नारी- सब सह लेती है।

नारी- सब सह लेती है।  

जब चाहे हँस लेती है
पर चुपके से रोती है
और नहीं वो नारी ही है
जो सब कुछ सह लेती है।

सूरज कभी कभी अलसा जाए
उसको अलसाते नहीं देखा
उठ जाती है सबसे पहले वो
कभी खुद को फुसलाते नहीं देखा
खुद का खयाल नहीं करती वो
पर वो सबको फुसलाती है।
और नहीं वो नारी ही है
जो सब कुछ सह लेती है।।

रसोई के गर्म मौसम में भी
वो शीतल बयार सी लगती
बाहर हो चाहे जैसा मौसम
वो तो बसंत बहार सी लगती
माथे पर भले हो गर्म पसीना
पर अबको शीतलता देती है।
और नहीं वो नारी ही है
जो सब कुछ सह लेती है।।

मुझसे ज्यादा क्या मेरी पसंद है
उसको  सब पहले से पता है
मेरे मन के सूनेपन  में भी
उसको लगता उसकी खता है
माँ, बहन, बेटी, पत्नी 
कितने ही किरदारों में ढल
सब पीड़ाएँ हर लेती है।
और नहीं वो नारी ही है
जो सब कुछ सह लेती है।।

उसका भी तो दिल सोचता होगा
उसका भी कहीं आसमाँ होगा
इस छोटी सी दुनिया में थोड़ा सही
उसका भी कहीं नामोनिशां होगा
नहीं कभी वो कहती  कुछ भी
पर सर्वस्व समर्पण कर देती है।
और नहीं वो नारी ही है
जो सब कुछ सह लेती है।।

मैं भी सोचता हूँ कभी
ना जाने किस मिट्टी की बनी है
धूप, ताप, बारिश या ठंडक
चुटकी में ही वो ढल लेती है
इतनी सहज प्रवृत्ति है उसकी
शायद इसीलिए सब कर लेती है।
जी हाँ वो नारी ही तो है
जो सब कुछ सह लेती है।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        28मार्च, 2021




फागुन का रंग।



फागुन का रंग।

नयनन की भूल भुलइया में
पिय अइसन तुमरे खोय गयी
सुध बुध बिसराय गयी मैं तो
बिन बंधन तुमरी होय गयी।।

रात रात भर जागत हैं 
इन अँखियन में अब नींद नहीं
इक तुमरो संग सुहात इसे
दूजा अब कउनो मीत नहीं।

अंग लगा लो अब तो हमको
रंग में तुमरे खोय गयी।
सुध बुध बिसराय गयी मैं तो
बिन बंधन तुमरी होय गयी।।

यहि फागुन फाग रचो अइसन
मन मोहन मोय श्रृंगार करो
रँग जाऊँ तुमरे रंगन में
मोहे कछु अइसन प्यार करो।

अइसन रंग लगा हिय पर
सब रंगन को मैं खोय गयी
सुध बुध बिसराय गयी मैं तो
बिन बंधन तुमरी होय गयी।।

 ©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        28मार्च, 2021

तूफानों का आदी हूँ।

तूफानों का आदी हूँ।   

मुक्त गगन का पंछी हूँ मैं
सीमाहीन क्षितिज मेरा है
आशाओं का पोषक हूँ मैं
धरती मेरी गगन मेरा है
बाँध सकेगा क्या मुझको
मैं तो इक अनुरागी हूँ
मैं तूफानों का आदी हूँ।।

मुझको कब तक बाँधेंगे 
झूठे रिश्तों के ये बंधन
कब तक मुझको रोकेंगे
स्वार्थयुक्त ये झूठे क्रंदन
परे छोड़ सब बाधाओं को
मैं परिवर्तन का साथी हूँ
मैं तूफानों का आदी हूँ।।

नहीं छाँव का मोह मुझे
वरदानों को क्या तकना
निकल पड़ा जब अपनी धुन में
बीच डगर फिर क्या रुकना
चलते फिरते इस जीवन में
मैं रफ्तारों का साथी हूँ
मैं तूफानों का आदी हूँ।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        27मार्च, 2021





पहचान।

पहचान।  

इस आभासी दुनिया में तुम
प्रिय मेरी मुस्कान बने हो
नजर नजर में डगर डगर में
तुम मेरी पहचान बने हो।।

धूप छाँव के सफर घनेरे
शाम तुम्हीं हो तुम्हीं सवेरे
अभिलाषा के शीर्ष तुम्हीं
प्रेम पंथ ने पुष्प बिखेरे।

प्रेम पथिक मैं जिन राहों का
तुम उसकी वरदान बने हो।
नजर नजर में डगर डगर में
तुम मेरी पहचान बने हो।।

तुम शीतलता की परिभाषा
चाँद चाँदनी की अभिलाषा
तुम नैनों की दिव्य ज्योति हो
तुम अधरों की कंपित आशा।

मेरे मन की इस वीणा के
मदिर मधुर सुर तान बने हो।
नजर नजर में डगर डगर में
तुम मेरी पहचान बने हो।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        26मार्च, 2021 


साथ तुम्हारा।

साथ तुम्हारा।  

मौसम के अनुमानों ने
इस दिल के अरमानों ने
मुझमें कितने रंग भरे हैं
जो साथ चलो तो कह दूं मैं।।

तुमसे मैं तो मिला अभी ही
और अभी ही देखा है
तुमसे मिलकर लगा मुझे यूँ
तुझमें जीवन रेखा है।
मेरे जीवन में तुम क्या हो
जो साथ चलो तो कह दूँ मैं।।

पल भर के इस नेह मिलन ने
स्वप्न अनेकों बुन डाले
और तुम्हारे अपनेपन ने
गीत अनेकों रच डाले।
गीतों ने क्या कुछ रच डाला
जो साथ चलो तो कह दूँ मैं।।

कहने को हैं कितनी बातें
नई पुरानी कितनी घातें
दिल ने कितना दरद सहा है
पलकें जागी कितनी रातें।
इस पल में तुमसे क्या पाया
जो साथ चलो तो कह दूँ मैं।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       26मार्च, 2021
जो साथ तुम्ह
उम्मीदों के फूल खिले तो








मुस्कानों का साथी।

मुस्कानों का साथी।   

खोने को क्या पास हमारे
अब मुझको बस पाना है।

आशाओं ने करवट बदली
उम्मीदों ने राह पकड़ ली
सपनों को इक पंथ मिला
विश्वासों ने अँगड़ाई ली।

मुक्त पंख आकाश खुला है
दूर क्षितिज तक जाना है।
खोने को क्या पास हमारे
अब मुझको बस पाना है।।

गिरने का कहीं भय नहीं
तारों से बातें करता हूँ
अपनी हर इच्छाओं से
झोली हर खाली भरता हूँ।

आशाओं के संयोजन तक
पल पल पलते जाना है।
खोने को क्या पास हमारे
अब मुझको बस पाना है।।

बहुत किया पछतावा अब तक
अब कोई अफसोस नहीं
बीती सारी बातों पर अब
मुझको कोई रोष नहीं।

मुस्कानों का साथी हूँ मैं
मुस्कानों तक जाना है।
खोने को क्या पास हमारे
अब मुझको बस पाना है।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        25मार्च, 2021


कैसे गाऊँगा।

कैसे गाऊँगा।   

यादों में मेरी बसी हो
गीतों में मेरे रची हो
तुम बिन ना रह पाऊँगा
बोलो कैसे गाऊँगा।।

साथ चले कितने ही सावन
कुछ झुलसाए कुछ मनभावन
कुछ में पीर मिली थी हमको
कुछ पूजा से भी थे पावन।

बीती सारी बातों को मैं
कैसे कहो भुलाऊंगा।
तुम बिन ना रह पाऊँगा
बोलो कैसे गाऊँगा।।

तुम बिन मेरा यौवन सूना
तुम बिन सूनी रातें सारी
तुम बिन मेरी राह अधूरी
तुम बिन मेरी प्रीत बिचारी।

तुम बिन चलना मुश्किल है
कैसे मैं समझाऊँगा।
तुम बिन ना रह पाऊँगा
बोलो कैसे गाऊँगा।।

तुमसे मेरे गीत जुड़े हैं
तुमसे मेरे सपने सारे
तुमसे सारी रीत जुड़ी है
तुमसे मेरे अपने सारे।

तुम ही गीतों की सरगम
मैं तुमको ही गाऊँगा।
तुम बिन ना रह पाऊँगा
बोलो कैसे गाऊँगा।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        24मार्च, 2021

सफर।

सफर।  

चलो कुछ सपने देखते हैं
यूँ ही तुम मुझमें मैं तुझमें
चलो मिलकर कुछ खोजते हैं
चलो कुछ सपने देखते हैं।।

कुछ मैं तुमको बतलाऊँ
कुछ तुम मुझको समझाना
कुछ मैं तुमको दिखलाऊँ
कुछ तुम मुझको बतलाना।

वक्त की दहलीज पर हम
एक दूजे को खोजते हैं
चलो कुछ सपने देखते हैं।।

एक उम्र चली है राहों पर
थामे दूजे की बाहों को
इस धड़कन से उस धड़कन तक
थामे दूजे की साँसों को।

थामे साँसों की वही डोर
चलो बाहों में भींचते हैं
चलो रिश्तों को सींचते हैं।।

दूर क्षितिज तक चलें साथ मे
राह मुड़े तो मुड़े साथ में
अस्तांचल तक चलना है
भोर खिले जब खिले साथ में।

सूर्योदय से अस्तांचल तक
उम्र को दरीचों में देखते हैं
चलो कुछ सपने देखते हैं।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        22मार्च, 2021

काशी।

काशी।  

जग के ठाठ भूल सारे
मन काशी हो जाता है।।

कष्ट सभी मिट जाते हैं
खुद से खुद मिल जाते हैं
लगा भभूत माथ पर अपने
देवों का दर्शन पाते हैं।

अल्हड़ गंगा की धारा में
वक्त यहाँ सिमटा जाता है।
जग के ठाठ भूल सारे
मन काशी हो जाता है।।

गलियों में नवरंग यहाँ पर
बरसे हैं सब रंग यहाँ पर
रस की धार बना-रसिया
जज्बातों को पंख यहाँ पर।

