मुझको मेरा गाम न मिलता।
कैसे कह दूँ इस जीवन के
मूल पंथ से भटक गया हूँ
कैसे मैं स्वीकारूँ बोलो
मूल मंत्र से भटक गया हूँ
यदि बोझिल शामें होती तो
सुबह को भी मान ना मिलता
छोटे से जीवन में बोलो
मौन भला मैं कब तक रहता।।
जब भी पथ पर चला मचलकर
पथ के सब शूल हटाया है
थे पाँवों में वो चुभे मगर
नहीं मैंने अश्रु बहाया है
मगर चोट जो खायी दिल पर
तुमसे ना तो किससे कहता
छोटे से जीवन में बोलो
मौन भला मैं कब तक रहता।।
रात अँधेरी कदम कदम पर
दिनकर पर प्रश्न उठाया है
नहीं मिली पर राह उसे जब
उससे ही आस लगाया है
आशायें ना टूटी होतीं
तानों में अपमान न होता
दूर नहीं जो होता तो फिर
लाचार भला कब तक रहता।।
मैंने घर घर दरबारों में
शकुनी का मन पलते देखा
निज सपनों अरु स्वार्थ मोह में
हस्तिनापुर को जलते देखा
झूठ नहीं फलता बोलो यदि
सत्य को अपमान ना मिलता
कब तक घुटता मन ही मन में
मौन भला मैं कब तक रहता।।
नहीं चाह सत्ता को कोई
नहीं कामना, चाहत कोई
प्रेम पाश में बँधा रहूँ मैं
इसी आस में आँख न सोई
बोझिल आँखों के सपने ले
रात रात जो यूँ ही जलता
जीवन के इस कुरुक्षेत्र में
मुझको मेरा गाम न मिलता।।
©✍️अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
23दिसंबर, 2021
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें