलने को तो मिल जाती पर
बाट जोहती संकेतों की
लेकिन बारी जब आयी तो
कोलाहल में दबी रह गयी।।

निकला आज मचल कर सूरज
अँधियारे को दूर भगाने
लिखने को इक नया सवेरा
उम्मीदों के गीत सुनाने
गीत मधुर अधरों पर ठहरे
बाट जोहते संकेतों की
लेकिन बारी जब आयी तो
कोलाहल में दबी रह गयी।।

बीच सदन में खड़ी द्रौपदी
याचक बनकर किसे बुलाये
किसे अंतर्मन की पीर कहे
किसको अपना घाव दिखाये
मन में कितना घाव लिये वो
करे प्रतीक्षा आदेशों की
लेकिन बारी जब आयी तो
कोलाहल में दबी रह गयी।।

सत्ता के गलियारों में ना
लोकतंत्र दब कर रह जाये
खुलकर मन की बात कहो अब
लोकतंत्र फिर से खिल जाये
मिट जाये अँधियारे सारे
खिले रश्मियाँ अनुदेशों की
मिल जाये सम्मान सभी को
लोकतंत्र फिर खिल खिल जाये।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        20जनवरी, 2022

गीत मेरे अधरों पर सबके सजेंगे।

गीत मेरे अधरों पर सबके सजेंगे।   

आज माना गीत मेरे हैं ढूँढते अपने निशाँ
इक दिन ये गीत मेरे अधरों पर सबके सजेंगे।।

साँझ ने माना सभी को रात की सूरत दिखाई
बादलों की ओट से भी चाँद ने दी है दुहाई
कुछ चुने हैं पुष्प हमने रात की तनहाइयों में
पुष्प का परिधान लेकर आस की बगिया सजायी
है सब समय का फेर अब अफसोस ना इसका करो
दीप जो हमने जलाया सुबह लाकर ही बुझेंगे।।

बेबसी मेरे हृदय की जब नहीं समझे यहाँ पर
तुम ही कहो क्यूँ बेबसी को गीत मैं गाता फिरूँ
अब इस कदर अफसोस न करना मेरे हालात पर 
है नहीं संभव यहाँ कि सबको मैं बतलाता फिरूँ
बेबसी जो थी अधर की उपहास ना उसका करो
दीप जो हमने जलाया सुबह लाकर ही बुझेंगे।।

आँधियों में आज फिर से दीप सपनों का जलाया
आँसुओं का तेल भरकर आस को बाती बनाया
है यही बस कामना के गीत मेरे भी सजेंगे
आज गाता हूँ अकेले कल इसे सारे कहेंगे
आँधियों में तेज माना अफसोस ना इसका करो
दीप जो हमने जलाया सुबह लाकर ही बुझेंगे।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       19जनवरी, 2022

पुतलियाँ ये नीर को कब तक यूँ ही ढोएंगी।

पुतलियाँ ये नीर को कब तक यूँ ही ढोएंगी।   

जो उदासी पास आये दूर तुम उसको करो
पुतलियाँ ये नीर को कब तक यूँ ही ढोएंगी।।

अश्रु जो बहते पलक से होता आत्मा का क्षरण
बह गये आँसुओं को बोलो कहाँ मिलता शरण
जो गिरे ये पलक से तो हाथ ही हैं पोंछते
फिर कहो किसलिये यहाँ उदासियों को पोसते।।

ये अश्रु व्यर्थ हो न जायें कुछ तो तुम जतन करो
पुतलियाँ ये नीर को कब तक यूँ ही ढोएंगी।।

पंथ की नाकामियों का है जरूरी आकलन
जिंदगी ये हार जीत का है सुखद संकलन
है कौन जो जगत में दुख से सदा वंचित रहा
या कहो किस भाग्य में सुख ही सदा संचित रहा।।

सभी पलों को जिंदगी के स्वयं आँचल में भरो
पुतलियाँ ये नीर को कब तक यूँ ही ढोएंगी।।

है विकलता पास आये मौन तुम पुचकार लो
भर आलिंगन में अपने प्रेम उस पर वार दो
दो घड़ी का है जगत ये व्यर्थ ना इसको करो
जिंदगी है कीमती बस प्रेम से स्वागत करो।।

अब जिंदगी को पाश में लो व्यर्थ न क्रंदन करो
पुतलियाँ ये नीर को कब तक यूँ ही ढोएंगी।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        18जनवरी, 2022

शब्दों में छलकेगा ही।

शब्दों में छलकेगा ही।  

जीवन के इस महासिन्धु की
है छोटी सी धारा माना
उद्गम पर यदि रोक लगेगी
शब्दों में फिर छलकेगा ही।।

प्यालों में सिमटा ना पाया
जीवन भर जल की बूँदों को
पलकों में सिमटा ना पाया
भावों की बहती बूँदों को
भावों पर यदि रोक लगेगी
पलकों से फिर छलकेगा ही
उद्गम पर यदि रोक लगेगी
शब्दों में फिर छलकेगा ही।।

बीच भँवर में साथ छोड़ना
उत्तम कैसे कहो कहूँ मैं
भय के आगे पीठ मोड़ना
संयम कैसे कहो कहूँ मैं
संयम पर आघात लगेगा
आवाजों में तड़पेगा ही
उद्गम पर यदि रोक लगेगी
शब्दों में फिर छलकेगा ही।।

जिसने कर्मयोग को समझा
गुण- दोष उसी ने पहचाना
आरोपों के चक्रव्यूह में
उसका ही है आना जाना
कर्मयोग का पुष्प खिला कर
सँवरेगा अरु महकेगा ही
उद्गम पर यदि रोक लगेगी
शब्दों में फिर छलकेगा ही।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        17जनवरी, 2022



रात पर ठहर गयी।

 रात पर ठहर गयी।  

कुछ लिखा नहीं लिखा, कुछ पढ़ा नहीं पढ़ा
कुछ कहा नहीं कहा, कुछ सुना नहीं सुना
पँक्तियाँ मौन थीं, भाव सब बिखर बिखर
शब्द के अभाव में मौन के स्वभाव में
क्या वो बोलते गये मुझको तोलते गये
सुने सभी खड़े खड़े नीर नैन में भरे
जो लिखे थे गीत सारे अधरों पर लहर गयी
साँझ तो गुजर गया रात पर ठहर गयी।।

इक हथेली आस लेकर मिल रहे थे दूर से
कितने स्वप्न पास लेकर पल रहे थे दूर से
कुछ मिला नहीं मिला क्या क्या पर बिछड़ गया
यादों के झरोखों से वो बीता पल गुजर गया
क्या क्या देखते रहे मौन सोचते रहे
सोचा सब खड़े खड़े नीर नैन में भरे
जो लिखे थे गीत सारे अधरों पर लहर गयी
साँझ तो गुजर गया रात पर ठहर गयी।।

प्रेम का मधुर वो ग्रंथ पढ़ नहीं सके जिसे
पास पास चल रही पर कह नहीं सके जिसे
कंठ में ही दब गये वो गीत सारे प्यार के
मौन भाव राह गये थे वक्त के प्रहार से
खुद को खोजते रहे मौन सोचते रहे
खोजा फिर खड़े खड़े नीर नैन में भरे
जो लिखे थे गीत सारे अधरों पर लहर गयी
साँझ तो गुजर गया रात पर ठहर गयी।।

मुक्त हूँ प्रभाव से अरु वक्त के बहाव से
दर्द के लगाव से अरु आस के जुड़ाव से
थी घुटी जो चीख सारी बीते कल के वार से
घाव सब गुजर गये अब उम्र के प्रभाव से
उम्र के उतार पर वो शब्द बीनते रहे
वो शब्द ले खड़े खड़े नीर नैन में भरे
जो लिखे थे गीत सारे अधरों पर लहर गयी
साँझ तो गुजर गया रात पर ठहर गयी।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        15जनवरी, 2022


वरना गीत अधूरे रह जायेंगे।

वरना गीत अधूरे रह जायेंगे।  

मेरे गीतों के शब्दों में कुछ तो शब्द भरो हे प्रियवर
वरना जो भी गीत लिखे हैं सभी अधूरे रह जायेंगे।।

जीवन भर महकूँ मैं यूँ ही
मन में मेरे नहीं लालसा
गीतों की गलियों में बहकूँ
ऐसी भी है नहीं लालसा
पर मेरे गीतों में तुम भी अपना गीत भरो हे प्रियवर
वरना जो भी गीत लिखे हैं सभी अधूरे रह जायेंगे।।

ये गीत नहीं वो पुष्प यहाँ 
जो आसानी से मिलते हैं
भावों में जब प्यास जगी हो 
तब ही जाकर ये खिलते हैं
मेरे मन की इन प्यासों में तुम थोड़ी तो बरसात भरो
वरना जो भी गीत लिखे हैं सभी अधूरे रह जायेंगे।।

जीवन के इस महा सिन्धु में
पल कितना कुछ सिखलाता है
जो भी डूबा आकर इसमें
जीवन का मोती पाता है
मेरे इस मोती की माला का तुम प्रियवर आधार बनो
वरना जो भी गीत लिखे हैं सभी अधूरे रह जायेंगे।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        14जनवरी, 2022


चेहरे जब याद आते हैं।

चेहरे जब याद आते हैं।  

मेरे नयनों के ऑंसू भी बहते बहते रुक जाते हैं
मूल भूत सुविधा से वंचित चेहरे जब याद आते हैं।।

जीवन भर वरदानों खातिर
पग पग कितना दूर चला मैं
थोड़े से अहसानों खातिर
जाने कितनी पीर सहा मैं
लेकिन जिन चरणों ने बेबस
भटक भटक कर जीवन काटा
उन चरणों के छाले मेरे
दिल को बरबस तड़पाते हैं।।
मेरे नयनों के ऑंसू भी बहते बहते रुक जाते हैं
मूल भूत सुविधा से वंचित चेहरे जब याद आते हैं।।

राष्ट्र भावना की मशाल ले
सीमाओं पर लोग डटे जो
प्राण हथेली पर रख कर के
रक्षा खातिर वहाँ डटे जो
उनके त्याग भावना के प्रण
ने इतिहास बदल डाला है
उनके बलिदानों की बातें
दिल को पल पल छू जाते हैं।।
मेरे नयनों के ऑंसू भी बहते बहते रुक जाते हैं
मूल भूत सुविधा से वंचित चेहरे जब याद आते हैं।।

आजादी की बलिबेदी पर
कितना ही अपमान सहा है
भूख प्यास में जीवन काटा
पग पग कितना घाव सहा है
जिनके घावों की पीड़ा ने
सारा भूगोल बदल डाला 
उनके पीड़ा की आवाजें
अंतरतम तक दहलाते हैं।।
मेरे नयनों के ऑंसू भी बहते बहते रुक जाते हैं
मूल भूत सुविधा से वंचित चेहरे जब याद आते हैं।।

खुद काल कोठरी में रहकर
आजादी को मान दिलाया
भारत माता को दुनिया में
न्यायोचित सम्मान दिलाया
अपने जीवन की आहुति दे
जिसने साम्राज्य बदल डाला
बलिदानों की इस माटी के
सौगंध हृदय को छू जाते हैं।।
मेरे नयनों के ऑंसू भी बहते बहते रुक जाते हैं
मूल भूत सुविधा से वंचित चेहरे जब याद आते हैं।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        13जनवरी, 2022

गीतों का मत उपहास करो।

गीतों का मत उपहास करो।  

मेरे गीत व्यथा हैं मेरी मत इनका परिहास करो
आँसू बन कर शब्द झरे हैं मत इनका उपहास करो।।

सुख की उम्मीदों में हमने अगणित दुख भी पाले हैं
फिर भी कदम कदम पर मेरे सुख पर कैसे ताले हैं
मेरे सुख के तालों पर अब तुम भी मत अनुताप करो
मुझको पश्चाताप नहीं मत तुम भी पश्चाताप करो।।


मेरे गीत व्यथा हैं मेरी मत इनका परिहास करो
आँसू बन कर शब्द झरे हैं मत इनका उपहास करो।।

सुख की सेजों पर ही सोऊँ माँगा कब वरदान यहाँ
पीड़ा की गलियों में विचरूँ ऐसी भी ना चाह यहाँ
पीड़ा की गलियों में अब तुम मत कोई अभिताप करो
मुझको पश्चाताप नहीं मत तुम भी पश्चाताप करो।।


मेरे गीत व्यथा हैं मेरी मत इनका परिहास करो
आँसू बन कर शब्द झरे हैं मत इनका उपहास करो।।

इस सारे संसार मध्य में ऑंसू आज सहारा है
किससे कहूँ हृदय की बातें किसको कहूँ हमारा है
मेरे आँसू पर अब तुम मत कोई भी परिताप करो
मुझको पश्चाताप नहीं मत तुम भी पश्चाताप करो।।


मेरे गीत व्यथा हैं मेरी मत इनका परिहास करो
आँसू बन कर शब्द झरे हैं मत इनका उपहास करो।।

मोम नहीं अब पत्थर हूँ मै दर्द का यहाँ समंदर हूँ
जितना जग ने बाहर समझा उतना ही मैं अंदर हूँ
अब होने ना होने का तुम मत कोई अभिताप करो 
मुझको पश्चाताप नहीं मत तुम भी पश्चाताप करो।।


मेरे गीत व्यथा हैं मेरी मत इनका परिहास करो
आँसू बन कर शब्द झरे हैं मत इनका उपहास करो।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        12जनवरी, 2022

शब्द कितने गढ़े शब्द कितने सुने।

शब्द कितने गढ़े शब्द कितने सुने।।

आस की ज्योति ले पंथ के तम चुने
रश्मि की गोद में स्वप्न कितने बुने
हो विदित के यहाँ मोक्ष की राह पर
शब्द कितने गढ़े शब्द कितने सुने।।

छंद की पंक्ति में जो समाहित हुआ
भाव के रूप में जो आवाहित हुआ
अरु वाणी में जिसके मधुर तान थी
वही गीत अधरों से प्रवाहित हुआ।।

जो कहे गीत पल पल मधुरतम बने
प्रीत के भाव में वो निकटतम बने
हो विदित के यहाँ मोक्ष की राह पर
शब्द कितने गढ़े शब्द कितने सुने।।

रात ने ओट से भोर से कुछ कहा
वो जो बीती निशा में क्या कुछ सहा
मौन को गीत से था मिला आसरा
प्रीत के पाश में गुनगुनाता रहा।।

अंक में प्रीत के स्वप्न जितने बुने
पंथ में प्रीत के पुष्प उतने चुने
हो विदित के यहाँ मोक्ष की राह पर
शब्द कितने गढ़े शब्द कितने सुने।।

हैं समर्पित दिशायें तुम्हारे लिये
गीतों की अदायें तुम्हारे लिये
शब्द श्रृंगार से अब सजे जो यहाँ
वो सारी विधायें तुम्हारे लिये।।

पंथ में पुण्य के ग्रंथ जितने सुने
पंक्ति ने जीत के पंथ उतने बुने
हो विदित के यहाँ मोक्ष की राह पर
शब्द कितने गढ़े शब्द कितने सुने।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        09जनवरी, 2022


चोट में हम तो मुस्कुराने लगे हैं।

चोट में हम तो मुस्कुराने लगे हैं।  

याद से जिनको अपनी हम भुलाने लगे हैं
सुना है वही फिर हमें आजमाने लगे हैं।।

उम्र भर सच अपना छिपाते रहे जो सभी से
सुना वही झूठ अपना अब छुपाने लगे हैं।।

वो कल तक जिन्हें किसी की जरूरत नहीं थी
वही अब मिलने के मौके बनाने लगे हैं।।

कल तलक जिन्हें शौक था आईने का बहुत
सुना आईने से नजरें चुराने लगे हैं।।

जब भी चाहा मिलूँ खामोशियों के शहर में
सारे मंजर पुराने छटपटाने लगे हैं।।

के तुम्हें याद हो न हो वो बातें पुरानी 
पर मुझे यादें वो सारी बुलाने लगे हैं।।

तेरी बेरुखी ने यूँ तड़पाया है अकसर
बेरुखी में भी खुद को आजमाने लगे हैं।।

कि असर करता नहीं चोट कोई अजय अब तो
अब हर चोट में हम तो मुस्कुराने लगे हैं।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        08जनवरी, 2022

जो न लिखता क्या मैं करता।

जो न लिखता क्या मैं करता।   

चल रहा था जिस सफर में बैठ कर के क्या मैं करता
इम्तिहानों की डगर थी जो न लड़ता क्या मैं करता।।

दिल किया मेरा कहूँ मैं बात तुमसे जो थी सारी
तुम नहीं जब सुन सके फिर बोल कर के क्या मैं करता।।

चाह थी इतनी मेरी के संग में तेरे चलूँ मैं
साथ मेरा जब न भाया फिर ठहर कर क्या मैं करता।।

जाने था कैसा वहम दिलों में जो घर कर गयी थी
बात जो समझा न पाया खुद समझ कर क्या मैं करता।।

कितनी ही सदियाँ घुल गयीं थी इक घरौंदे के लिये
दोराहे पर जब जिंदगी खुद बसर कैसे मैं करता।।

वो इश्क की जो एक कहानी थी हमारे दरमियाँ
रास जब तुमको न आयी भूलता ना क्या मैं करता।।

वो दीप थे जो भी जलाये हमने तेरे नाम के
आग जब दामन पे पहुँची फूँकता न क्या मैं करता।।

अब कट रही है जिंदगी बिन तेरे कैसे मैं कहता
गीत का ही आसरा था जो न लिखता क्या मैं करता।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       07जनवरी, 2022

रात बन मोम पल पल पिघलती रही।।

रात बन मोम पल पल पिघलती रही।।

पलक के कोर पर नींद की पाँखुड़ी
द्वार पर स्वप्न ले कर मचलती रही
मन तरसता रहा रोशनी के लिये
रात बन मोम पल पल पिघलती रही।।

भोर की आस में रात जगती रही
ओस के साथ ही साथ बहती रही
भाव मन में थे कितने उमड़ते रहे
गीत में भावनाओं को कहती रही।।

रात भर चाहतों का समुंदर लिये
बूँद भर प्यास को वो तरसती रही
मन तरसता रहा रोशनी के लिये
रात बन मोम पल पल पिघलती रही।।

चाहतों का बसा कर हृदय में शहर
पूजती वो रही मौन आठों पहर
वक्त से जाने कैसी अनबन रही
कह सकी ना हृदय में उठी जो लहर।।

भाव मन में दबाये पहर दर पहर
रात भर सिलवटों में सिमटती रही
मन तरसता रहा रोशनी के लिये
रात बन मोम पल पल पिघलती रही।।

उमर ने पंथ में छाँव कितने बुने
पुष्प देकर सभी स्वयं काँटे चुने
जो हृदय में दबी भावना रह गयी
स्वयं से ही कहे स्वयं से ही सुने।।

जो बची रह गयीं भाव की तितलियाँ
स्वयं के दायरे में सिमटती रही
मन तरसता रहा रोशनी के लिये
रात बन मोम पल पल पिघलती रही।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        07जनवरी, 2022

छंद की पालकी गुनगुनाने लगी।

छंद की पालकी गुनगुनाने लगी।  

रात की सेज पर गीत की चाँदनी
ओस ओढ़े हुए मुस्कुराने लगी
कुछ कहा मौन ने साज सजने लगे
छंद की पालकी गुनगुनाने लगी।।

सपने पलकों पे आ थिरकने लगे
बिन पिये ही कदम ये बहकने लगे
हाथ आया जब से तेरा हाथ में
रात और दिन मेरे महकने लगे।।

अंक में प्रीत की रीत पलने लगी
रात रानी बनी खिलखिलाने लगी
कुछ कहा मौन ने साज सजने लगे
छंद की पालकी गुनगुनाने लगी।।

शब्द कितने मधुर पंक्ति में लिख गये
भाव कितने मृदुल अंक में छिप गये
झरे पुष्प अधरों से बने गीत वो
बात अपने हृदय की सभी कह गये।।

भाव कितने हृदय में मचलने लगे
कामनायें मधुर गीत गाने लगीं
गीत नूतन अधर पर सँवरने लगे
छंद की पालकी गुनगुनाने लगी।।

प्रेम संकेत पा रश्मियाँ खिल गयीं
साज ऐसे सजे रागिनी सज गयीं
कुछ कहें ना कहें मौन कहने लगे
हम मिले जो यहाँ धड़कनें मिल गयीं।।।

शब्द का साथ पा गीतिका यूँ सजी
धड़कनें भी मधुर गीत गाने लगीं
प्रेम का पंथ ऐसे सुसज्जित हुआ
छंद की पालकी गुनगुनाने लगी।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        06जनवरी, 2022


लेखनी जब चले मन बहकने लगे।

लेखनी जब चले मन बहकने लगे।  

शब्द का ज्ञान ले भाव संज्ञान ले
सपनों की वादियों में मुस्कान ले
कुछ रचे शब्द मन में थिरकने लगे
लेखनी जब चले मन बहकने लगे।।

चाँदनी ने कही जो अधूरी कथा
तारों के मन की वो अधूरी व्यथा
रात भर ओस में तन फिसलने लगे
लेखनी जब चले मन बहकने लगे।।

अभिव्यक्तियों के भाव मन में लिये
पंक्ति में अक्षरों ने है अंतस छुये
शब्द ऐसे रचे मन समझने लगे
लेखनी जब चले मन बहकने लगे।।

अश्रु पलकों में आकर रुके रह गये
अधरों ने भाव मन के ऐसे कहे
हर्ष के अश्रु बनकर वो चमकने लगे
लेखनी जब चले मन बहकने लगे।।

नीर का भाव से मौन संबंध है
पीर का पलकों से ज्यूँ अनुबंध है
पीर के पलों में अश्रु तड़पने लगे
लेखनी जब चले मन बहकने लगे।।

शब्द ऐसे चुनें गीत ऐसे लिखें
भावों के मर्म को जो बिखेरा करें
रश्मियाँ गीत की यूँ दमकने लगे
लेखनी जब चले मन बहकने लगे।।