जज्बातों की धारा में मन
खुद को बहता पाता है।
जग के ठाठ भूल सारे
मन काशी हो जाता है।।

दुनिया के सब रौनक फीके
शानो शौकत सारे झूठे
जिस पर इसका रंग चढ़े है
रंग लगे सब उसको फीके।

काशी की गलियों में कोई
नहीं कभी तन्हा पाता है।
जग के ठाठ भूल सारे
मन काशी हो जाता है।।

अंतिम सत्य यहाँ मिलता है
सृष्टि का पल पल पलता है
जीवन मृत्यु मोक्ष कामना
उम्मीदों को पथ मिलता है।

जन्म मरण के सब बंधन से
जीवन मुक्त हुआ जाता है।
जग के ठाठ भूल सारे
मन काशी हो जाता है।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        21मार्च, 2021

गंगा के उस पार।

गंगा के उस पार।   

जीवन की इक डोर दिखी है
गंगा के उस पार मुझे
सब सपनों की छोर दिखी है
गंगा के उस पार मुझे।।

छिटक छिटक कर सूर्य रश्मियाँ
जल थल पर क्रीड़ा करती
नित नूतन संदेशों से वो
मन में भाव प्रवणता भरतीं।

उम्मीदों की कोर दिखी है
गंगा के उस पार मुझे।
जीवन की इक डोर दिखी है
गंगा के उस पार मुझे।।

भीतर है तूफान समेटे
ऊपर, पर शांत लहर है
पल पल छिन छिन बीत रही
सिमटाये मौन प्रहर है।

शांत लहर की पोर दिखी है
गंगा के उस पार मुझे।
जीवन की इक डोर दिखी है
गंगा के उस पार मुझे।।

साँझ ढले जीवन बेला में
घाटों पर इक हलचल है
नवजीवन की उम्मीदों से
निशा जागती पल पल है।

पुनर्जन्म की भोर दिखी है
गंगा के उस पार मुझे।
जीवन की इक डोर दिखी है
गंगा के उस पार मुझे।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       21मार्च, 2021




पहचान।

पहचान।   

सत्ता के गलियारों में सब अरमान खिलौने हो गये
तकती नजरें सूनी सूनी सम्मान खिलौने हो गये।।

काजू की प्लेटों में दिखी जिनके सपनों की परछाईं
उनकी इच्छाओं के सारे अनुमान खिलौने हो गये।।

नैतिकता अपने घर में हि बंधक बनकर आज रो रही
इसके गिरते किरदारों से पहचान खिलौने हो गये।।

आम आदमी सपनों को अपने ही काँधों पर ढो रहा
जाने फिर नजरों में कैसे किरदार खिलौने हो गये।।

खून पसीने से जिनके, महलों में लाखों दिए जले
महलों के आँगन में उनकी पहचान घिनौने हो गये।।

दोष मढ़ें अब किसके ऊपर, शिकवा किसी से क्या करना
पहचान दिये जिसको हमने अहसान खिलौने हो गए।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       20मार्च, 2021


आम की बालियाँ।

आम की बालियाँ।  

मैंने घर के आँगन में
कुछ पेड़ लगाए आमों के
स्वप्न में देखा मधुर रसीले
उम्मीदों को आमों में।

खट्टा मीठा जीवन अपना
आम सरीखा लगता है
जबतक कच्चा, खट्टा है
पके तो मीठा लगता है।

बौर लगे पेड़ों पर देखो
ऋतु परिवर्तन बतलाती हैं
खेतों की ये पकी बालियाँ
तन मन को हर्षाती हैं।

बीत रहा मधुमास माह अब
किरणें भी ताप बढ़ाती हैं
खेतों खलिहानों में पग पग
उम्मीदें मुस्काती हैं।

लगन मुहूरत, नव संबंधों
का नूतन मौसम आया 
उम्मीदों को पंख मिले हैं
कलियों का मन हरषाया।

मौसम के इन संकेतों ने
जीवन को आयाम दिया
पेड़ों पर खिलते आमों ने
इक नूतन अभियान दिया।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       20मार्च, 2021


प्रीत ने पंथ निखारा।

प्रीत ने पंथ निखारा।  

रात की मद्धम गति औ तेरा मुस्काना यहाँ
बादलों की ओट से ज्यूँ चाँद का आना यहाँ।।

तू मुस्कुरा दे फूल खिलते
बातों में जादू तेरे
जबसे देखा मैंने तुझको
दिल पर नहि काबू मेरे।

यूँ लगे ज्यूँ पुष्प पर भ्रमर का मँडराना यहाँ
बादलों की ओट से ज्यूँ चाँद का आना यहाँ।।

मचल रही अधरों पे तेरे
यूँ सूर्य की ये लालिमा
मदमस्त होकर चूमती हैं
कपोलों को ये बालियाँ।

यूँ लगे ज्यूँ भोर का अहसास मिल जाना यहाँ
बादलों की ओट से ज्यूँ चाँद का आना यहाँ।।

ये केश तेरे यूँ घनेरे
ज्यूँ मेघ के गुम्फे लगें
मैं देखूँ जब जब रुप तेरा
मृदु भाव, हिय प्रियतम जगे।

यूँ लगे ज्यूँ रूप की चादरों का छाना यहाँ
बादलों की ओट से ज्यूँ चाँद का आना यहाँ।।

सुंदरता की मूरत है तू
भावों में मधुरस धारा
जीवन में तेरे आने से
समृद्धि ने पंथ निखारा।

यूँ लगे ज्यूँ अंक में नभ का सिमट जाना यहाँ
बादलों की ओट से ज्यूँ चाँद का आना यहाँ।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       18मार्च, 2021


देव दर्शन।

देव दर्शन।  

औरों ने बस पत्थर माना
मैंने देवों के दर्शन देखे
सबने ने बस रूप निहारा
मैंने भाव सुदर्शन देखे।।

नदिया, परबत, मेघ घनेरे
कल कल छल छल भाव सुनहरे
प्रकृति ने है रूप निखारा
सुघड़, सुभग भाव मनहरे।

कितना सुंदर दृश्य पटल पर
अंकित मन अनुरंजन देखे।
सबने ने बस रूप निहारा
मैंने भाव सुदर्शन देखे।।

किरण प्रभाती पुण्य भाव से
कण कण रूप सजाती है
हरित कांति से सजी धरा
देवों का रूप दिखाती है।

अवनी अंबर साथ चले हैं
पुलकित मन अभिनंदन देखे।
सबने ने बस रूप निहारा
मैंने भाव सुदर्शन देखे।।

शुद्ध चित्त औ शुद्ध भाव से
सहज सरल बन सकता जीवन
अंतस के पुष्पित भावों से
पुष्पाच्छादित तन मन उपवन।

शुद्ध चित्त औ पवित्र भाव ने
कितने ही परिवर्तन देखे।
सबने ने बस रूप निहारा
मैंने भाव सुदर्शन देखे।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
      17 मार्च, 2021




अपनापन।

अपनापन।   

पात टूट कर गिरे डाल से
फिर से उसको कौन मिलाए
भटक गये जो कभी मूल से
उसे मूल से कौन मिलाए।।

सुखद सपन सी लगती दुनिया
नई नवेली दिखती दुनिया
चमक दमक के पीछे लेकिन
एकाकी सी कितनी दुनिया।।

जीवन के एकाकीपन को
अपनापन ही दूर भगाए
भटक गये जो कभी मूल से
उसे मूल से कौन मिलाए।।

मतभेदों में जला उजाला
मनभेदों ने निगला जीवन
जाने कैसे पवन चल रही
उजड़ा जाता हरपल जीवन।।

निज जीवन के अनुमानों ने
अहसासों को दूर भगाए।
भटक गये जो कभी मूल से
उसे मूल से कौन मिलाए।।

विखर गए कितने ही उपवन
अहंकार के तूफानों में
बिछड़ गए कितने ही जीवन
हीनभाव वश अनुमानों में।।

ऐसे अनुमानों के कारण
जीवन पल पल ठोकर खाये।
भटक गये जो कभी मूल से
उसे मूल से कौन मिलाए।।

सफर सुहाना लगता तबतक
जबतक अपने साथ चले हैं
पग-पग खुशियाँ मिलती तबतक
उम्मीदों के फूल खिले हैं।।

अपनेपन की उम्मीदें ही
जीवन को नव राह दिखाए।
भटक गये जो कभी मूल से
उसे मूल से कौन मिलाए।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
      हैदराबाद
      15मार्च, 2021



नई सुबह नई भोर।

नई सुबह नई भोर।  

भोर रश्मि की मुस्कानों से
वरदानों की डोर जुड़ी है
हँस कर जब भी देखा मैने
नई सुबह की भोर दिखी है।।

दूर क्षितिज से किरण प्रभाती
उम्मीदें बनकर आती 
अपने स्वर्णिम अहसासों से
मन में मधुरिम भाव जगाती।
मधुरिम मधुरिम अहसासों में
नूतन सपनों की छोर दिखी है।
हँस कर जब भी देखा मैंने
नई सुबह नई भोर दिखी है।।

शीतल चंदा की किरणों ने
रातों का श्रृंगार किया है
रजनी के नीले आँचल को
तारों ने गुलजार किया है।
खिली चाँदनी की किरणों में
प्रेम की सुंदर डोर दिखी है।
हँस कर जब भी देखा मैंने
नई सुबह नई भोर दिखी है।।

सुंदर मन के व्यवहारों से
खुशियों की कलियाँ खिलती हैं
मन में जैसा भाव यहाँ हो
वैसी ही दुनिया मिलती है।
मन की सुंदरता से देखा
खुशियों की इक डोर दिखी है।
हँस कर जब भी देखा मैंने 
नई सुबह नई भोर दिखी है।।

मैंने जीवन के हर इक पल को
हँसकर के सम्मान दिया है
सोम समझ कर गरल पिया है
नहीं कभी अपमान किया है।
जीवन के हर पल में मुझको
अमृत की रसधार दिखी है।
हँस कर जब भी देखा मैंने
नई सुबह नई भोर दिखी है।।

