क्या लिखूँ फिर आज बोलो शब्द अपनी तूलिका से
क्या गढूं फिर आज बोलो भाव मैं निज भूमिका के
जिंदगी में प्रश्न कितने बढ़ रहे हर रोज लेकिन
जो हैं अधूरे प्रश्न तो फिर उत्तरों की आस क्यूँ।।
है दृष्टि का ये दोष या फिर स्वयं ही सब गिर गये
जो फूल मुरझाये नहीं थे शाख से क्यूँ गिर गये
था हवा का जोर या कमजोर डाली थी वहाँ की
इक झोंक भी जो सह सके ना टूट कर जो गिर गये।।
जो गिर गये हों स्वयं से ही फिर हवा से रार क्यूँ
जो हैं अधूरे प्रश्न तो फिर उत्तरों की आस क्यूँ।।
जो थे हृदय के भाव जब अंक में डूबे सिमटकर
व्यक्त भी जब कर सके ना शब्द अधरों पर निखरकर
मोल क्या रहता कहो फिर अनुबंध का विश्वास का
भाव ही जब गिर गये हों पंक्तियों से ही बिखरकर।।
जब पंक्तियों से भाव बिखरे साज से फिर रार क्यूँ
जो हैं अधूरे प्रश्न तो फिर उत्तरों की आस क्यूँ।।
है यामिनी की गोद में जो सूर्य जा कर ढल गया
है नियत ये पूर्व से कैसे कहो कोई छल गया
धुँधलके में बात कोई रह गयी माना सिमटकर
है फिर समय का दोष कैसा जो हृदय को खल गया।।
अब जो नियति में है लिखित उस बात से फिर रार क्यूँ
जो हैं अधूरे प्रश्न तो फिर उत्तरों की आस क्यूँ।।
पंक्ति के विन्यास में कई शब्द अधूरे रह गये
कल तलक जो साथ थे माना छोड़ तुझको बढ़ गये
प्रतिबिम्ब अपना कब रहा है सूर्य के ढलने बाद
क्या हुआ कुछ स्वप्न तिरे पलकों से माना झर गये।।
चल नया फिर स्वप्न बुन तू अब पूर्व से ये रार क्यूँ
जो हैं अधूरे प्रश्न तो फिर उत्तरों की आस क्यूँ।।
©✍️अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
04दिसंबर, 2021
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