है यहाँ क्या कहो इक सिफर के सिवा
जिंदगी क्या कहो इक सफर के सिवा
राह में सब चलें सब समझने लगें
लेखनी जब चले मन बहकने लगे।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        04जनवरी, 2022



गीत गाती रही है चाँदनी।

गीत गाती रही है चाँदनी।  

अश्रु बूंदों में भिंगो कर तूलिका ने गीत लिखा
रात भर उस गीत को गाती रही है चाँदनी।।

क्यूँ बूँद पलकों से गिरे दोष क्या किसको पता
छोड़ क्यूँ दहलीज आये कौन सी थी वो खता
आये छलके अश्रु कितने गीत बन जज्बात के
पीर था या स्वप्न कोई जो चुभा किसको पता।।

पीर भावों के समझकर तूलिका ने गीत लिखा
रात भर उस गीत को गाती रही है चाँदनी।।

ओस बूंदों से फिसल जब भाव मन के गिर पड़े
शब्द कुछ गूँजे हृदय में मौन पर ना कह सके
थी जगी सिहरन वहाँ पर भाव ने जिसको छुआ
छलछलाये पीर मन के गीत में सब कह पड़े।।

भावों का संस्कार पा तूलिका ने गीत लिखा
रात भर उस गीत को गाती रही है चाँदनी।।

रात भर इक कहानी मन में कहीं पलती रही
गीत लिख कर वेदना के रात भर कहती रही
प्राण के संचार से कुछ शब्द अधरों से झरे
आस के आकाश पर वो गीत बन झरती रही।।

प्राणों का संचार पा तूलिका ने गीत लिखा
रात भर उस गीत को गाती रही है चाँदनी।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        03जनवरी, 2022

भारत- एक परिचय।

भारत- एक परिचय।   

सकल विश्व की पुण्य धरा का
सूक्ष्म, मगर हूँ शब्द प्रखर
हो मौन विश्व चाहे जितना
पर शब्द मिरे हैं सौम्य मुखर
मैं पुष्प सुशोभित मृदुल भाव
मैं अवसादों में मृदुल छाँव
मैं गीत मनोहर मीरा का
चैतन्य प्रभू की मधुर तान
मैं हूँ राधा का प्रेम सहज
अरु हूँ मुरली की मधुर तान
क्या परिचय बतलाऊँ अपना
इस दिव्य धरा का सूक्ष्म प्राण।।

रग रग कण कण मेरा शंकर
सौम्य, सुलभ मैं हूँ अभ्यंकर
मैं हूँ कान्हा का चक्र सुदर्शन
मैं ही सागर का हूँ मंथन
मैं मर्यादा का पुण्य प्रवाह
ऋषि मुनियों का प्रेम अथाह
ज्ञान ध्यान शोभित हैं भूषण
वेद पुराण ग्रंथ आभूषण
गुरुकुल शिक्षा भाव सुलभ
मैं हूँ गीता का प्रखर ज्ञान
क्या परिचय बतलाऊँ अपना
इस दिव्य धरा का सूक्ष्म प्राण।।

मैं राणा का अचूक प्रहार
लक्ष्मीबाई की खड्ग धार
अब अरि के मर्दन में क्या दोष
मैं वीर शिवाजी का उद्घोष
मैं मंगल पांडे की हुंकार
अरि के लिये मैं हूँ ललकार
मैं गंगा की पावन धारा
यमुना का मैं निश्छल प्रवाह
सत्य अहिंसा का मैं द्योतक
सत्यम शिवम सुंदर है ज्ञान
क्या परिचय बतलाऊँ अपना
इस दिव्य धरा का सूक्ष्म प्राण।।

मैंने कब चाहा है जग को
केवल अपने आधीन करूँ
मैंने कब चाहा है जग में
बस निजता खातिर जियूँ मरूं
कोई तो बतलाये कब मैंने 
दुर्बल पर अत्याचार किये
सत्ता की खातिर कब मैंने
अपने जन का संहार किये
कब्जाया न भूभाग कोई
न कभी किया हमने अभिमान
क्या परिचय बतलाऊँ अपना
इस दिव्य धरा का सूक्ष्म प्राण।।

मैं रामायण की चौपाई
भगवदगीता का गूढ़ ज्ञान
मैं गुरु द्वारे का आदि ग्रंथ
अरु गौतम का मैं प्रथम ज्ञान
राम कृष्ण की सकल भावना
सत्य सनातन यही कामना
हर्षित मन सब हर्षित तन सब
सतयुग की फिर करूँ स्थापना
नेक बनें सब एक बनें सब
वसुधैव कुटुंबकम का ज्ञान
क्या परिचय बतलाऊँ अपना
इस दिव्य धरा का सूक्ष्म प्राण।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        01जनवरी, 2022

भटक न जाना कहीं बिखर कर।

भटक न जाना कहीं बिखर कर।  

भीड़ बड़ी हैं इन राहों पर
सबके अपने अपने मेले
अगणित आशायें हैं पथ में
अगणित इच्छाओँ के रेले
दूर बड़ी मंजिल है माना
चलना हमको सँभल सँभल कर
पग पग अवसादों के मेले
भटक न जाना कहीं बिखर कर।।

मोड़ मोड़ पर कितनी आँखें
रह रह तुझको घूर रही हैं
तेरे पथ के अँधियारों से
अनजानी अरु दूर रही हैं
उनसे आगे जाना है तो
इच्छाओं को आज प्रबल कर
पग पग अवसादों के मेले
भटक न जाना कहीं बिखर कर।।

धारा के विपरीत चले जब
तूफानों से फिर क्या डरना
बीच राह में भँवर मिलेंगे
तुझको सबसे पार उतरना
मन में रख तू एक किनारा
होड़ मची है लहर लहर पर
पग पग अवसादों के मेले
भटक न जाना कहीं बिखर कर।।

सबका अपना अपना जीवन
इच्छाओं से सब जीते हैं
कोई पल पल रोता रहता
कोई हँस कर दुःख पीते हैं
घने कुहासे लाख भले हो 
सूरज नहीं छुपा अंबर पर
पग पग अवसादों के मेले
भटक न जाना कहीं बिखर कर।।

जब तेरा उद्देश्य अडिग हो
अरु हो तेरा विश्वास अटल 
अवसाद भरे ताने कितने 
क्या तुझे करेंगे कहीं विकल
दृढ़ता को हथियार बना कर
विजय पताका लगा शिखर पर
अवसादों से दूर निकल कर
चलो मुक्त हो आज शिखर पर।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        01जनवरी, 2022

तूफां में भी कश्ती सँभल जायेगी यहाँ।

तूफां में भी कश्ती सँभल जायेगी यहाँ।  

ये जिंदगी की राहें बदल जायेगी यहाँ
नदियों के भी प्रवाह बदल जायेंगी यहाँ
अब क्या करोगे सोच के कि किसको क्या मिला 
चले जो साथ मंजिलें मिल जायेंगी यहाँ।।

कैसे कहूँ के याद अब आती नहीं मुझे
कैसे कहूँ के राहें बुलाती नहीं मुझे
कैसी है मजबूरी क्या बताऊँ मैं यहाँ
तू भी तो बात अपनी बताती नहीं मुझे।।

थी कोई खता यहाँ जो मौसम बदल गया
न जाने क्या हुआ था जो मन ये मचल गया
तुमसे खता हुई या कि मुझसे हुई यहाँ
जाने हुई क्या बात जो रिश्ता बदल गया।।

वो रात की जो बात गुजर जायेगी यहाँ
सुधरी हुई थी और सुधर जायेगी यहाँ
मुश्किल नहीं है कुछ भी अगर ठान लें सभी
तूफां में भी कश्ती सँभल जायेगी यहाँ।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        01जनवरी, 2022


वो गीत पुराना बचपन का।

वो गीत पुराना बचपन का।  

ये मेरे मन आज सुना दो
वो गीत पुराना बचपन का।।

मन के सूने गलियारे में
आज पुरानी दस्तक आयी
कहीं छिपी थी जो कोने में
याद दबी जो कलतक आयी
यादों के उस पाँखी को फिर
फिर से वो आकाश खुला दो
मन का पंछी खोज रहा है
वो मीत पुराना बचपन का
ये मेरे मन आज सुना दो
वो गीत पुराना बचपन का।।

पाकर जिसको मन खिल जाए
खिल जाये राहों में कलियाँ
अँधियारों से दूर निकलकर
रोशन हों फिर मन की गलियाँ
निज मन मेरा सूनेपन में
आज मचलकर झूम उठे फिर
लेकर मुझको आज बुलाये
वो नाम पुराना बचपन का
ये मेरे मन आज सुना दो
वो गीत पुराना बचपन का।।

दूर गगन में गीत पुराना
फिर कोई आज सुनाता है
जाने क्यूँ लगता है ऐसा
फिर कोई मुझे बुलाता है
मन करता है मैं उड़ जाऊँ
फिरूँ गगन में दूर निकलकर
और सुनाऊँ सारे जग को
वो प्रीत पुराना बचपन का
ये मेरे मन आज सुना दो
वो गीत पुराना बचपन का।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय 
        हैदराबाद
        31दिसंबर, 2021




जिसमें याद तुम्हारी आये गीत नहीं अब मैं गाऊँगा।।


जिसमें याद तुम्हारी आये
गीत नहीं अब मैं गाऊँगा।।

मन में चाहे भाव उमड़ कर
पल पल मुझको तड़पायें
चाहे पलकों की ड्योढ़ी पर
यादें आँसू बन बह जायें
अनायास भी नाम तुम्हारा
अधरों पर मैं ना लाऊँगा
जिसमें याद तुम्हारी आये
गीत नहीं अब मैं गाऊँगा।।

साँझ ढले उस ताल किनारे
कितने सपने देखे हमने
आती जाती उन लहरों से
कितनी बातें सीखी हमने
जिस तल मन को घाव मिला हो
कभी नहीं मैं फिर जाऊँगा
जिसमें याद तुम्हारी आये
गीत नहीं अब मैं गाऊँगा।।

नयी दिशायें नयी रीतियाँ
नूतन पथ जीवन का होगा
जब रिश्तों ने मन को तोड़ा
और नहीं अब मंथन होगा
आज पुरानी उन यादों में
मन को मैं ना ले जाऊँगा
जिसमें याद तुम्हारी आये
गीत नहीं अब मैं गाऊँगा।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय "देववंशी"
        हैदराबाद
        29दिसंबर, 2021


मन के भाव उचारूं।

मन के भाव उचारूं।  

मनो भाव की कौन दशा को
गीतों में मैं आज उतारूँ
शब्द कहाँ से लाऊँ बोलो
जिनसे मन के भाव उचारूं।।

पल पल छिन छिन जीवन के सब
मृदु मधु रह रह रीत रहे हैं
कैसे कह दूँ आज कहो तुम
जीवन कैसे बीत रहे हैं।।

तुम जो साथ नहीं तो बोलो
पृष्ठों में क्या भाव उतारूँ
शब्द कहाँ से लाऊँ बोलो
जिनसे मन के भाव उचारूं।।

कहने को तो लाखों अपने
अपना कौन नहीं मैं जानूँ
दूर क्षितिज तक चले साथ जो
बोलो कैसे मैं पहचानूँ।।