मेरा प्रण है इस जीवन को
ऐसे ही गाता जाऊँगा
जीवन के हर पहलू में मैं
ऐसे ही हँसता जाऊँगा।
मुस्कानों में हरपल मुझको
साँसों की नव डोर दिखी है।
हँस कर जब भी देखा मैंने
नई सुबह नई भोर दिखी है।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
      हैदराबाद
      14मार्च, 2021

मजबूरी।

मजबूरी।   

मेरे औ मंजिल के बीच
बस थोड़ी सी दूरी है
तुमको क्या बतलाऊँ मैं
मेरी क्या मजबूरी है।

मौन पंथ का मूक पथिक हूँ
उम्मीदों ने पाला मुझको
जीवन पथ के तूफानों ने
अपनेपन में ढाला मुझको।

निकल गया सब तूफानों से
पर थोड़ी सी दूरी है
तुमको क्या बतलाऊँ मैं
मेरी क्या मजबूरी है।।

जी करता है सपनों में मैं
अपने हरपल गीत सजाऊँ
तुम सम्मुख प्रतिपल बैठो
अविरल मैं  गाता जाऊँ।

मेरे गीतों की महफ़िल में
तेरी मुस्कान जरूरी है।
तुमको क्या बतलाऊँ मैं
मेरी क्या मजबूरी है।।

उम्मीदों ने रात ओढ़ ली
पर मैंने स्वीकार किया
दिए तुम्हारे सब घावों को
मैंने तो हर बार जिया।

कहने को मैं भी कह देता
पर चुप रहना भी जरूरी है।
तुमको क्या बतलाऊँ मैं
मेरी क्या मजबूरी है।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       12मार्च, 2021

सम्मान कइसे मिली।

सम्मान कइसे मिली।  

एक दिन खुशी मनवले
मान नाहीं मिली
नारी जबले नारी के ही
सम्मान नाहीं देली।।

कोख में ज लइकी सुनिके
आँसू गिरे लागे
मनवा में कइसन कइसन
भाव जागे लागे
कोखी में बराबर जबले
अधिकार नहीं मिली
एक दिन खुशी मनवले
मान नाहीं मिली।।

जनमते ही लईकीन खातिर
दहेजवा सतावेला
यही देश में नारी ही खुद
नारी के जलावेला
जबले कुरीतिन के असली
अंजाम नाहीं मिली
एक दिन खुशी मनवले
मान नाहीं मिली।।

दुनिया में जिधरो देखा
अत्याचार बढ़त बा
नारी की शुचिता देखा
कइसे कइसे कुढ़त बा
नारी अपराधन के जबले
परिणाम नहीं मिली।
एक दिन खुशी मनवले
मान नाहीं मिली।।

माई, बहिन, बेटी, पत्नी अउर सहेली
कितना ही रूप नारी, हरपल धरेली
कइसन भी मुश्किल हो, उफ्फ ना करेली
चेहरा पे खुशी रखिके दुखवा छुपावेळी।

भगवान के देखली नाहीं,
तुहके ही देखली हम
बिना तोहरे चली नाहीं
सृष्टि ई एक्को कदम।

जवने घर में नारी के उचित 
स्थान नाहीं मिली
वहि घर मा खुशियन के
फूल नाहीं खिली।
इहे बात अजय कहे 
आज सबसे मिल के
सोच जबले बदली नाहीं
एहसास नाहीं खिली।
एक दिन खुशी मनवले
मान नाहीं मिली।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
      हैदराबाद
      09मार्च, 2021

स्वयं का विस्तार कर।

स्वयं का विस्तार कर।  

आस्था के फूल सारे स्वार्थ में बिखर रहे
निजता, प्रमुखता अहसास कैसे पल रहे
संबंधों की सोच संकीर्ण हो रही है, क्या
भान ही नहीं के खुद ही खुद को छल रहे।।

स्वप्न का श्रृंगार कर ये रास्ते बुहार कर
वासनाओं पर यहाँ अपने तू प्रहार कर
शूल पथ के सभी खुद फूल हो जाएंगे 
बन के सत्यकाम तू स्वयं विस्तार कर।।

एक दिन सभी यहाँ, खुद ही जान जाएंगे
तेरे पदचिन्हों पर खुद शीश वो नवाएँगे
व्यर्थ का प्रलाप जो भी कर रहे हैं यहाँ
संबंधों की भीड़ में खुद को तन्हा पाएंगे।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       07फरवरी, 2021

कभी मानूँगा ना हार।

कभी मानूँगा ना हार।   

जीवन के विस्तृत प्रसार में
मनोभावों के विस्तार में
कण कण चुगता बन चातक
कभी मैं मानूँगा ना हार।

तेज भले कितनी हो लहरें
सम्मुख सागर भले अपार
तूफानों से डरना कैसा
जब तक हाथों में पतवार।
कण कण चुगता बन चातक
कभी मैं मानूँगा ना हार।।

कभी कभी मिलता है जीवन
पुण्य कर्म का फल है जीवन
हैं असीम निज इसकी इच्छा
उम्मीदों का है ये मधुवन।

इस मधुवन से आज मिला है
मुझे जीवन का सब सार।
कण कण चुगता बन चातक
कभी मैं मानूँगा ना हार।।

तूफानों में जोर भले हो
जूझ गया जो, कब थकता है
ऊँची सागर की लहरों में
माँझी कभी कहाँ रुकता है।

सागर की अपनी सीमा है
औ मन की असीम अपार।
कण कण चुगता बन चातक
कभी मैं मानूँगा ना हार।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       06मार्च, 2021

रंगमंच।

रंगमंच।   

जीवन ये इक रंगमंच है
सबका है अपना अभिनय
संवाद कहीं है मौन कहीं
सबका है अपना परिचय।

पात्र, पात्रता, आवश्यकता
पग पग पर मंचन होती है
जिसकी जैसी यहाँ भूमिका
वैसी ही अंकन होती है।

सबके अपने पात्र सुनिश्चित
धर्म कर्म है सबका संचय।
संवाद कहीं है मौन कहीं
सबका है अपना परिचय।।

वचनबद्धता, भाव, प्रार्थना
सब इच्छाओं में चिन्हित हैं
औ अंतस की समग्र कामना
प्रत्यक्ष यहाँ पर प्रतिबिंबित है।

इच्छाओं की मधुर कल्पना
हिय संबंधों का है मधुमय ।
संवाद कहीं है मौन कहीं
सबका है अपना परिचय।।

रुपहले पर्दे पर चित्रित
सबकी अपनी भाव भंगिमा
जिसकी जैसी प्रस्तुति है
वैसी बनती उसकी गरिमा।

भावों की प्रस्तुति से होता
सबके जीवन में अरुणोदय।
संवाद कहीं है मौन कहीं
सबका है अपना परिचय।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       05मार्च, 2021





मौन पीड़ाएँ।

मौन पीड़ाएँ।  

जीवन के नीरव निशीथ में
मौन उमड़ते अंधकार में
व्यग्र हृदय कब तक रहता
कब तक ये पीड़ाएँ सहता।

कितने छल कितनी पीड़ाएँ
मौन बींधते रहते मन को
उमड़ घुमड़ कितनी इच्छाएँ
मौन खीझते रहते मन को।

मुक्त कंठ की इच्छा लेकर
आखिर कब तक मौन तड़पता।
व्यग्र हृदय कब तक रहता
कब तक ये पीड़ाएँ सहता।।

व्याकुल व्याकुल रहते प्रतिपल
अंतस की अभिलाषा कितनी
नयनों में फिरती हैं प्रतिपल
जीवन की आशाएँ कितनी।

पलकों में संचित आशा ले
आखिर कब तक भाव सुलगता।
व्यग्र हृदय कब तक रहता
कब तक ये पीड़ाएँ सहता।

पृथक पृथक हों भाव सभी जब
पृथक पृथक सब राह चलें जब
कांटों से भी मुश्किल लगती
सहज भले हों राह यहाँ तब।

अपनी डाली के काँटों का
दंश कोइ कब तक सहता।
व्यग्र हृदय कब तक रहता
कब तक ये पीड़ाएँ सहता।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       04मार्च, 2021






मनमीत।

मनमीत।   

मेरे मन के मीत बनो तुम
मैं प्रीत तुम्हारी बन जाऊँ
शब्द बनूँ मैं गीत बनो तुम
संगीत तुम्हारी बन जाऊँ।।

अधरों पर हो प्रेम का अंकन
उर में मधुर मधुर स्पंदन
अंक में भर लूँ स्वप्न तुम्हारे
जीवन ये हो जाये नंदन।

मुक्त गगन की मीत बनो तुम
मैं प्रीत तुम्हारी बन जाऊँ।
शब्द बनूँ मैं गीत बनो तुम
संगीत तुम्हारी बन जाऊँ।।

संवादों में गीत मधुर हो
अहसासों में प्रीत मधुर हो
शब्द शब्द में थिरकन जागे
नई तरंगें, रीत मधुर हो।

नई रीत की गीत बनो तुम
मैं प्रीत तुम्हारी बन जाऊँ।
शब्द बनूँ मैं गीत बनो तुम
संगीत तुम्हारी बन जाऊँ।।

ताप तरंगें इस जीवन को
रह रह कर झुलसाती हैं
जाने कितने भाव हृदय को
रह रह कर हुलसाती हैं।

मेरे अंतस की मीत बनो तुम
मैं प्रीत तुम्हारी बन जाऊँ।
शब्द बनूँ मैं गीत बनो तुम
संगीत तुम्हारी बन जाऊँ।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        03मार्च, 2021

मौन अब खोल दो।

मौन अब खोल दो।   

कभी तो बैठो पास मेरे
औ कभी तुम कुछ बोल दो
मौन क्यूँ बैठे हो यहॉं पर
दिल की गिरह को खोल दो।।

जानता हूँ दिल में दबी हैं
तिरे भावनाएँ प्यार की
और कितनी चाहतें हैं
इस प्यार के संसार की।

आज दिल में जो दबी है
सभी भावनाएँ बोल दो।
मौन क्यूँ बैठे हो यहाँ पर
दिल की गिरह को खोल दो।।

क्या याद अब तुमको नहीं
मुझसे था क्या क्या कहा
साथ मिलकर जब चले थे
हमने था क्या क्या सहा।

