रोज खुद को ढूँढता हूँ।
आस की उँगली पकड़कर मुश्किलों से जूझता हूँ
ताप से तपती धरा पर हौसलों की पौन लेकर
सच कहूँ तब इस शहर में रोज खुद को ढूँढता हूँ।।
चाहता हूँ मैं लिखूँ नव गीत जीवन के सुरों पर
चाहता हूँ मैं गढूं आज चित्र नूतन पत्थरों पर
तराशता वजूद अपना पत्थरों की आड़ लेकर
सच कहूँ तब इस शहर में रोज खुद को ढूँढता हूँ।।
इस कदर खामोशी कैसी शोर की महफ़िल में बोलो
लगता साये खड़े हों दौड़ती राहों में बोलो
साँझ की आड़ में जब गुमनाम हो साये छुप गये
सच कहूँ तब इस शहर में रोज खुद को ढूँढता हूँ।।
देखते हर रोज खुदको सुबह से लेकर साँझ तक
कह न पाये बात दिल की खुद से नहीं क्यूँ आज तक
सालता है मौन जब भी भीड़ की तनहाइयों में
सच कहूँ तब इस शहर में रोज खुद को ढूँढता हूँ।।
©✍️अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
05दिसंबर, 2021
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