तुम से ही सब आस जुड़ी है
तुम्हीं कहो अब किसे पुकारूँ
शब्द कहाँ से लाऊँ बोलो
जिनसे मन के भाव उचारूं।।

इस जीवन मे जो कुछ पाया
सब में तेरा वरदान प्रभू
बस तेरा आशीष मुझे हो
और नहीं कोई चाह प्रभू।।

तुम पर छोड़ दिया हूँ सब कुछ
जीतूँ मैं या सब कुछ हारूँ
कौन यहाँ अब मिरा सहारा
तुम ही बोलो किसे पुकारूँ।।

मनो भाव की कौन दशा को
गीतों में मैं आज उतारूँ
शब्द कहाँ से लाऊँ बोलो
जिनसे मन के भाव उचारूं।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय "देववंशी"
        हैदराबाद
        28दिसंबर, 2021

गीतों का मधुपान करा दो।

गीतों का मधुपान करा दो।  

मिरे सुलगते मनो भाव को
शीतलता का भान करा दो
बिखर न जाये भाव हृदय के
हो, इतना संज्ञान करा दो
प्यासे अब तक कर्ण मेरे हैं
गीतों का मधुपान करा दो।।

चलते पथ पर रहा निरंतर
पग पग उलझा उलझा जीवन
ऋतुओं के मृदु अनुमानों में
बहका बहका था ये उपवन
बरसो बनकर आज घटा तुम
मृदुल नेह का भान करा दो
प्यासे अब तक कर्ण मेरे हैं
गीतों का मधुपान करा दो।।

निर्जल अधरों पर मेरे ये
जाने कैसी प्यास जगी है
मेघ बरसते भींगे सावन
फिर भी कैसी आग लगी है
अंतस के इस सूनेपन में
अपनेपन का भान करा दो
प्यासे अब तक कर्ण मेरे हैं
गीतों का मधुपान करा दो।।

लगता जैसे दूर हो रहे
सपने पलकों से बोझल हो
दूर हो रही परछाईं भी
साँझ ढले पथ में ओझल हो
मन में जो भी आशंकायें
उनको नया विहान दिखा दो
प्यासे अब तक कर्ण मेरे हैं
गीतों का मधुपान करा दो।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय "देववंशी"
        हैदराबाद
        27दिसंबर, 2021



मुलाकात लिखना।

मुलाकात लिखना।  

निगाहों निगाहों की सब बात लिखना
निगाहों की पहली मुलाकात लिखना।।

कहीं बात दिल की दबी रह गयी जो
फिर आज सारे वो जज्बात लिखना।।

रह रह के तेरा मचलना सँभलना
पलकों की अपनी करामात लिखना।।

बिन कहे कितनी बातें जो थी कही
साँसों से साँस की सौगात लिखना।।

कहीं बीत जाये घड़ी "देव" फिर ना
बाहों में भरकर नयी रात लिखना।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय "देववंशी"
        हैदराबाद
        27दिसंबर, 2021

पल पल सवाल करती है।

पल पल सवाल करती है।

कैसे कैसे सवाल करती है
जिंदगी हर पल कमाल करती है।।

लम्हा लम्हा बदल रहा ये मौसम
कतरा कतरा धमाल करती है।।

सपने पलकों में क्यूँ रुके नहीं
सपनों से ही सवाल करती है।।

जाने कैसा चलन जमाने का
झूठ पे जान निहाल करती है।।

सच कितना मुखर देव लेकिन
सच से पल पल सवाल करती है।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय "देववंशी"
        हैदराबाद
        24दिसंबर, 2021

बस बढ़ते रहना।

बस बढ़ते रहना।  

पग पग जीवन की राहों में
अवरोधों के शिखर मिलेंगे
कुछ रोकेंगे राहें तेरी
कुछ यत्नों से तुझे छलेंगे
दृढ़ता को हथियार बनाकर
शांतचित्त बस चलते रहना
जीवन पथ कब रहा सुगम ये
शनैः शनैः बस बढ़ते रहना।।

तेरे शब्दों में कितने ही
शब्द जोड़ कर तुझे छलेंगे
तेरे अंतस को छलनी कर
बन तेरे मनमीत मिलेंगे
मन को ही तू ढाल बना ले
मन के गीतों में ही बहना
जीवन पथ कब रहा सुगम ये
शनैः शनैः बस बढ़ते रहना।।

यहाँ मृत्यु से पूर्व तुझे वो
तेरे सपनों को मारेंगे
मार सके न चरित्र जो तेरे
तुझे पंथ से भटकाएँगे
रहा कौन चिरकाल यहाँ पर
अवसादों में क्यूँ कर रहना
जीवन पथ कब रहा सुगम ये
शनैः शनैः बस बढ़ते रहना।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        24दिसंबर, 2021


मुझको मेरा गाम न मिलता।

मुझको मेरा गाम न मिलता। 

कैसे कह दूँ इस जीवन के
मूल पंथ से भटक गया हूँ
कैसे मैं स्वीकारूँ बोलो
मूल मंत्र से भटक गया हूँ
यदि बोझिल शामें होती तो
सुबह को भी मान ना मिलता
छोटे से जीवन में बोलो
मौन भला मैं कब तक रहता।।

जब भी पथ पर चला मचलकर
पथ के सब शूल हटाया है
थे पाँवों में वो चुभे मगर
नहीं मैंने अश्रु बहाया है
मगर चोट जो खायी दिल पर
तुमसे ना तो किससे कहता
छोटे से जीवन में बोलो
मौन भला मैं कब तक रहता।।

रात अँधेरी कदम कदम पर
दिनकर पर प्रश्न उठाया है
नहीं मिली पर राह उसे जब
उससे ही आस लगाया है
आशायें ना टूटी होतीं
तानों में अपमान न होता
दूर नहीं जो होता तो फिर
लाचार भला कब तक रहता।।

मैंने घर घर दरबारों में
शकुनी का मन पलते देखा
निज सपनों अरु स्वार्थ मोह में
हस्तिनापुर को जलते देखा
झूठ नहीं फलता बोलो यदि
सत्य को अपमान ना मिलता
कब तक घुटता मन ही मन में
मौन भला मैं कब तक रहता।।

नहीं चाह सत्ता को कोई
नहीं कामना, चाहत कोई
प्रेम पाश में बँधा रहूँ मैं
इसी आस में आँख न सोई
बोझिल आँखों के सपने ले
रात रात जो यूँ ही जलता
जीवन के इस कुरुक्षेत्र में
मुझको मेरा गाम न मिलता।।

 ©✍️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद 
       23दिसंबर, 2021

गीतों को न भूल जाना।

गीतों को न भूल जाना।  

चुन चुन कर के शब्द शब्द
नवगीत मैंने है बनाया
और पिरोया भावों को 
फिर छंद को मैंने रिझाया
तब लिखे कुछ गीत हमने
मृदु आस का भरकर खजाना
है यही अनुरोध तुमसे
उन गीतों को न भूल जाना।।

सूर्य का पथ थक चले जब
अरु रश्मि ओझल हो रही हो
उम्र के उस मोड़ पर जब
ये साँस बोझल हो रही हो
भावनाओं को समझ कर
प्रीत से भरना खजाना
है यही अनुरोध तुमसे
उन गीतों को न भूल जाना।।

हम चले थे गीत लेकर
इस जगत के मन को रिझाने
मौन को आवाज देकर
प्रिय कामनाओं को सजाने
जो लगी ठोकर जगत से
उसको यहाँ फिर क्या दिखाना
है यही अनुरोध तुमसे
उन गीतों को न भूल जाना।।

साथ में कितने चले थे
पीछे कितने छूट गये हैं
मील के पत्थर सभी वो
कैसे कह दूँ रूठ गये हैं
चाह यश की कब मुझे थी
और कब थी कोई कामना
है यही अनुरोध तुमसे
उन गीतों को न भूल जाना।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        23दिसंबर, 2021

प्रेम का प्रसार।

प्रेम का प्रसार।   

परबतों को चूमती मौसमों की तितलियाँ
सुरीली तान छेड़ती हवाओं की नर्मियाँ
सौम्यता के भावों का प्रेम का प्रसार है
अभिसार को व्यग्र हैं झूमती ये बदलियाँ।।

अंक में प्रकृति के ये पुण्य चमत्कार है
छू रहा जो भावों को प्रेम का प्रसार है।।

पंछियों के कलरवों से गूँजती वादियाँ
नदियों के प्रवाह में झूमती ये वादियाँ
पर्वतों के वृक्षों पर ये सूर्य की मधुर छुअन
शून्यता को भर रही हैं प्रेम की क्यारियाँ।।

पंथ पंथ पुण्य है भावों का श्रृंगार है
छू रहा जो भावों को प्रेम का प्रसार है। 

खोल चक्षु के पटों को देख आ रहा जो कल
शांत चित्त भाव हों ये पुण्यता ना हो विकल
अंक अंक प्रीत है अरु शब्द शब्द गीत है
सुन, गा रही हैं रश्मियाँ बादलों से निकल।।

अंतर्मन में गूँजता गीता का सार है
छू रहा जो भावों को प्रेम का प्रसार है।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        22दिसंबर, 2021

तुम भी बाहर आकर देखो।

तुम भी बाहर आकर देखो।  

रह रह सूरज छिपा गगन में
संझा का मन डोला है
तुम भी बाहर आकर देखो
चाँद गगन में निकला है।।

कब तक उलझे उलझे रहकर
मन अपना भटकाओगे
कब समझोगे मन भावों को
कब फिर खुद को पाओगे।।

आज मिलो फिर खुद ही देखो
मौसम बदला बदला है
तुम भी बाहर आकर देखो
चाँद गगन में निकला है।।

बँधकर कितने चक्रव्यूह में
गुमसुम गुमसुम रहते हो
आकाशों के घुप्प अँधेरे
पलकों में ले सहते हो।।

खोल पलक को मौन पलों से
जीवन बदला बदला है
तुम भी बाहर आकर देखो
चाँद गगन में निकला है।।

अधरों पर हैं बातें कितनी
आकुल बाहर आने को
अरु दर्पण में जो छवि दिख रही 
व्याकुल बाहर आने को।।

छोड़ो सारे किंतु परंतु को
मौसम पिघला पिघला है
तुम भी बाहर आकर देखो
चाँद गगन में निकला है।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        21दिसंबर, 2021

मेरे मन की अकथ व्यथा।

मेरे मन की अकथ व्यथा।  

मेरे मन की अकथ व्यथा पर 
तुम कहो क्या अश्रु बहाओगे।।

सागर की गहराई को क्या 
किरणें नाप सकी हैं बोलो
उसके अंतस की हलचल को
लहरें क्या जान सकीं बोलो
तटबंधों को मिले घाव को
फिर कैसे तुम झुठलाओगे
मेरे मन की अकथ व्यथा पर 
तुम कहो क्या अश्रु बहाओगे।।

रातों के उस अँधियारे का
घाव भला किसने देखा है
चंदा की उस शीतलता में
भाव जला किसने देखा है
गिरी दामिनी आशाओं पर
अब कैसे तुम दिखलाओगे
मेरे मन की अकथ व्यथा पर 
तुम कहो क्या अश्रु बहाओगे।।