भूल तुम कैसे गए सब
कुछ तो कहो कुछ बोल दो।
मौन क्यूँ बैठे हो यहाँ पर
दिल की गिरह को खोल दो।।

बाद अपने प्रेम की बस
रह जायेंगी निशानियाँ
गीत अपने प्रीत की
गूंजेंगी बन कहानियाँ।

फिर हमारे गीत में तुम
प्रीत के रस घोल दो।
मौन क्यूँ बैठे हो यहाँ पर
दिल की गिरह को खोल दो।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        02मार्च, 2021

दर्द।

दर्द।   

जिस दर्द ने तुमसे मुझे मिलाया
उस दर्द का शुक्रिया करता हूँ।
जिस दर्द ने मुझको प्रीत सिखाया
उस दर्द का शुक्रिया करता हूँ।।

सूना जीवन था ये मेरा
तुम आये आकाश मिला
सदियों से प्यासी धरती को
बूँदों का मधुमास मिला।

जिन बूंदों ने मधुमास खिलाया
उन बूंदों का शुक्रिया करता हूँ।
जिस दर्द ने तुमसे मुझे मिलाया
उस दर्द का शुक्रिया करता हूँ।।

कभी खिली थीं कलियाँ मुझमें
जाने कब कैसे बिखर गयीं 
कभी मिली थीं खुशियाँ मुझको
जाने कब कैसे बिछड़ गयीं।

जिस दर्द ने मुझको पास बिठाया
उस दर्द का शुक्रिया करता हूँ।
जिस दर्द ने तुमसे मुझे मिलाया
उस दर्द का शुक्रिया करता हूँ।।

आज मिले जो जीवन पथ में
तन्हा छोड़ नहीं तुम जाना
मेरे गीतों में शब्द तुम्हीं हो
मुश्किल है इनका जी पाना।

जिस फर्ज ने तुमसे मुझे मिलाया
उस फर्ज का शुक्रिया करता हूँ।
जिस दर्द ने तुमसे मुझे मिलाया
उस दर्द का शुक्रिया करता हूँ।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        01मार्च, 2021



ऐसे कैसे रहते हो।

ऐसे कैसे रहते हो।  

कितना कुछ सुनते हो सबकी
फिर भी हंसते रहते हो
कुछ बतलाओ मुझसे भी
के ऐसे कैसे रहते हो।।

कितनी ही आवाजों में
तुमने खुद को ढाला है
मुख से उफ ना किया कभी
हँस कर सबको पाला है
आघातों के बीच खड़े हो
फिर भी हँसते रहते हो।
कुछ बतलाओ मुझसे भी
के ऐसे कैसे रहते हो।।

छोटी छोटी इच्छाओं का
सबकी हरदम मान किया
खुद की सारी इच्छाओं का
हरपल ही बलिदान किया
दबी हुई इच्छाएं कितनी
फिर भी हँसते रहते हो।
कुछ बतलाओ मुझसे भी
के ऐसे कैसे रहते हो।।

कितने सूनेपन में तुमको
छुपकर रोते देखा है
रोशन महफ़िल में भी तुमको
 तन्हा होते देखा है
तन्हाई की टीस लिए हो
फिर भी हँसते रहते हो।
कुछ बतलाओ मुझसे भी
के ऐसे कैसे रहते हो।।

तुमको देखा जीवन देखा
पग पग कितनी सीख मिली है
अँधियारा कितना हो गहरा
उम्मीदों से जीत मिली है
तुमको देखा तब है जाना
जीवन किसको कहते हैं।
अब जाकर मैंने भी जाना
के ऐसे कैसे रहते हो।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        28फरवरी, 2021

आँखों की बातें।

आंखों की बातें।   

दिल की कितनी ही बातें
दिल ही में रह जाती हैं
होंठ कहें चाहे ना कुछ भी
आँख मगर कह जाती है।।

कोई कितना दूर रहे पर
यादों में रहता है हरदम
परछाईं बन चलता रहता
साँसों में बसता है हरदम।

आती जाती साँसें हरदम
गीत उसी के गाती हैं।
होंठ कहें चाहे ना कुछ भी
आँख मगर कह जाती है।।

आज वफ़ा की बातें कितने
अरमानों में झलक रहे हैं
और राहतें दिल के कितने
पैमानों में छलक रहे हैं।

अरमानों के पैमाने भी
सपनों में आती जाती हैं।
होंठ कहें चाहे ना कुछ भी
आँख मगर कह जाती है।।

इक थर्राहट होठों पर है
आँखों में भी बेचैनी है
दिल मे दूर किसी कोने पर
शायद अब भी बेचैनी है।

बेचैनी के कितने ही पल
छुप छुप कर बह जाती है।
होंठ कहें चाहे ना कुछ भी
आँख मगर कह जाती है।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       28फरवरी, 2021





इतिहास बनाने आया हूँ।

इतिहास बनाने आया हूँ।   

चलते फिरते इस जीवन में
जाने क्या क्या होता है
कहीं बिखरते फूल खुशी के
कहीं आसमां रोता है।

हंसते रोते आसमाँ में
उम्मीद जगाने आया हूँ।
इतिहासों को क्या दुहराना
मैं इतिहास बनाने आया हूँ।।

आँखों में अंगारे देखा
जिह्वाओं पर नारे देखा
छोटे से जीवन में हमने
जीत कभी कभि हारे देखा।

हार जीत से ऊपर उठकर
विश्वास जगाने आया हूँ।
इतिहासों को क्या दुहराना
मैं इतिहास बनाने आया हूँ।।

बने बिगड़ते संबंधों में
अपनेपन की पीड़ाएँ हैं
कभी गौर से देखो जब भी
दिखती कितनी क्रीड़ाएँ हैं।

संबंधों में सूनेपन का
वनवास मिटाने आया हूँ।
इतिहासों को क्या दुहराना
मैं इतिहास बनाने आया हूँ।।

इस जीवन की अँगनाई में
धूप छाँव का डेरा है
जिंदापन का एहसास तभी
जब संवादों का फेरा है।

अधरों के मुखरित कंपन में
नव साँस जगाने आया हूँ।
इतिहासों को क्या दुहराना
मैं इतिहास बनाने आया हूँ।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        28फरवरी,2021



इशारा।

इशारा।  

कब मेरे इस मौन को
संवादों का आश्रय मिलेगा
कब मेरे इस कौन को
परिचयों का आशय मिलेगा।

कब मुझे धरती मिलेगी
कब गगन मुझको मिलेगा
कब मिलूँगा खुद से मैं
कब चमन मुझको मिलेगा।

कब मिलेगा मन हमारा
और उपवन कब खिलेगा
कब खिलेंगी मौन कलियाँ
और गुलशन कब खिलेगा।

औरों की उम्मीदों का
कबतक वहन खुशियाँ करेंगी
औरों की इच्छाओं में
कबतक यहाँ खुशियाँ पलेंगी।

जानता हूँ प्रश्न कितने
मौन संवादों में छिपे हैं
और उनकी भावनाएँ
बीच पलकों के छिपे हैं।

अपनी सारी भावनाओं का
तुमसे सहारा चाहता हूँ
मौन को आवाज दूँ
तुमसे इशारा चाहता हूँ।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       25फरवरी, 2021

जीवन अविरल बहता रहता।

जीवन अविरल बहता रहता | 

जीवन अविरल बहता रहता 
कभी सुनता कभी कुछ कहता 
कितनी बातें इसके दिल में 
बिखर सिमट कर चलता रहता | 

कभी पाने की जिद कहीं की 
और कभी दाता बन बैठा 
कभि खोया अपनी ही धुन में 
और कभी याचक बन बैठा | 

कितने स्वप्न तराशे इसने 
खोकर आँखों की नींदें 
कितने दांव लगाए इसने 
अपनी आँखों को मींचें | 

जितने शब्द पिरोये इसने 
उतना इसको मान मिला 
चली लेखनी जब भी इसकी
इसको बस सम्मान मिला | 

इसकी परछाईं ने कितने 
आकारों को गढ़ा यहाँ 
भावों को औ मंतव्यों को
सँभल सँभल कर पढा यहाँ|

आभासों औ अहसासों में 
परिवर्तन ये पलता रहता 
जीवन अविरल बहता रहता 
जीवन अविरल बहता रहता ||   

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       23फरवरी, 2021

*सफर को कोई नाम दें।*   

इस खामोशी को जुबान दें
आओ इसे कुछ आयाम दें
कब तलक यूँ ही चलते रहेंगे
सफ़र को अब कोई नाम दें।।

कब गुजरीं लम्हों में सदियाँ
अभी तलक ये पता ना चला
यूँ तो मिलते रहे हम सदा
खुद से अभी तक ना मैं मिला।

चलो खुद से मिलें दोनों
एक दूजे को कुछ नाम दें।
कब तलक यूँ ही चलते रहेंगे
सफर को अब कोई नाम दें।।

यूँ चले कितनी हसरत लिए 
आशाओं के जलाए दिए
कल लिखे थे जो गीत हमने
तिरे होठों ने उनको छुए।

चलो फिर से सारे गीतों को 
मिलकर के अपनी जुबान दें।
कब तलक यूँ ही चलते रहेंगे
साफर को अब कोई नाम दें।।

न तेरी ख़ता न मेरी ख़ता
हुआ कुछ मगर किसे है पता
अब भी दिलों में थोड़ी कसक
तुझे ये पता मुझे भी पता।

चलो आज फिर, वहीं पर मिलें
 एक दूजे को ईनाम दें।
कब तलक यूँ ही चलते रहेंगे
सफर को अब कोई नाम दें।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय

       हैदराबाद

       22फरवरी, 2021

सफर को कोई नाम दें।

सफर को कोई नाम दें।   

इस खामोशी को जुबान दें
आओ इसे कुछ आयाम दें
कब तलक यूँ ही चलते रहेंगे
सफ़र को अब कोई नाम दें।।

लम्हों में सदियाँ कब गुजरी 
मुझे अब तलक पता ना चला
यूँ तो मिलते रहे सदा हम
पर खुद से अभी तक ना मिला।

चलो खुद से मिलें हम दोनों
एक दूजे को कुछ नाम दें।
कब तलक यूँ ही चलते रहेंगे
सफर को अब कोई नाम दें।।

यूँ चले कितनी हसरत लिए 
आशाओं के जलाए दिए
कल लिखे जो भी गीत हमने
तिरे होठों ने उनको छुए।

चलो फिर उन सारे गीतों को 
मिलकर हम अपनी जुबान दें।
कब तलक यूँ ही चलते रहेंगे
साफर को अब कोई नाम दें।।

न तेरी ख़ता न मेरी ख़ता
हुआ कुछ मगर किसे है पता
अब भी दिलों में थोड़ी कसक
तुझे ये पता मुझे भी पता।

चलो आज फिर, वहीं पर मिलें
 एक दूजे को ईनाम दें।
कब तलक यूँ ही चलते रहेंगे
सफर को अब कोई नाम दें।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       22फरवरी, 2021

तुम आज गवाही देना।

तुम आज गवाही देना।   

बिखर रहे इन हालातों में
बस थोड़ी परछाईं देना
मौन हुआ हूँ भले यहाँ मैं
पर तुम आज गवाही देना।।

पल-पल अभ्यासों के बल पर
कितने विश्वासों के बल पर
चला पंथ उम्मीद सहारे
कितने अहसासों के बल पर।

हुई चूक जो कहीं कभी तो
तुम उसकी सुनवाई देना।
मौन हुआ हूँ भले यहाँ मैं
पर तुम आज गवाही देना।।

छोटे छोटे प्रण के बल पर
इच्छा का सम्मान किया है
गंतव्यों तक जाने खातिर
मैंने सबका मान किया है।

मेरे प्रण की पीड़ाओं की
तुम बस आज दवाई देना।
मौन हुआ हूँ भले यहाँ मैं
पर तुम आज गवाही देना।।

इक बस तेरा साथ मुझे है
सारी उम्मीदों से बढ़कर
मैंने अपना जीवन पाया
इक बस तुझसे ही मिलकर।

मेरे अहसासों से मिलकर
तुम अपनी परछाई देना।
मौन हुआ हूँ भले यहाँ मैं
पर तुम आज गवाही देना।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       19फरवरी,2021


गान ऐसा दीजिए।

गान ऐसा दीजिए।  

पीत पुष्प पीत पात
पीत वसन ओढ़ रही
प्रीत का मधुर प्रभाव
गात गीत छेड़ रही।

ऋतु बसंत आ रही
भावों को लुभा रही
पुष्प पुष्प प्रीत बनी
मधुमय बन पिला रही।

खेत की ये क्यारियाँ
सरसों की बालियाँ
पीत रंग रँगी चुनर
धरती लहलहा रही।

पुष्प नूतन खिल रहे
नवपात वृक्ष खिल रहे
दूर क्षितिज मुक्त भाव
धरती गगन मिल रहे।

आज कामनाओं को
उड़ान नई दीजिए
भावना में प्रेम हो
गान ऐसा दीजिए।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
      15फरवरी, 2021


कर्तव्यों की देहरी।

कर्तव्यों की देहरी।  

मौन विकल हो जाता है
एहसास शिथिल पड़ जाते हैं
कर्तव्यों के पुण्य पंथ पर
जब स्वार्थ कभी अड़ जाते हैं।

नींद हुई ओझल आँखों से
सपनों ने भी मुँह मोड़ा
एहसासों की देहरी पर
अपनों ने लाकर छोड़ा ।

दिल करता है मौन पहनकर
खुश सपनों में फिर खो जाऊँ
बहुत सहा उपहास अभी तक
फिर चेतन से जड़ हो जाऊँ।

बस अपनी दुनिया में जागूँ
खुद से बस खुद को माँगूँ
बस देखूँ निज स्वप्न सुनहरे
खुद की इच्छा से ही जागूँ।

आँख मूँदने भर से केवल
ये सूरज नहीं ढला करता 
अधिकार वही सुरक्षित होता
जो कर्तव्यों की गोद पलता ।

जागृत निशा का प्रहरी जब
अँधियारों से डरना कैसा
कर्तव्यों के पुण्य पंथ से
यूँ डरकर फिर टरना कैसा।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
      15फरवरी, 2021



एक उम्मीद।

एक उम्मीद।   

साँझ ढली है राह थकी है
ओढ़ चली असमानी चादर
थके कदम, पर चले राह में
भरने कुछ सपनों की गागर।

कहे-अनकहे उनके किस्से
व्यवहारों में झलक रहे हैं
फ़टी एड़ियाँ, तप्त पसीने
कदम कदम पर छलक रहे हैं।

पनियायी आँखों में अब भी
सीमित सपनों की गहराई 
संग संग उसके राह चली
उम्मीदों ने ली अँगड़ाई।

चेहरों की मुस्काती सिलवट
सुना रही अनसुनी कहानी
सूरज ढल कर भले छुप गया
ढली नहीं उम्मीद सुहानी।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
     हैदराबाद
     13फरवरी, 2021

कदमों के निशान।

कदमों के निशान।  

तुम चले जिस मार्ग पर
उस मार्ग पर मैं भी चला
तुम पले जिस डाल पर
उस डाल पर मैं भी पला।

पर कौन सी थी बात जो
हम दोनों में थोड़ी अलग
तुम अड़े जिस बात पर
उस बात से हरदम टला।

जब भी देखा मैने तुमको
इक व्यूह का घेरा दिखा
तुम तो रमे उस व्यूह में
पर मुश्किलों में मैं पला।

वेदनाओं के सफर में
क्यूँ चेतनाएँ मौन थी
चेतना की खोज में मैं
हरपल राह कितनी ही चला।

आज भी वीथी पर दिखेंगे
मेरे कदमों के निशान
छोड़ जिसको तुम चले
उस मार्ग मैं हरदम चला।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
      हैदराबाद
      11फरवरी, 2021

सीमित साधन में सपने।

सीमित साधन में सपने।   

कितने ही सपने आंखों के
सीमित साधन से तरस रहे
कितनी ही उम्मीदें पग में
बनकर आशाएँ बरस रहे।

सूर्य उदय से सूर्य ढले तक
कितना लंबा सफर चले हैं
कभी छाँव में पाया कुछ कुछ
कभी धूप में पाँव जले हैं।

धूप छाँव का सफर घना, पर
कभी पाए कभी तरस रहे।
कितने ही सपने आंखों के
सीमित साधन से तरस रहे।।

श्रेष्ठ स्वप्न आंखों में भरकर
उम्मीदों का गान किया है
दृष्टि शिखर पर रखकर हमने
पौरुष का सम्मान किया है।

कर्तव्यों के पथ चलने से
कितने ही जाने अलग रहे।
कितने ही सपने आंखों के
सीमित साधन से तरस रहे।।

मुट्ठी भर आकाश लिए ही
दूर क्षितिज को निकल पड़ा हूँ
उम्मीदों को पाने खातिर
उम्मीदों में रहा अड़ा हूँ।

साँझ ढले जीवन बेला में
कुछ कटु अनुभव, कुछ सरस रहे।
कितने ही सपने आंखों के
सीमित साधन से तरस रहे।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        10फरवरी, 2021

गीतों में जीवन।

गीतों में जीवन।  

मैने तो अपने गीतों में
जीवन सारा लिख डाला
कहीं लिखीं उम्मीदें सारी
कहीं हताशा लिख डाला।

पंक्ति पंक्ति के बीच फासले 
कहीं बहुत तड़पाते हैं
पूर्ण विराम के बाद फासले
वहीं बहुत समझाते हैं।

कुछ मौन पंक्तियों ने फिर भी
बिना कहे सब कह डाला
मैंने तो अपने गीतों में
जीवन सारा लिख डाला।।

कहीं लिखी रिश्तों की बातें
और कहीं किश्तों की बातें
कहीं प्रेम का मौन समर्पण
और कहीं पहचानी घातें।

टीस हृदय की कहीं लिखी है
आस कहीं पर लिख डाला।
मैंने तो अपने गीतों में
जीवन सारा लिख डाला।।

पथ के प्रस्तर से टकराकर
अपनेपन की चाह लिखी
संघर्ष भरे जीवन पथ में
उम्मीदों की राह लिखी।

बनते और बिगड़ते पथ में
सपनों सा जीवन लिख डाला।
मैंने तो अपने गीतों में
जीवन सारा लिख डाला

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       10फरवरी, 2021

उम्र का सफर।

उम्र का सफर। 

जाने कैसा था सफर जिसपे मैं चलता रहा
मन में कितनी ख्वाहिशें लिए मैं पलता रहा।।

इक उम्र की तलाश में, इक उम्र गुजारी मैंने
उम्र की हसरत लिए, उम्र भर चलता रहा।।

ना थी कोई भीड़ और ना कोई था कारवाँ
मंजिलों की होड़ में खुद से ही मिलता रहा।।

उम्र की तलाश में ज़ख्म जितने भी मिले
जख्म के उस दर्द को उम्र से सिलता रहा।।

अब कोई शिकवा नहीं और ना कोई शिकायत
उम्र जीने के लिए मैं उम्र भर चलता रहा।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
      हैदराबाद
      09फरवरी, 2021

कह दो तो बतलाऊँ मैं।

कह दो तो बतलाऊँ मैं।   

मैंने जो तस्वीर बनायी
कह दो तो दिखलाऊँ मैं
अंतर्मन के भावों को
कह दो तो बतलाऊँ मैं।

मन में इक आकाश बुना है
कह दो तो दिखलाऊँ मैं
प्रतिपल तुमको पास सुना है
कह दो तो बतलाऊँ मैं।

और खयालों में मेरे
नहीं कभी कुछ और रहा
बस तेरी ही बातें समझी
नहीं कभी कुछ और कहा।

तुमसे ही आकाश मेरा
कह दो तो दिखलाऊँ मैं
तस्वीरों में तुमको देखा
कह दो तो बतलाऊँ मैं।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        09फरवरी, 2021

शोक क्या करना।

शोक क्या करना।  

नहीं शिकायत शिकवा कोई
अफसोस यहाँ फिर क्या करना
जो मिला नहीं उसकी खातिर
शोक यहाँ फिर क्या करना।।

खामोशी से पाया जिसको
उसका कुछ उल्लास नहीं 
छूट गया है जो इस पथ में
उसका अब संताप नहीं।