मन ठहरा उन्मुक्त यहाँ पर
बंधन में कब बँध पाया है
कितने गीत लिखे जीवन ने
क्या अधरों ने सब गाया है
अधरों पर क्यूँ गीत रुके वो
कहो यहाँ क्या कह पाओगे
मेरे मन की अकथ व्यथा पर 
तुम कहो क्या अश्रु बहाओगे।।

भूल गये जो प्रीत पुरानी
साथ भला क्या दे पायेंगे
जिसने मन का दर्द ना समझा
साथ भला क्या चल पायेंगे
छोड़ गये जब बीच राह में
फिर कैसे तुम अपनाओगे
मेरे मन की अकथ व्यथा पर 
तुम कहो क्या अश्रु बहाओगे।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       19दिसंबर, 2021

नव विहान।

नव विहान।   

भले तेज धार हो घोर अंधकार हो
चल रही बयार हो द्वार पर प्रहार हो
शब्द में घाव हो या चल रहे दाँव हो
तुम निडर हो डटो तेरी यही आन है
तेरा विश्वास ला रहा नव विहान है।।

हो सफल प्रार्थना है बस यही कामना
पूर्ण हो साधना लिए मन में भावना
तुम चलो पंथ पर न कोई व्यवधान हो
है अटल भावना तो शून्य में प्राण है
तेरा विश्वास ला रहा नव विहान है।।

पुण्य ये पंथ हो अरु पुण्य ये ग्रंथ हो
तेरे अधरों पे बस जीत का मंत्र हो
दूर कर पंथ के सारे अवरोधों को
कि मुट्ठी में तेरे खुला आसमान है
तेरा विश्वास ला रहा नव विहान है।।

तेरे हर लक्ष्य में बस धर्म का मान हो
तेरे मन भावों में कर्म ही महान हो
राष्ट्र का भाव हो ना कोई प्रभाव हो
अब लिख रहा जीत का तू नया गान है
तेरा विश्वास ला रहा नव विहान है।।

©®अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       18दिसंबर, 2021



जज्बात में।

जज्बात में।  

प्रेम का पथ मिला तुमसे सौगात में
यूँ लगा चाँदनी घुल गयी रात में।।
जब भी तुमसे मिले द्वार मन के खुले
तारे संग संग चले चाँदनी रात में।।
मन ने मन से कहा तन ने तन से कहा
रूप सजने लगे बात ही बात में।।
शब्द का अर्थ हो भाव का मर्म हो
गीत रचने लगे प्रीत के गात में।।
तन भी भींगा यहाँ मन भी भींगा यहाँ
प्रेम की मखमली आज बरसात में।।
तुम कहो ना कहो हमने सब सुन लिया
पलकों से जो बहे अश्रु जज्बात में।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        17दिसंबर, 2021


लेखनी बस याद रखना व्याकरण ना भूल जाये।

लेखनी बस याद रखना व्याकरण ना भूल जाये।   

शब्द कितने ही जगत में गीत का मधुवन सजाते
लेखनी बस याद रखना व्याकरण ना भूल जाये।।

हर तरफ फैली हुई है गीत की मृदु कल्पनायें
शब्दों में उतरी हुई मन की सारी भावनायें
अब हो विरह के गीत या फिर हो मिलन के पलों का
सौम्य भावों में सिमटते शब्द की हों कामनायें।।

संतुलित हैं शब्द जो वो पंक्तियों को हैं सजाते
लेखनी बस याद रखना व्याकरण ना भूल जाये।।

शब्द की ना भूमिका जो भावनाओं को नकारे
क्या लिखेगा गीत फिर जो शब्द ही ना हों सहारे
जो शून्यता हो भाव में प्रेम भी जीवंत ना हो
फिर रुकेगी नाव कैसे प्रेम की नदिया किनारे।।

कोशिशें ही गीत की पुण्य आत्मा को हैं खिलाते
लेखनी बस याद रखना व्याकरण ना भूल जाये।।

पूज्य हैं सब शब्द सारे पृष्ठ पर जो भी छपे हैं
हैं समर्पित भाव सारे गीत में जो भी सजे हैं
हो सहज संयोग या फिर संप्रेष्य की पृष्ठभूमी
जो लिखे हों गीत में वो मुक्त भावों में दिखे हैं।।

सत्य अरु संयोग सारे हृदय में है खिलखिलाते
लेखनी बस याद रखना व्याकरण ना भूल जाये।।

©®✍️अजय कुमार पाण्डेय
           हैदराबाद
           16दिसंबर, 2021

भाव पनपे नये प्रीत के गात में।

भाव पनपे नये प्रीत के गात में।  

चाँदनी रात में चाँद के साथ में
भाव की ओढ़नी ओढ़ कर माथ पे
अंक में शब्द आकर ठहर यूँ गये
भाव पनपे नये प्रीत के गात में।।

चाँदनी ओढ़ कर प्रीत ऐसे मिली
पुष्प की पाँखुरि जैसे हो अधखुली
तुम मिले भाव चन्दन महकने लगा
यूँ लगा स्वयं से रात खुशियाँ मिली।।

आलिंगन में परछाईयाँ घुल गयीं
भाव पनपे नये प्रीत के गात में।।

पाँव की झाँझरें गीत गाने लगीं
हाथ की चूड़ियाँ गुनगुनाने लगीं
बिंदिया ने इशारे से सब कह दिया
प्रीत की कोंपलें लहलहाने लगीं।।

रूप के ताप से रात यूँ ढल गयी
भाव पनपे नये प्रीत के गात में।।

रात की रश्मियाँ भी पिघलने लगीं
भाव की बदलियाँ जब मचलने लगीं
थम गया वक्त भी प्रीत के अंक में
जिन्दगी बंदगी में बदलने लगी।।

यूँ मिले खिड़कियाँ खुल गयी रात की
भाव पनपे नये प्रीत के गात में।।

©®✒️अजय कुमार पाण्डेय
            हैदराबाद
            15दिसंबर, 2021

पुनर्मिलन के उस पल में।

पुनर्मिलन के उस पल में।  

पुष्प अहसासों के खिले हो गये जीवंत सपने
साँझ के धुँधलके में बाद बरसों के जब हम मिले।।

थे चित्र कितने नाच उठे उस रोज मानस पटल पर
मौन क्या कुछ कह गये थे बंद अधरों ने मचल कर
उस घड़ी सूने डगर पर इक कारवाँ था चल पड़ा
रिश्तों की खामोशियों की बर्फ बिखरी थी पिघलकर।।

मौन पल में भाव सारे फिर लगे नवगीत रचने
साँझ के धुँधलके में बाद बरसों के जब हम मिले।।

गोधूलि बेला में क्षितिज पर सूर्य देखो झुक रहा
मृदु रात की आगोश में हो शांत देखो छुप रहा
बन रहे हैं भाव कितने पल पल मृदुल स्पंदनों के
और ऋतुओं की छमक में पिय भाव हिय के झुक रहा।।

भावनाओं की शिला पर वो शब्द सब छपने लगे
साँझ के धुँधलके में बाद बरसों के जब हम मिले।।

चाँदनी किरणें मचलकर श्रृंगार फिर करने लगीं
अरु पुष्प अधरों से झरे तो शून्यता भरने लगी
भर लिया भुजपाश में पल गीत कुछ मचले वहाँ पर
मन की वीणा में मधुर सी तरंगिनी बजने लगी।।

पंखुरी फिर तब झरे थे पुष्प की मंदाकिनी से
साँझ के धुँधलके में बाद बरसों के जब हम मिले।।

था वो कोई स्वप्न या फिर पूर्ण तपस्या हुई थी
या मिला वरदान मुझको जो पूर्व में खोई हुई थी
स्वाति की बूँदें पड़ीं जब भावनाओं की धरा पर
जग उठी संवेदनाएँ जो कभी सोई हुई थी।।

भाव सब खिलने लगे थे जो रचे थे कल्पना ने
साँझ के धुँधलके में बाद बरसों के जब हम मिले।।

©®✍️अजय कुमार पाण्डेय
           हैदराबाद
           14दिसंबर, 2021



मुक्तक- संघर्ष, हौसला, लक्ष्य।

मुक्तक- संघर्ष, हौसला, लक्ष्य।  

जिंदगी का पथ आसान बना लेते हैं
दर्द कैसा हो मुस्कान बना लेते हैं
जो पुण्य पथिक हैं इस संघर्ष मार्ग के
काँटों में भी पहचान बना लेते हैं।।

ये माना जिंदगी आसान नहीं होती
मेहनत कोई हो अनाम नहीं होती
जो यदि हौसला हो कुछ कर गुजरने का
तो कोई मंजिल गुमनाम नहीं होती।।

माना जिंदगी हर कदम एक इम्तिहान है
पर तेरे कदमों में ही तो आसमान है
अब जला ले अपने हौसलों के चिराग तू
फिर तिरे लक्ष्य में कहाँ कोई व्यवधान है।।

©®✍️अजय कुमार पाण्डेय
           हैदराबाद
          10दिसंबर, 2021




ना रुकना तू लक्ष्य का संधान कर।।




यादों के पन्ने।

यादों के पन्ने।  

एक बंजारा तेरे शहर में देख यहाँ फिर आया है
भूली बिसरी यादों के कुछ पन्ने संग संग लाया है।।

गीतों की कुछ मौन पँक्तियाँ
कविताओं के सूने अक्षर
यादों के मानसरोवर के
वो लहराते कितने मंजर
बीते पल के गलियारों से कुछ पल के टुकड़े लाया है
भूली बिसरी यादों के कुछ पन्ने संग संग लाया है।।

स्मृतियों के व्योम पटल पर
अलिखित एक अधूरी सूची
बीते कल के जिन चित्रों में
रंग नहीं भर पायी कूची
अधूरे चित्रों की शेष स्मृतियाँ संग में लेकर आया है
भूली बिसरी यादों के कुछ पन्ने संग संग लाया है।।

जीवन के वो मृदु पल जिसमें
दो अनजाने मिले कभी थे
गीतों की सरगम के जैसे
अंतर्मन को बहलाये थे
जीवन के उन मृदुल पलों के कुछ भाव सुनहरे लाया है
भूली बिसरी यादों के कुछ पन्ने संग संग लाया है।।

संस्मरणों के नील कमल के
भाव हृदय में अब तक जीवित
मौन मचलती इच्छाओं के
उन भावों को कर के सीमित
संस्मरणों के उस नील कमल की कुछ पंखुड़ियाँ लाया है
भूली बिसरी यादों के कुछ पन्ने संग संग लाया है।।

©®✍️अजय कुमार पाण्डेय
           हैदराबाद
           10दिसंबर, 2021

भारत गीत।

भारत गीत।  

गीत लिखूँ क्या तुझपे बोलो
शब्दों में इतनी जान नहीं
तुझ पर कोई छंद लिखूँ
छंदों की भी पहचान नहीं
तू है तो है ये दुनिया मेरी
तुझसे ही मेरी आन है
देश मेरे ऐ देश मेरे
तू ही तो मेरी जान है।।