उल्लास नहीं किया यहाँ जब
संताप यहाँ फिर क्या करना।
जो मिला नहीं उसकी खातिर
शोक यहाँ फिर क्या करना।।

पलकों से कितने ही अश्रु
रुके कभी, कभि छलक गए
कभी भिंगोया अंतर्मन को
और कभी यूँ  ढलक गए।।

ढलक गए आँसू पलकों से
दोष यहाँ किस पर धरना।
जो मिला नहीं उसकी खातिर
शोक यहाँ फिर क्या करना।।

मिले सफर में जाने कितने
औ जाने कितने छूट गए
साथ चले जो, तेरे अपने
थे गैर यहाँ जो, छूट गए।

बने बिगड़ते रिश्तों का फिर
दोष किसी पर क्या मढ़ना।
जो मिला नहीं उसकी खातिर
शोक यहाँ फिर क्या करना।।

हँस कर जीना सीख लिया जो
उसने ही जीवन जाना है
उसने ही है पाया जग में
जिसने खुद को पहचाना है।

पहचान लिया जिसने खुद को
मोह किसी से क्या करना।
जो मिला नहीं उसकी खातिर
शोक यहाँ फिर क्या करना।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        09फरवरी, 2021






तुमने सुन लिया।

तुमने सुन लिया।   

मैंने तो कुछ कहा नहीं
तुमने मगर सुन लिया
मन में मेरे जो भी था 
तुमने मगर सुन लिया।।

तुमसे अब मैं क्या कहूँ यहाँ
सभी कुछ तुमने कह दिया।
मैंने जो भी कहा नहीं
तुमने मगर सुन लिया।।

तुमसे मिले मुझको लगा
जिंदगी को साहिल मिला
सोई सोई चाहतों के
सपनों को हासिल मिला।

स्वप्न में जो मैंने बुना
तुमने मुझे वो कह दिया।
मैंने तो कुछ कहा नहीं
तुमने मगर सुन लिया।।

अब दुनिया मेरी तुमसे शुरू
तुमसे ही हैं सपने मेरे
तुमसे सारी आशाएँ हैं
तुमसे ही अब साँसें मेरी।

मेरि खुशनसीबी है ये
जो तुमने मुझे चुन लिया।
मैंने तो कुछ कहा नहीं
तुमने मगर सुन लिया।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       08फरवरी, 2021



आमंत्रण।

आमंत्रण।   

जब मन के भाव व्यथित हो 
मन ही मन अकुलाते हैं
उम्मीदों के घायल पक्षी
घुट घुट कर तड़पाते हैं।

तब शब्दों की सकल वेदना
देती मुझको है आमंत्रण।।

जब सपनों की देहरी पर
खिले फूल मुरझाते हैं
जब नन्हीं नन्हीं आंखों के
अधखिले स्वप्न झर जाते हैं।

तब शब्दों की सकल वेदना
देती मुझको है आमंत्रण।।

जब कौतुक दिखलाकर कोई
भोलापन बहलाते हैं
जब झूठे झूठे वादों से
स्वप्न दिखा फुसलाते हैं।

तब शब्दों की सकल वेदना
देती मुझको है आमंत्रण।।

आवाजों की दुनिया में 
जब कोई गुमसुम होता है
सुविधाओं के आँगन में
जब कोई भूखा सोता है।

तब शब्दों की सकल वेदना
देती मुझको है आमंत्रण।।

किसी कोख से नन्हीं कोई
अमिट प्रश्न दे जाती है
लिंगभेद के जाने कितने
प्रश्न हमें दे जाती है।

तब शब्दों की सकल वेदना
देती मुझको है आमंत्रण।।

जब लपटों में झुलस जिंदगी
चीखों में शोर मचाती है
जब अल्हड़ सी दुनिया कोई
पैसों पर बिछ जाती है।

तब शब्दों की सकल वेदना
देती मुझको है आमंत्रण।।

आकाशों की छाँवों खातिर
मुक्त कलम बँध जाती है
जब ताकत की चौखट पर
गान नया लिख जाती है।

तब शब्दों की सकल वेदना
देती मुझको है आमंत्रण।।

मेरे शब्दों में बसकर के
मुझको इतनी शक्ति देना
सबके भावों को दर्शाऊँ
मुझको ऐसी भक्ति देना।

 भरूँ हृदय में प्रेम सभी के
और सभी को दूँ आमंत्रण।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       08फरवरी, 2021

बात अभी भी बाकी है।

बात अभी भी बाकी है।   

दीप बुझाऊँ कैसे बोलो
रात अभी भी बाकी है
कहो विदाई कैसे दे दूँ
बात अभी भी बाकी है

चलो सुनाओ कोइ कहानी
नई कहो या कोइ पुरानी
मन के भावों को पुचकारे
अनजानी हो या पहचानी।

अनुमति तुमको कैसे दे दूँ
जज्बात अभी भी बाकी है।
कहो विदाई कैसे दे दूँ
बात अभी भी बाकी है।।

कदम कदम पर कितनी बातें
कितनी ही अभिलाषा हैं
कब शुरू हुआ कब हुआ खतम
जीवन की कैसी गाथा है

जीवन की गाथाएँ कितने
अध्यायों में बाकी हैं।
कहो विदाई कैसे दे दूँ
बात अभी भी बाकी है।।

उम्मीदों का सफर शुरू है
सपनों की परछाईं में
खुशियाँ मुझको आज मिली हैं
तुझसे ही अँगनाई में।

तुमसे मिलकर मैंने जाना
उम्र अभी भी बाकी है।
कहो विदाई कैसे दे दूँ
बात अभी भी बाकी है।।
✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        06फरवरी, 2021

मेरे मन की कब समझोगे।

मेरे मन की कब समझोगे।  

मैं सहज भाव से ओतप्रोत
तुम उम्मीदों के मूलस्रोत
मैं भावों की सहज प्रवृत्ति
तुम आशा के सहस्रस्रोत।

शीश झुका करता मैं वंदन
मेरे मन की कब समझोगे।।

नव पल्लव सा डोल डोल
बंद हृदय को खोल खोल
कहो समर्पित कर दूँ मैं भी
अपने भावों को बोल बोल।

विनम्र हृदय करता है क्रंदन
मेरे मन की कब समझोगे।।

तुम अंतस की मधुर अल्पना
मुक्त हृदय की सकल कल्पना
तुम ही उम्मीदों के हिमगिरि
पवित्र भाव, और संकल्पना।

पवित्र भाव करते अभिनंदन
मेरे मन की कब समझोगे।।

मोक्ष तुम्हीं अभिषेक तुम्हीं
आशा और संकेत तुम्हीं
भावों का प्रतिपादन तुम हो
और मेरे साकेत तुम्हीं।

तुमसे ही अंतस के बंधन
मेरे मन की कब समझोगे।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        05फरवरी, 2021


सुलगती आशाएँ।

सुलगती आशाएँ।   

उम्मीदें बाधाओं में घिर
बदल रही हैं परिधानों में
सुलग रही आशाएँ कितनी
जीवन के कुछ व्यवधानों में।

मोड़ मोड़ पर क्षोभ बड़े हैं
जाने कितने लोभ खड़े हैं
मचल रही यूँ आज चेतना
लगता जैसे रोक पड़े है।

बिलख रही है आज वेदना
दिवस ढले अवसानों में।
सुलग रही आशाएँ कितनी
जीवन के कुछ व्यवधानों में।।

आकृतियों के कितने बंधन
विकृतियों में सुलग रहे हैं
स्वीकृतियों के कितने अवसर
अनुकृतियों में विलग रहे हैं।

विकृतियाँ स्वीकृतियाँ भी अब
कुतुक बनी हैं पैमानों में।
सुलग रही आशाएँ कितनी
जीवन के कुछ व्यवधानों में।।

भ्रम से आच्छादित मंडल में
उपहारों का कुछ मोल नहीं
उम्मीदों आशाओं से भी
जीवन क्या अनमोल नहीं।

भ्रम का अनुपालन क्यूँ लगता
मोक्ष दे रहा अनुमानों में।
सुलग रही आशाएँ कितनी
जीवन के कुछ व्यवधानों में।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       04फरवरी, 2021

मैंने जीना सीख लिया।

मैंने जीना सीख लिया।   

मुक्त कर अपने हृदय को
मैंने जीना सीख लिया
अंतस के सारे घावों को
मैंने सीना सीख लिया।

स्वप्न जीवन के बहुत थे
पर ध्वस्त कितने हो गए
कुछ राह को मंजिल मिली
अभ्यस्त कितने हो गए।

बनते बिगड़ते स्वप्न को
मैंने सीना सीख लिया।
मुक्त कर अपने हृदय को
मैंने जीना सीख लिया।।

वक्त ही सब सर्जना है
औ वक्त ही संजीवनी
वक्त ही अनुमान सारे
औ वक्त ही चेतावनी।

वक्त के अमृत गरल सब
मैंने पीना सीख लिया।
मुक्त कर अपने हृदय को
मैंने जीना सीख लिया।।

कुछ रंग जीवन के चुने
कुछ कल्पना किरणावली
पर क्या करूँ हालात का
जो दे गए प्रश्नावली।

प्रश्नावली के प्रश्न में
मैंने जीना सीख लिया।
मुक्त कर अपने हृदय को
मैंने जीना सीख लिया।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       03फरवरी, 2021

तेरा प्यार अब दवा हो गया।

तेरा प्यार अब दवा हो गया।  

न तेरी खता थी, न मेरी खता थी
मगर कोई अपना खफ़ा हो गया है।

खबर कुछ नहीं है खता किसकी थी वो
सनम वो मगर अनमना हो गया है।

दिए ख्वाब जिसने, सुहाने सफर के
वही रास्ते से जुदा हो गया है।

कभी साथ जिसका गँवारा नहीं था
सुना है कि अब वो खुदा हो गया है।


मुझे क्या किसी भी दवा की जरूरत 
तेरा प्यार ही अब दवा हो गया है।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       01फरवरी, 2021



यूँ ही धुँआ नहीं होता।

यूँ ही धुँआ नहीं होता।  

कुछ वजह रही होगी कोई यूँ ही जुदा नहीं होता।
कुछ आग लगी होगी वरना यूँ ही धुँआ नहीं होता।।