तेरे आँचल में जन्म लिया
तेरा ही तो मैं जाया हूँ
कितने जन्मों का पुण्य फला
तब जाकर तुझको पाया हूँ
ये जीवन तुझपर अर्पण है
 तू है तो मेरी शान है
देश मेरे ऐ देश मेरे
तू ही तो मेरी जान है।।

गंगा जमुना की लहरों से
जीवन मेरा ये सिंचित है
शीश हिमालय ताज मेरा
मैं कैसे कहूँ कि किंचित है
दिनकर की किरणों के जैसा
श्वेत प्रखर ईमान है
देश मेरे ऐ देश मेरे
तू ही तो मेरी जान है।।

खेत खेत में सोना उपजे
त्याग समर्पण क्यारी क्यारी
गाँव शहर गलियों में गूँजे
राष्ट्रप्रेम वाली अग्यारी
पुण्य भाव से संचित मन है
ऊँची तेरी शान है
देश मेरे ऐ देश मेरे
तू ही तो मेरी जान है।।

शिक्षा संस्कृति और सभ्यता
तुझसे ही सब फलित हुईं
ज्ञान कला विज्ञान धरोहर
तुझसे सब पल्लवित हुईं
पुण्य भावना धर्म परायण
तू ही तो वेद पुराण है
देश मेरे ऐ देश मेरे
तू ही तो मेरी जान है।।

है यही प्रार्थना ईश्वर से
रहती दुनिया तक मान रहे
सूर्य चंद्र दुनिया में जब तक
कण कण तेरा गुणगान रहे
प्राण वायु है दुनिया की तू
तुझसे दुनिया की शान है
देश मेरे ऐ देश मेरे
तू ही तो मेरी जान है।।

हो चरणों में जीवन अर्पित
बस इतना चाहने वाला हूँ
तेरा प्यार मिला है मुझको
मैं कितना नसीबों वाला हूँ
मेरे लहू के कण कण को
तुझसे ही मिलती जान है
देश मेरे ऐ देश मेरे
तू ही तो मेरी जान है।।

©®✍️अजय कुमार पाण्डेय
           हैदराबाद
           09दिसंबर, 2021







तुम मिले जिंदगी मुस्कुराने लगी।

तुम मील जिंदगी मुस्कुराने लगी।  

जिंदगी का सफर था अधूरा यहाँ
तुम मिले जिंदगी मुस्कुराने लगी।।

गीत अधरों पे आकर मचलने लगे
छंद की पालकी गुनगुनाने लगी
जिंदगी का सफर था अधूरा यहाँ
तुम मिले जिंदगी मुस्कुराने लगी।।

राह में पुष्प ने मखमली पथ लिखे
चूम कर तेरे पाँवों को जीवन लिखे
शाख पेड़ों की झुक अगवानी करी
नव पात ने प्रीत के गीत नूतन लिखे
छू के कदमों के तेरे मचलते निशाँ
राह की दूब भी खिलखिलाने लगी
जिंदगी का सफर था अधूरा यहाँ
तुम मिले जिंदगी मुस्कुराने लगी।।

तुम जो आये तो उपवन महकने लगा
मेरे जीवन का मधुवन बहकने लगा
रंग जीवन में ऐसे भरे प्यार के
कि मेरा जीवन समूचा बदलने लगा
गीत कलियों ने लिखे यूँ उल्लास के
रश्मियाँ झूम कर गुनगुनाने लगीं
जिंदगी का सफर था अधूरा यहाँ
तुम मिले जिंदगी मुस्कुराने लगी।।

प्रीत का पंथ तुमसे यूँ रोशन हुआ
अपने अधरों से तुमने जो इनको छुआ
कह गयी बात दिल की ये पुरवाई जब
चेहरा खिल कर तुम्हारा गुलाबी हुआ
अंक में गीत ऋतुओं के मधुमास के
ये चाँदनी भी मचल गीत गाने लगी
जिंदगी का सफर था अधूरा यहाँ
तुम मिले जिंदगी मुस्कुराने लगी।।

©®✍️अजय कुमार पाण्डेय
           हैदराबाद
           08दिसंबर, 2021







बात हृदय की।

बात हृदय की।  

जाने प्रेम की कथाएँ यूँ सिमट कर रह गयीं
कुछ को मिली मंजिल यहाँ कुछ बिखर कर रह गयीं
है यहाँ पर इक कहानी जो कहो कह दूँ प्रिये
बात जो निकले हृदय से गूँजती कल तक रहे।।

प्रेम के कुछ पुष्प चुन पंथ हमने है सजाये
भाव के व्योम पर हमने लिखी कितनी कथायें
और फिर कितनी लिखी है काव्य में नव भूमिका
गीत में ढल शब्द वो पंक्तियों में मुस्कुराये।।

मुस्कुराये शब्द जो भी तुम कहो कह दूँ प्रिये
बात जो निकले हृदय से गूँजती कल तक रहे।।

वाटिका में हृदय के पिय भाव सुंदर सज रहे
प्रिय अधरों पर तुम्हारे गीत मेरे जँच रहे
कामना अब है यही के मैं प्रेम को नव गान दूँ
और फिर वो कहूँ जो कृष्ण से राधा ने कहे।।

कभी दूर तुमसे न रहें स्वप्न पलकों के प्रिये
बात जो निकले हृदय से गूँजती कल तक रहे।।

फिर चलो इस पंथ पर हम रीत कुछ नूतन रचें
प्रेम के विश्वास के अनुप्रास से पन्ने सजें
जोड़ कर अध्याय नव पीढ़ियों का पथ सँवारे
और रचें नव रीत जो भी इतिहास के पन्ने सजें।।

शब्द के व्योम पर गूँजे गीत सदियों तक प्रिये
बात जो निकले हृदय से गूँजती कल तक रहे।।

©®✒️अजय कुमार पाण्डेय
           हैदराबाद
           07दिसंबर, 2021

जीवन अपना बहला लेना।

जीवन अपना बहला लेना।  

दो पल जीवन की आशा के
ना जाने कब मिट जायेंगे
आज मिले हैं जीवन पथ में
दूर कहाँ तक चल पायेंगे
क्षणभंगुर है जीवन अपना
कल जाने सब मिट जाना है
मिटने से पहले जीवन के
कुछ गीत मनोहर गा लेना
मन में प्रियवर भाव सजा कर
जीवन अपना बहला लेना।।

जीवन में पग पग पर तुमको
फूल मिलेंगे शूल मिलेंगे
रिश्तों के ये महासमर भी
कभी प्रेम तो कभी छलेंगे
पग पग राहें नहीं मखमली
काँटों की शैय्या भी होगी
जीवन के इस कटू सत्य को
अपने मन को समझा लेना
मन में प्रियवर भाव सजा कर
जीवन अपना बहला लेना।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        06दिसंबर, 2021

काव्य में नव भाव रच तूलिका ने सम्मान पाया।

काव्य में नव भाव रच तूलिका ने सम्मान पाया।  

क्रोंच पक्षी के रुदन को काव्य का इक रूप देकर
मौन आँसू जो गिरे थे भाव को इक रूप देकर
कुछ पंक्तियों में सिमटकर दर्द ने नव गान पाया
काव्य में नव भाव रच तूलिका ने सम्मान पाया।।

दर्द भावों में उभरकर नव गीत बनकर छा गये
गीत अधरों से उतरकर नव काव्य बनकर छा गये
पंक्ति का आकार पाकर सब भावनायें खिल गयीं 
जो रचे उसे रोज हिय ने दर्द बनकर छा गये।।

शब्द का श्रृंगार पाकर दर्द को सबका बनाया
काव्य में नव भाव रच तूलिका ने सम्मान पाया।।

जो थे घुटन मन में कहीं वो भाव पन्नों पर लिखे
अरु शब्द के हर उस चुभन के घाव पन्नों पर लिखे
लिख दिये प्रतिरोज जाने पीर जीवन के पलों की
बाकी जो भी रह गया वो दर्द पलकों पर दिखे।।

भाव को विस्तार देकर गीत को सबका बनाया
काव्य में नव भाव रच तूलिका ने सम्मान पाया।।

गीत में जीवन सुरों के वो राग सारे लिख दिये
नेह के सुंदर पलों के पिय राग सारे लिख दिये
लिख दिये नव गीत कितने मन लुभाती कामना के
राग को सम्मान देकर नव प्रीत का पथ रच दिये।।

साज का नव सुर सजाकर गीत ने सोपान पाया
काव्य में नव भाव रच तूलिका ने सम्मान पाया।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        05दिसंबर, 2021


रोज खुद को ढूँढता हूँ।

रोज खुद को ढूँढता हूँ।  

कौन हूँ मैं प्रश्न ये प्रतिरोज खुद से पूछता हूँ
आस की उँगली पकड़कर मुश्किलों से जूझता हूँ
ताप से तपती धरा पर हौसलों की पौन लेकर
सच कहूँ तब इस शहर में रोज खुद को ढूँढता हूँ।।

चाहता हूँ मैं लिखूँ नव गीत जीवन के सुरों पर
चाहता हूँ मैं गढूं आज चित्र नूतन पत्थरों पर
तराशता वजूद अपना पत्थरों की आड़ लेकर
सच कहूँ तब इस शहर में रोज खुद को ढूँढता हूँ।।

इस कदर खामोशी कैसी शोर की महफ़िल में बोलो
लगता साये खड़े हों दौड़ती राहों में बोलो
साँझ की आड़ में जब गुमनाम हो साये छुप गये
सच कहूँ तब इस शहर में रोज खुद को ढूँढता हूँ।।

देखते हर रोज खुदको सुबह से लेकर साँझ तक
कह न पाये बात दिल की खुद से नहीं क्यूँ आज तक
सालता है मौन जब भी भीड़ की तनहाइयों में
सच कहूँ तब इस शहर में रोज खुद को ढूँढता हूँ।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        05दिसंबर, 2021

हैं अधूरे प्रश्न तो फिर उत्तरों की आस क्यूँ।

हैं अधूरे प्रश्न तो फिर उत्तरों की आस क्यूँ।।

क्या लिखूँ फिर आज बोलो शब्द अपनी तूलिका से
क्या गढूं फिर आज बोलो भाव मैं निज भूमिका के
जिंदगी में प्रश्न कितने बढ़ रहे हर रोज लेकिन
जो हैं अधूरे प्रश्न तो फिर उत्तरों की आस क्यूँ।।

है दृष्टि का ये दोष या फिर स्वयं ही सब गिर गये
जो फूल मुरझाये नहीं थे शाख से क्यूँ गिर गये
था हवा का जोर या कमजोर डाली थी वहाँ की
इक झोंक भी जो सह सके ना टूट कर जो गिर गये।।

जो गिर गये हों स्वयं से ही फिर हवा से रार क्यूँ
जो हैं अधूरे प्रश्न तो फिर उत्तरों की आस क्यूँ।।

जो थे हृदय के भाव जब अंक में डूबे सिमटकर
व्यक्त भी जब कर सके ना शब्द अधरों पर निखरकर
मोल क्या रहता कहो फिर अनुबंध का विश्वास का
भाव ही जब गिर गये हों पंक्तियों से ही बिखरकर।।

जब पंक्तियों से भाव बिखरे साज से फिर रार क्यूँ
जो हैं अधूरे प्रश्न तो फिर उत्तरों की आस क्यूँ।।

है यामिनी की गोद में जो सूर्य जा कर ढल गया
है नियत ये पूर्व से कैसे कहो कोई छल गया
धुँधलके में बात कोई रह गयी माना सिमटकर
है फिर समय का दोष कैसा जो हृदय को खल गया।।

अब जो नियति में है लिखित उस बात से फिर रार क्यूँ
जो हैं अधूरे प्रश्न तो फिर उत्तरों की आस क्यूँ।।

पंक्ति के विन्यास में कई शब्द अधूरे रह गये
कल तलक जो साथ थे माना छोड़ तुझको बढ़ गये
प्रतिबिम्ब अपना कब रहा है सूर्य के ढलने बाद
क्या हुआ कुछ स्वप्न तिरे पलकों से माना झर गये।।

चल नया फिर स्वप्न बुन तू अब पूर्व से ये रार क्यूँ
जो हैं अधूरे प्रश्न तो फिर उत्तरों की आस क्यूँ।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        04दिसंबर, 2021


सप्तपद- मौन अधरों के गीत।

सप्तपद- मौन अधरों के गीत।  

जिंदगी के मोड़ पर जब नव प्रीत की आस लिए
कुछ बंधनों को छोड़ एक नया विश्वास लिए
भोर की पहली किरण से भाव मुस्काने लगे
मौन अधरों पर सज शब्द गीत बन छाने लगे।।

अंजुली भर कर नीर ले पुण्य का आशीष ले
मंत्रों के उचार में मृदु कामना की प्रीत ले
अक्षतों का रंग ले और कर पुष्प की पाँखुरी 
आस का आकाश ले ओढ़ माथ लाल चूनरी
यज्ञ के ज्वाल में मुख खिला जैसे स्वर्ण का कमल
भाव का विस्तार में समाहित हो गया हो पल
उस एक पल में ही सारे सत्य सिमटने लगे
मौन अधरों पर सज शब्द गीत बन छाने लगे।।

रात के आकाश में झूमे चाँद की चाँदनी
लाज के अंक में सिमटी जा रही है मोहनी
तारे गगन के सभी बाराती बन झूम रहे
झूम रश्मियाँ चाँद की कपोलों को चूम रहे
मस्त मस्त सी पवन शुभ गीत यहाँ गा रही
रात रानी खिल गयी मन भाव को महका रही
ओस की मृदुल छुअन में भाव गुनगुनाने लगे
मौन अधरों पर सज शब्द गीत बन छाने लगे।।

देख मृदुल रूप कितने स्वप्न नव मचलने लगे
नैन के कोरों पे कितने भाव थिरकने लगे
थरथराते होठों से सप्तपदों को बाँचना
रश्मि किरणों में लिपट कर झिलमिलाती कामना
रूप के श्रृंगार की साकार होती कामना
यूँ लगे जैसे देव भी कर रहे हों याचना
इक नया उत्साह मन के भाव महकाने लगे
मौन अधरों पर सज शब्द गीत बन छाने लगे।।

सप्तपदी का वचन विश्वासों का आधार है
नेह का आकाश है अरु प्रेम का आधार है
कृष्ण का ये प्रेम है श्री राम का ये आस है
रुक्मिणी का पत्र है अरु सीता का विश्वास है
अंजुली में समाये वो प्रीत का आकाश है
प्रेम के मृदु ग्रंथ के प्रिय शब्द का अनुप्रास है
दसों दिशाएं झूम झूम गीत प्रिय गाने लगे
मौन अधरों पर सज शब्द गीत बन छाने लगे।।

भोर की पहली किरण ने शब्द हौले से कहा
है ये नव श्रृंगार के पल कानों में आकर कहा
मिल लिखेंगे गीत नव जिंदगी के मृदु पलों के
प्रेम के विश्वास के अर्पण का नव संकल्प लें
चाँद तारे धरती गगन सब आज साक्षी बने
वेद मंत्रों ऋचाओं में भाव आकांक्षी बने
सप्तपदी के वचन सभी झूम कर गाने लगे
मौन अधरों पर सज शब्द गीत बन छाने लगे।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        03दिसंबर, 2021

गीतों में सारा समंदर लिखूँ।

गीतों में सारा समंदर लिखूँ।  

चाँदनी रात हो तारों का साथ हो
प्रीत की रागिनी से मुलाकात हो
कुछ दिल में मेरे कुछ दिल में तेरे
जो कही ना गयी आज वो बात हो।।

शब्द तेरे मधुर छाँव में पल रहे
बनकर दीपक अँधेरों में जल रहे
राह रोकेगी क्या मुश्किलें मेरी
साथ मेरे कदम जब तिरे चल रहे।।

नींद की गोद में स्वप्न के पंख हों
रात की गोद में जश्न का रंग हो
गीत जो भी रचे चाँदनी प्यार से
पंक्तियों में सभी प्रीत का संग हो।।

प्राण का है प्रण गीतों में कुछ लिखूँ
शब्द में पंक्ति में भाव सुंदर लिखूँ
लिखूँ जो भी वो गूँजे आकाश में
अरु गीतों में सारा समंदर लिखूँ।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        01दिसंबर, 2021

मौन मृदु रस घोलता है।

मौन मृदु रस घोलता है। 

गीत के हर शब्द में जब
भाव की अँगड़ाइयां हों
और तेरी राह में जब
पुण्य की परछाइयाँ हों
तब मुखर हो गीत मन का
बात दिल की बोलता है
और जीवन के पलों में
मौन मृदु रस घोलता है।।

जब व्यथा के गीत में भी
प्रिय शब्द का संचार हो
जब हृदय की भावना में
प्रिय नेह का संसार हो
तब मुखर हो प्रीत मन से
भाव के पट खोलता है
और जीवन के पलों में
मौन मृदु रस घोलता है।।

जब नजारे झूम कर के
गीत की महफ़िल सजायें
जब सितारे झूम कर के
रात का आँचल सजायें
तब मुखर हो रश्मियाँ ये
गीत में रस घोलती हैं
और जीवन के पलों में
मौन मृदु रस घोलती हैं।।

जब हृदय की भावनायें
मुक्त होकर गीत गाये
जब मचलती कामनायें
प्रीत को भी जीत जायें
तब मुखर हो गीत मन के
कान में रस घोलता है
और जीवन के पलों में
मौन मृदु रस घोलता है।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        30नवंबर, 2021

खुद से दिल बहला लेना।

खुद से दिल बहला लेना।  

जब कोई तेरी बात सुने ना
मन से बातें कर लेना
जब बात किसी से कह ना पाओ
खुद से बातें कह लेना।।

ये माना कितनी बात हृदय में
तेरे घर कर बैठी है
ये माना कितने भाव हृदय में
गहरे छुपकर बैठी है।।

जब मन के भाव निकल ना पायें
खुद को तब दिखला लेना
जब कोई तुझसे बात करे ना
खुद से दिल बहला लेना।।

क्यूँ जली जा रही रात सुनहरी
तारे भी क्यूँ गुमसुम हैं
क्यूँ पिघल रही है शबनम ऐसे
लगता खुद से अनबन है।।

पिय मन का सूनापन समझा कर
खुद से प्रीत लगा लेना
जब तेरा कोई मीत बने ना
खुद को मीत बना लेना।।

फिर नेह किसी से क्या होगा जब
खुद से नेह नहीं होगा
अरु मोह किसी से क्या होगा जब
खुद से मोह नहीं होगा।।

जग से नेह लगाने से पहले
खुद से नेह लगा लेना
जब कहीं अकेलापन तड़पाये
खुद को तुम अपना लेना।।

इस जीवन का ये भेद समझ लो
मन के दर्द कहीं न खोलो
यदि जग से तुझको गरल मिला है
खुशी खुशी उसको पी लो।।

कोई अश्रु पोंछने वाला न हो
खुद ही गले लगा लेना
अरु अपने गीतों में जीवन के
सारा मर्म छुपा लेना।।

जब कभी अकेलापन तड़पाये
खुद से दिल बहला लेना।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        30नवंबर, 2021




मन करता नित नूतन नर्तन।

मन करता नित नूतन नर्तन।  

तुम्हें देख कर भाव जगे मन करता नित नूतन नर्तन
जैसे मधुवन में करता है भँवरा नित नूतन गुंजन।।

पड़े रश्मि किरणें पुष्पों पर ऐसा रूप तुम्हारा है
खिली खिली कलियों ने जैसे लगता रंग निखारा है
अधरों के कंपन ने जैसे राग भैरवी गायी है
बादल के झुरमुट से जैसे धूप सुनहरी आयी है।।

मेरा मन आह्लादित करता रंग रूप का ये संगम
जैसे मधुवन में करता है भँवरा नित नूतन गुंजन।।

तेरे कदमों की आहट से धरती भी बलखाती है
उड़े धूल चंदन बन कर के उपवन को महकाती है
तेरी परछाईं से छूकर पिय मृदु भाव पनपते हैं
जैसे भोजपत्रों पर कोई गीत नया लिख जाती है।।

तेरे नुपुरों से सजता है निज मन का सूना आँगन
जैसे मधुवन में करता है भँवरा नित नूतन गुंजन।।

रति पति के सब भाव मनहरे तेरी पलकों में सजते
नख से शिख तक जो भी पहने तुझ पर हैं सारे सजते
दृष्टि भाव के छुअन मात्र से सिहरन मन में आती है
नया अर्थ पाता है जीवन जब जब हम तुझसे मिलते।।

तेरे मेरे मन भावों का जाने कैसा है संगम
जैसे मधुवन में करता है भँवरा नित नूतन गुंजन।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        29नवंबर, 2021

मेरा अस्तित्व।

मेरा अस्तित्व।

एक प्रश्न उछला कहीं से थी कहीं उसमें रवानी
पूछने मुझसे लगा मेरे अस्तित्व की कहानी।।

कौन हूँ मैं कौन हो तुम प्रश्न अहर्निश चल रहा है
सबके मन में भावों में द्वंद जैसे पल रहा है
है कोई एहसास या फिर भावनाओं की छुअन
प्रश्न का आकार ले जो स्वयं से ही मिल रहा है।।

नित्य गहराती घनेरी परतों की यहाँ पर बदलियाँ
पूछने मुझसे लगीं मेरे अस्तित्व की कहानी।।

स्वयं में क्या पूर्ण है या पूर्णता की क्या निशानी
कह सका है कौन बोलो पूर्णता अपनी जुबानी
सबके अपने भाव हैं और सबकी अपनी जिंदगी
सबके अपने मूल हैं सबकी है अपनी कहानी।।

नित्य मुस्काती मचलती शब्द की अठखेलियाँ 
पूछने मुझसे लगीं मेरे अस्तित्व की कहानी।।

है इधर या फिर उधर या दायरे में है कहीं पर
कौन जाने किस घड़ी ये दूर जा बैठे क्षितिज पर
प्रश्न की परछाइयों में क्या उत्तरों की भूमिका
मौन मन उलझा विगत के स्वयं की ही भूमिका पर।।

नित्य समझाकर स्वयं को मौन मन की भूमिकायें
पूछने मुझसे लगीं मेरे अस्तित्व की कहानी।।