यूँ तो हर कोई अब रहता है खफा एक दूजे से
शायद अब सबके दिल में पहले सा खुदा नहीं होता।।

यूँ तो हर दफा दोष शमा का ही नहीं होता यारों
कुछ कसक रही होगी यूँ परवाना फना नहीं होता।।

ना जाने कितनी ही आहों का असर फिजाओं में है
वरना शाखों से वो पत्ता यूँ ही जुदा नहीं होता।।

कोई मतलब नहीं महज साथ रहने से यहाँ तब तक
जब तक की दिल से दिल तक का कोई वास्ता नहीं होता।।

कुछ तो वजह रही होगी सर झुकाने की किसी दर पर
कभी भी कोई यूँ ही तो यहाँ पर खुदा नहीं होता।।

कोई तो चोट गहरी ही लगी होगी दिल पर यारों
वरना कभी कोई यूँ ही यहाँ बेवफा नहीं होता।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       01फरवरी, 2021



हाय करूँ क्या रुसवाई।

हाय करूँ क्या रुसवाई।  

शब्द शब्द बंजारे मेरे
भाव चीखती तन्हाई 
उम्मीदें भी बनी मुसाफिर
हाय करूँ क्या रुसवाई।

आशाओं का जीवन हमने
उम्मीदों में पाला था
अपनी कितनी इच्छाओं को
हमने हँस कर टाला था।

उन इच्छाओं की राहों में
मुश्किल थी आवाजाही।
उम्मीदें भी बनी मुसाफिर
हाय करूँ क्या रुसवाई।।

बहुरंगी सपने आंखों में
सजे मगर फिर बिखर गए
कितने ही अवसर राहों में
मिले मगर फिर गुजर गए।

गुजर गए उन अवसर की
नहीं रही अब सुनवाई।
उम्मीदें भी बनी मुसाफिर
हाय करूँ क्या रुसवाई।।

अब कोई अफसोस नहीं 
मुझे किसी भी बातों का
जाने कितने दिवस गुजर गए
हिसाब लगाते रातों का।

अपनी ही कोइ चूक थी शायद
जो मुझे मिली ये तन्हाई।
उम्मीदें भी बनी मुसाफिर
हाय करूँ क्या रुसवाई।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
      31जनवरी, 2021

पथिक सँभल कर चलना तुम।

पथिक सँभल कर चलना तुम।  

गर चल रहे हो सत्य पथ पर
पथिक सँभल कर चलना तुम
पथ में अगणित झूठ मिलेंगे
जरा सँभल कर मिलना तुम।

इस पथ पर तुमसे पहले
कितनों ने चल कर देखा है
पग पग कितने शूल चुभे पर
पीछे मुड़ कर ना देखा है।

इस पथ पर चलने से पहले
थोड़ा सोच समझना तुम।
गर चल रहे हो सत्य पथ पर
पथिक सँभल कर चलना तुम।।

रिश्तों और मर्यादाओं के
अनगिन प्रश्न तुम्हें मिलेंगे
बदल रहे इन परिवेशों में
तेरे बन कर तुझे छलेंगे।

प्रश्नों में घिरने से पहले
फिर से जरा समझना तुम।
गर चल रहे हो सत्य पथ पर
पथिक सँभल कर चलना तुम।।

संवादों औ परिवादों में
अंतर आज समझना होगा
सत्य मार्ग चलने से पहले
तुमको जरा सँभलना होगा।

सत्य झूठ की परिभाषा को
फिर से आज परखना तुम।
गर चल रहे हो सत्य पथ पर
पथिक सँभल कर चलना तुम।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       29जनवरी, 2021

गीत सुनाने आ जाना।

गीत सुनाने आ जाना।   

मेरे इस सूने आँगन में
दीप जलाने आ जाना
आज उदासी गीत बनी है
गीत सुनाने आ जाना।।

सदियों का जीवन हमने
छोटे पल में सौंप दिया
जो भी गीत बुने मैंने
तेरे पग में सौंप दिया।

मेरे इन गीतों को अपने
अधरों से सहला जाना।
आज उदासी गीत बनी है
गीत सुनाने आ जाना।।

मैंने जो भी गीत लिखे 
गीत अधूरा ना रह जाये
और प्रीत के आँगन में
प्रीत अधूरी न रह जाये।

प्रीत भरे मेरे इस मन को
हौले से सहला जाना।
आज उदासी गीत बनी है
गीत सुनाने आ जाना।।

जीवन के एकाकी पथ पर
मैंने इक दीप जलाया है
तेरी उम्मीदों में मैंने
अपनी उम्मीद मिलाया है।

मेरी उम्मीदों को तुम भी
राह नई दिखला जाना।
आज उदासी गीत बनी है
गीत सुनाने आ जाना।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       28जनवरी, 2021

हथेली पर गुलाबी अक्षर।


हथेली पर गुलाबी अक्षर।  

मन में कितने भाव सुहाने
प्रिय आज हमारे रच डाले
शोख गुलाबी अक्षर तुमने 
आज हथेली पर लिख डाले।।

भीनी भीनी खुशबू फैली
अंतस में तेरे आने से
जीवन मुझको आज मिला है
इक बस तेरे मुस्काने से।

तेरी मुस्काहट ने कितने
अरमान सुहाने रच डाले।
शोख गुलाबी अक्षर तुमने
आज हथेली पर लिख डाले।।

बादामी जीवन कर डाला
बस इक तेरी सुनवाई ने
सपनों ने भी डेरा डाला
आज मधुर अँगनाई में।

पलकों ने अनगिन सपने
फिर आज सुहाने रच डाले।
शोख गुलाबी अक्षर तुमने 
आज हथेली पर लिख डाले।।

नहीं रही अब चाहत कोई
इक बस तुझसे जीवन पाऊँ
भोर खिले या साँझ ढले
बस साथ तुम्हारे मुस्काऊँ।

बस इक तेरे मिलन मात्र ने
कितने सपने हैं रच डाले।
शोख गुलाबी अक्षर तुमने
आज हथेली पर लिख डाले।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       27जनवरी, 2021

आघात।

आघात।   

जितने वादे होठों पर थे
इक एक कर के गुजर गए
आशा की जो किरण दिखी
कुछ अवसादों में बिखर गए।

शांति पूर्ण बैठे हैं कहकर
कैसा ये आघात किया
संविधान की आत्मा पर ही
आज कुठाराघात किया।

मुँह में राम बगल में छूरी
भावों को चरितार्थ किया
शांति म्यान में रख तलवारें
धोखे से आघात किया।

शांति पूर्ण आंदोलन में
हिंसा का स्थान नहीं होता
दंगा करने वालों का
कभी संविधान नहीं होता।

विघटनकारी ताकत है जो
विनयशीलता कब समझी है
जिनके मन में भेद बड़े हों
पुण्यशीलता कब समझी है।

राष्ट्रधर्म बस यही सिखाता
राष्ट्रप्रमुख औ राष्टप्रथम है
जो जैसी भाषा समझे
उससे वैसा ही उत्तम है।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       27जनवरी, 2021

माँ गंगे।

माँ गंगे।  

कल कल निर्मल अविरल अनहद
प्राणदायिनी मुक्तिवाहिनी माँ गंगे।
सुरसरि पावन मधुर मन भावन
मोक्षदायिनी पुण्यवाहिनी माँ गंगे।
जीवन रक्षिणी विकास वाहिनी
पतितपावनी स्नेहदायिनी माँ गंगे।
झर झर हर हर भर भर स्नेहिल
सुवासित व्यवहारदायिनी माँ गंगे।
मन निर्मल तन कोमल करती
भाव भाव अभिवादन भरती 
भारत भूमि को पावन करती
रोगहारिणी जीवदायिनी माँ गंगे।
जन उद्धारिणी जीवन तारिणी
जन कष्टनिवारिणी है माँ गंगे
हिमाच्छादित गोमुख से निकली
विष्णुपदी स्वर्ग का है वरदान
अमृतवाहिनी पंचामृत जल
माँ जन जन भरती प्राण।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
      हैदराबाद
      26जनवरी, 2021


माँ गंगे।

माँ गंगे।  

कल कल निर्मल अविरल अनहद
प्राणदायिनी मुक्तिवाहिनी माँ गंगे।
सुरसरि पावन मधुर मन भावन
मोक्षदायिनी पुण्यवाहिनी माँ गंगे।
जीवन रक्षिणी विकास वाहिनी
पतितपावनी स्नेहदायिनी माँ गंगे।
झर झर हर हर भर भर स्नेहिल
सुवासित व्यवहारदायिनी माँ गंगे।
मन निर्मल तन कोमल करती
भाव भाव अभिवादन भरती 
भारत भूमि को पावन करती
रोगहारिणी जीवदायिनी माँ गंगे।
जन उद्धारिणी जीवन तारिणी
जन कष्टनिवारिणी है माँ गंगे
हिमाच्छादित गोमुख से निकली
विष्णुपदी स्वर्ग का है वरदान
अमृतवाहिनी पंचामृत जल
माँ जन जन भरती प्राण।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
      हैदराबाद
      26जनवरी, 2021


कलम से प्रार्थना।

कलम से प्रार्थना।  

शब्द शब्द में भाव मधुरतम
सब मिल गायें प्रेम तराना।
चलो कलम कुछ ऐसा लिख दो
जग जिसको पढ़ हो दीवाना।

जन जन में नव आशा भर दो
उम्मीदें अभिलाषा भर दो
प्रेम मुखर हो हर अधरों पर
अपनेपन की भाषा भर दो।

ऐसा जादू छाए हिय पर
झूमे नाचे गाये तराना।
चलो कलम कुछ ऐसा लिख दो
जग जिसको पढ़ हो दीवाना।।

अनासक्ति में आसक्ति भर दे
अनुनय विनय औ भक्ति भर दे
ऐसा कुछ तो मंत्र बता दो
एहसासों में  शक्ति भर दे।

शुद्ध भाव हो क्लेश मिटे सब
सबका सबसे हो याराना।
चलो कलम कुछ ऐसा लिख दो
जग जिसको पढ़ हो दीवाना।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
      25जनवरी, 2021