 ©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद 
        29नवंबर, 2021

मधुप की अभिलाषा।

मधुप की अभिलाषा।  

सोच रहा है आज मधुप पुष्प का जीवन सँवारुँ
झूम कर नाचूँ आज मैं प्रीत का आँगन बुहारूँ।।

माँगता है भोर से नव रूप की मोहनी आशा
अरु उषा से अरुण पीत रंगों की शोभती आभा
कर रहा विनती सिंधु से आसमानी रंग भर दे
और मिटा दे हृदय से डूबती उतरती निराशा।।

सोच रहा है आज मधुप आस से जीवन सँवारुँ
झूम कर नाचूँ आज मैं प्रीत का आँगन बुहारूँ।।

झूम कर चूमता पुष्प वो भरता परागकणों को
संग्रहित करता अंक में नेह के मीठे क्षणों को
अंजुरि भर गंगा जल पलकों में सपनों की लाली
श्वेत कमल सा भाव लिए पूजता जीवन पलों को।।

सोच रहा है आज मधुप पुष्प में खुद को मिला लूँ
झूम कर नाचूँ आज मैं प्रीत का आँगन बुहारूँ।।

प्रकृति के भित्तचित्र पर रंगों की मोहक आभायें
बैठ शिखर अभिलाषा के पुण्य मचलती आशायें
राग, द्वेष, मद मोह छोड़ जीवन के पिय आँगन में
और भरे निज गुंजन से गीतों में नव गाथायें।।

सोच रहा है आज मधुप जीवन का नव रूप निखारुँ
झूम कर नाचूँ आज मैं प्रीत का आँगन बुहारूँ।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        28नवंबर, 2021

है अधूरा गीत मेरा पूर्ण अब कर दीजिए।

है अधूरा गीत मेरा पूर्ण अब कर दीजिए।  

जो हो सके तो गीत मेरा पूर्ण अब कर दीजिए
कब तक सिमट कर मैं रहूँगा इक अधूरे गीत सा।।

मैं छपा हूँ पृष्ठ पर ले भावनाओं का समंदर
आस के आकाश पर उम्मीद का लेकर समंदर
कुछ पँक्तियाँ अब तक अधूरी पूर्ण अब कर दीजिए
कब तक सिमट कर मैं रहूँगा इक अधूरे गीत सा।।

हूँ यहाँ गुमनाम सा मैं भूली कहानी की तरह
एक झलक जो देख लो खिल जाऊँ जीवन की तरह
थाम कर अब हाथ मेरा आवाज मुझको दीजिए
कब तक सिमट कर मैं रहूँगा इक अधूरे गीत सा।।

शब्द मिल जाये जो मुझको गीत लिख सकता हूँ मैं
साथ मिल जाये तुम्हारा जीत लिख सकता हूँ मैं
मेरे अधूरे ख्वाब हैं जो पूर्ण अब कर दीजिए
कब तक सिमट कर मैं रहूँगा इक अधूरे गीत सा।।

सोचा था के मैं निखर जाऊँगा लिखने के बाद
पूर्ण हो जाऊँगा मैं पन्नों में सजने के बाद
मेरे अधूरे संकलन को पूर्ण अब कर दीजिए
कब तक सिमट कर मैं रहूँगा इक अधूरे गीत सा।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        27नवंबर, 2021





काशी-नेह का सुंदर सवेरा।

काशी-नेह का सुंदर सवेरा।  

इस धरा के पृष्ठ का है कौन सुंदर वो चितेरा
जिसने फैलाया जगत में नेह का सुंदर सवेरा।।

बादलों के श्वेत पट से ओस की बूँदें गिरी जब
इस धरा की कोख पर वो मोतियों सी हैं खिली तब
भोर की किरणें मचलकर दृश्य नूतन हैं सजाती
और पंछी भी सुरीली तान में हैं गुनगुनाती।।

इस धरा के पृष्ठ पर किसने सजाया है बसेरा
जिसने फैलाया जगत में नेह का सुंदर सवेरा।।

गंग की इस धार में हैं नाचती किरणें मचलकर
कह रही हैं आज सुन लो शब्द वो सारे सँभलकर
घाट के उस छोर से इस छोर तक है बंदगी
कह रही लहरें मचलकर हैं बस यहीं पर जिंदगी।।

घाट के इस पृष्ठ का है कौन वो सुंदर चितेरा
जिसने फैलाया जगत में नेह का सुंदर सवेरा।।

मंत्र के उच्चारणों से गूँजती खुशियाँ यहाँ पर
देव गीतों से भजन से गूँजती गलियाँ यहाँ पर
वेद के उत्तम स्वरों से भोर होती है सुहानी
अरु साँझ के धुँधलके में आरती होती सुहानी।।

वेद के इस रूप का है कौन वो सुंदर चितेरा
जिसने फैलाया जगत में नेह का सुंदर सवेरा।।

देव की है भूमि काशी मोक्ष है मिलता यहाँ पर
शब्द जीवन मृत्यु का सब साथ में चलता यहाँ पर
कुंभ में जीवत्व के जो दूर करती है उदासी
ऐसा खुशियों का नगर देवताओं की है काशी।।

इस धरा पर मोक्ष का है कौन वो सुंदर चितेरा
जिसने फैलाया जगत में नेह का सुंदर सवेरा।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        25नवंबर, 2021



हृदय के भाव को आश्रय मिला है।

हृदय के भाव को आश्रय मिला है।  

कल्पनाओं के शिखर पर कुछ स्वप्न की अठखेलियाँ
यूँ लगा जैसे हृदय के भाव को आश्रय मिला है।।

भोर की आगोश में दिन का उजाला मुस्कुराये
रश्मि किरणों में मगन हो मन का मयूरा गुनगुनाये
एक झोंका जब हवा का खोल पट वातायनों का
कान में मधु घोल दे अरु भोर का पथ खिलखिलाए।।

रश्मि का आभार पाया जीत को आशय मिला है
यूँ लगा जैसे हृदय के भाव को आश्रय मिला है।।

साँझ का पट खोल कर के चाँद कुछ ऐसे मिला है
ओट में आँचल के जैसे रूप दुल्हन का खिला है
अंक में मधुमास के कुछ रंग से भरने लगे हैं
शब्द के श्रृंगार से नव पुष्प अधरों पर खिला है।।

प्रीत ने श्रृंगार पाया कामना को बल मिला है
यूँ लगा जैसे हृदय के भाव को आश्रय मिला है।।

साँस की सारंगियों ने गीत है कुछ गुनगुनाया
धड़कनों ने राग छेड़ा यामिनी को है सजाया
चाँदनी खिलकर यहाँ पर कर रही हमको इशारे
आस के आकाश ने है पंथ पुष्पों से सजाया।।

अब निराशा के प्रहर बस चंद लम्हों के बचे हैं
मन निलय की भावना को मोह का आशय मिला है
यूँ लगा जैसे हृदय के भाव को आश्रय मिला है।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        25नवंबर, 2021

रुक ना जाना तुम मुसाफिर

रुक ना जाना तुम मुसाफिर।  

है शून्य से निकला सफर ये मौन इन पगडंडियों पर
है सफर लंबा ये माना रुक ना जाना तुम मुसाफिर।।

चलते चलते खो ना जायें परछाईयाँ इन रास्तों पर
और विस्मृत हो न जायें वो यादें मन के रास्तों पर
हो चले जब तोड़ कर तुम सब मोह माया बंधनों को
फिर पलट कर देखना क्या उन बीती को इन रास्तों पर।।

स्मृतियों के पदचिन्हों से अब दूर तू निकला यहाँ पर
है सफर लंबा ये माना रुक ना जाना तुम मुसाफिर।।

द्वार से कितनी ही दफा तुम लौट कर आये वहाँ से
खटखटाये तुम न जाने वो द्वार अपनी भावना से
जब हो मरुस्थल सी दशा अरु अंक में कुछ भी नहीं हो
खिलखिला कर पूछना फिर प्रश्न स्वयं अपनी आत्मा से।।

अब आशियाँ तुझसे यहाँ फिर खोजता किसको यहाँ पर
है सफर लंबा ये माना रुक ना जाना तुम मुसाफिर।।

जान ले इस पंथ पर अब पीछे जाने का ना रास्ता
है साथ ना तेरे कोई जब फिर क्या किसी से वास्ता
तू अकेला कब यहाँ जब पगडंडियाँ तेरी मीत हैं
झूम कर फिर चल यहाँ पर अपना ढूँढ़ ले तू आसमां।।

है लौट कर आता कहाँ वो वक्त जो निकला यहाँ पर
है सफर लंबा ये माना रुक ना जाना तुम मुसाफिर।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        24नवंबर, 2021

गीत मधुर क्या बन पाया है।।

गीत मधुर क्या बन पाया है।।


आशाओं के पृष्ठभूमि पर कितने गीत लिखे चुन चुन कर
बोलो केवल लिखने भर से गीत मधुर क्या बन पाया है।।

रंगपट्ट पर चली तूलिका जब जब स्वप्न सजाये सबने
रंग भरे इच्छाओं के अरु नूतन रूप सजाये सबने
रंगों में सज कर बोलो जीवन मुस्काता कब खिल खिल कर
लेकिन केवल खिलने भर से कहो चित्र सुघड़ बन पाया है
बोलो केवल लिखने भर से गीत मधुर क्या बन पाया है।।

दिशाहीन अल्हड़ता से बस कुछ पल का आराम मिला है
ये माना क्षणिक फुहारों से कुछ पल को आराम मिला है
कुछ पल के आरामों से क्या शांति मिली है बोलो खुलकर
कुछ पल के विश्राम से क्या ये जीवन खुलकर जी पाया है
बोलो केवल लिखने भर से गीत मधुर क्या बन पाया है।।

चली कलम जब भी पन्नों पर कितने ही नवगीत लिखे हैं
जाने कितनों के भावों को सुंदर सा मनमीत लिखे हैं
लिखे गीत कितने ही सबने बोलो इक दूजे से मिलकर
पन्नों पर बस छप जाने से गीत मधुर क्या बन पाया है
बोलो केवल लिखने भर से गीत मधुर क्या बन पाया है।।

मन की क्यारी में कितने ही पुष्प खिलाये हैं भावों के
बड़े जतन से सींचा उनको अपनाये हैं सब दावों को
दावों अरु वादों में जीवन कहता आया बस सुन सुन कर
लेकिन केवल सुनने भर से गीत मधुर क्या बन पाया है
बोलो केवल लिखने भर से गीत मधुर क्या बन पाया है।।

विरले ही हैं लोग यहाँ पर जो महाकाव्य रच पाते हैं
संकल्पों के बिन जीवन ये नवगीत कहाँ रच पाते हैं
बिन संकल्पों के जीवन के प्रश्न कहाँ सुलझे हैं खुलकर
लेकिन केवल हल मिलने से प्रश्न सरल क्या बन पाया है
बोलो केवल लिखने भर से गीत मधुर क्या बन पाया है।।

 ✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        24नवंबर, 2021

प्यार में पीर लें पीर को प्यार दें

 प्यार में पीर लें पीर को प्यार दें एक दूजे को हम इतना अधिकार दें, के प्यार में पीर लें पीर को प्यार दें। एक कसक सी न रह जाये दिल में कहीं, ...