शौर्य गाथा।

शौर्य गाथा।   

नवनिर्माण का संकल्प ले जिस पंथ पर हो तुम चले
उसपे कितनी भावना इच्छाओं के हैं पुष्प खिले।

राष्ट्रवीरों ने पिरोया है  राष्ट्र को इक सूत्र में
और बाँधा है इसे सद्भावना के सूत्र में
एकता का सूत्र बाँधा प्रीत भरे हिय संबंध में
और बाँधा है इसे प्रिय विश्वास के अनुबंध में।

स्वर्णाक्षरों से लिखी इतिहास की कितनी कथाएँ
और जन जन में भरी अहसास की कितनी विधाएँ।
इतिहास के पन्नों में अमिट छाप बन बादल चले
उसमें कितनी भावना इच्छाओं के हैं पुष्प खिले।।

क्रांति का दीपक जला कर राष्ट्र को आलोकित किया
आँधियों तूफानों में भी खुद को ना विचलित किया
लिख गए अपने लहू से इतिहास नूतन राष्ट्र का
राजपथ पर आहूति देकर राष्ट् को पुलकित किया।

त्याग  बलिदान से आलोकित हुईं चारों दिशाएं
दे कर के खुशियाँ भोर की हर लीं सारी व्यथाएँ।
प्रण राष्ट्र के निर्माण का ले शूल पर प्रतिपल चले
उसमें कितनी भावना इच्छाओं के हैं पुष्प खिले।।

भूल नहीं सकता कभी राष्ट्र, त्याग जो तुमने किया
और अपने पुरुषत्व से कभी राष्ट्र न झुकने दिया
चढ़ शत्रु की छाती पे तुमने राष्ट्र का गौरव लिखा
हँसकर इस पुण्य पंथ में जीवन समिध अपना किया।

मृत्यू से संघर्ष कर के राष्ट्र की बदली दशाएं
और अपने त्याग से लिख दिये कितनी ही कथाएँ।
संघर्षों के पथ पर सदा निर्भीक होकर तुम चले
उसमें कितनी भावना इच्छाओं के हैं पुष्प खिले।।

राष्ट्र फिर से घिर रहा है अतिवाद के जंजाल में
औ शत्रु ताक में है खड़ा फिर आक्रमण की चाल में
झूठ का करके दिखावा वो सत्य को ढँकने चले 
औ सोचते वो हैं सफल अपनी बुनी इस चाल में।

है नहीं मालूम निगहबान हैं भारत की हवाएँ
और उनके शौर्य से महक रही हैं सारी फ़िजाएँ।
शौर्य की अगणित कहानियाँ भर के भावों में चले
उसमें कितनी भावना इच्छाओं के हैं पुष्प खिले।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        24जनवरी, 2021




जीवन की गाथा।

जीवन की गाथा।   

ऐसे कैसे मैं लिख डालूँ
इस जीवन की गाथाएँ
तुम चाहो तो चिन्हित कर लो
जीवन की दारुण गाथाएँ।

शब्दों का आलिंगन करके
वाक्यों का निर्माण हुआ
पंक्ति पंक्ति उम्मीदें डालीं
तब जाकर परिमाण हुआ।

उम्मीदों के अनुच्छेदों में
छुपी हैं कितने आशाएँ।
तुम चाहो तो चिन्हित कर लो
जीवन की दारुण गाथाएँ।।

सपनों के आँगन में कितनी
इच्छाओं पर दाँव लगाए
सफल हुए कभि हुए विफल
हर मौसम में पर मुस्काये।

हार जीत के उन भावों में
छुपी हैं कितनी कविताएँ।
तुम चाहो तो चिन्हित कर लो
जीवन की दारुण गाथाएँ।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       22जनवरी, 2021



प्रभु मिलन की आस।

प्रभु मिलन की आस।   

श्री राम मिलन की आस लिए
मैं ना सोती ना जगती हूँ
कब आओगे प्रभुवर मेरे
मैं सूनी राहें तकती हूँ।।

हृदय भक्ति का भाव लिए
बस तुमको ही ध्यान किया
छोड़ चुकी सब नेह प्रलोभन
बस तेरा अनुमान किया।

उन अनुमानों को अपनी
उँगली पर मैं गिनती हूँ।
कब आओगे प्रभुवर मेरे
मैं सूनी राहें तकती हूँ।।

भटक नहीं जाये मन मेरा
खुद से नाता तोड़ लिया
तुम में खो जाने की खातिर
तुमसे नाता जोड़ लिया।

सांझ ढले जीवन बेला में
भोर सुहानी तकती हूँ।
कब आओगे प्रभुवर मेरे
मैं सूनी राहें तकती हूँ।।

जन जन के मन में प्रभु मेरे
मधुर मनोहर भाव जगाना
लोभ मोह प्रतिघात रोष के
दूषित भाव दूर हटाना।

कर जोड़े प्रभु चरणों में
मैं स्वयं समर्पित करती हूँ।
कब आओगे प्रभुवर मेरे
मैं सूनी राहें तकती हूँ।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       22जनवरी, 2021

अहसास।

अहसास। 

इक बार कभी जो वक्त मिले
बीती पर नजर फिरा लेना
भूले बिसरे अहसासों को
हौले से सहला लेना।।

कहीं सुलगते भाव कभी
हैं कहीं धड़कती आशाएँ 
कहीं सुनहरे ख्वाब सुहाने
कहीं प्रेम की परिभाषाएं ।

भावों के सागर में खुद को
बरबस ही नहला लेना।
भूले बिसरे अहसासों को
हौले से सहला लेना।।

सुख भरे सुनहरे हैं बादल
विश्वास प्रेम जीवन साथी
आशाएँ अवलोकन करती
इच्छाएं सब मधुमाती।

इच्छाओं के आँचल में
खुद को फिर बहला लेना।
भूले बिसरे अहसासों को
हौले से सहला लेना।।

सृजन युक्त जीवन की राहें
मंजिल को तकती हैं बाहें
दूर गगन में ढलता सूरज
मलय महकती आशाएँ।

आशाओं की बाती लेकर
फिर नवदीप जला लेना।
भूले बिसरे अहसासों को
हौले से सहला लेना।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        21जनवरी, 2021


जीवन जीना एक कला है।

जीवन जीना एक कला है।  

जीवन जीना एक कला है
भाव जताना एक कहानी।
कहीं कभी दीवाना कहता
और कहीं कोई दीवानी।।

तिनका तिनका जोड़ जाड़ कर
सपनों का महल बनाया है
आशाओं, इच्छा के मोती
से इसको आज सजाया है।

उम्मीदों के दामन में फिर
नित सपनों की नई कहानी।
जीवन जीना एक कला है
भाव जताना एक कहानी।।

कदम कदम पर कितनी बातें
भीतर कितने ही जज्बातें
मौन कहीं आवाज कहीं है
और कहीं हँसती बारातें।

नित नूतन संबंधो की
कहती सुनती एक कहानी।
जीवन जीना एक कला है
भाव जताना एक कहानी।।

विपरीत परिस्थिति से लड़ना
पुण्य पंथ पर आगे बढ़ना
अजय भाव अंतस में भरकर
उच्च शिखर तक कोशिश करना।

हार जीत के भाव से परे
प्रस्तुति की दुनिया दीवानी।
जीवन जीना एक कला है
भाव जताना एक कहानी।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
      हैदराबाद
      21जनवरी, 2021






खुद को समझाने बैठा हूँ।

खुद को समझाने बैठा हूँ।   

भूली बिसरी याद सुहानी
कुछ अनजानी कुछ पहचानी
उन यादों के झुरमुट में मैं
फिर सुस्ताने बैठा हूँ।
उन भूली बिसरी यादों को
फिर आज बुलाने बैठा हूँ।।

शब्द शब्द भावों में बहकर
अनुच्छेदों में गुम हो गए
अल्प कहीं पर पूर्ण विराम
संकेतों में गुम हो गए।
अनुच्छेदों के संकेतों को
फिर अजमाने बैठा हूँ
उन भूली बिसरी यादों को
फिर आज बुलाने बैठा हूँ।।

कितने पन्ने व्यर्थ हो गए
लिखे कहीं कहिं भूल गए
लिखे कहीं जो कुछ पन्नों पर
जाने कब वो शूल हो गए।
शूल चुभे पन्नों से दिल पर
उन को बहलाने बैठा हूँ
उन भूली बिसरी यादों को
फिर आज बुलाने बैठा हूँ।।

कितनी बातें कही अनकही
सुने कहीं, पर कहे नहीं
कितने मन मे दबे रह गए
कुछ भाव बुने पर गुहे नहीं।
कही अनकही उन बातों को
खुद को समझाने बैठा हूँ
उन भूली बिसरी यादों को
फिर आज बुलाने बैठा हूँ।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       20जनवरी, 2021

थोड़ा रूमानी हो जाएं।

थोड़ा रूमानी हो जाएं।  

दफन कर के बेचैनियों को किसी शाम के धुँधलके में
चलो चंद बिखरी रागनियों से दिल को बहलाया जाए।
चलो थोड़ा रूमानी हो जाया जाए।।

कब तक खामोशियों के दामन में सिर रखकर के रहोगे
चलो फिर से किसी की सुनें, किसी को अपनी सुनाया जाए।
चलो थोड़ा रूमानी हो जाया जाए।।

कब तक मन के दरवाजों में भावों को बंधक रखोगे
अंतर्मन के एहसासों से कुछ भाव जगाया जाए।
चलो थोड़ा रूमानी हो जाया जाए।।

बदल जाती है सारी कायनात इक बस मुस्कुराने से
चलो किसी के दिल मे बसकर फिर गुदगुदाया जाए।
चलो थोड़ा रूमानी हो जाया जाए।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
      हैदराबाद
      20जनवरी, 2021

उम्मीद।

     उम्मीद

जीवन है अनमोल धरोहर
व्यर्थ इसे ना तुम करना
उपवन है ये मधुर मनोहर
एहसासों से सिंचित करना।

इक राह अकेली चली दूर तक
अगणित मोड़ों तक है जाना 
कुछ अनजानी कुछ पहचानी
मीलों तक है चलते जाना ।

जाने कितने मोड़ मिलेंगे
इन राहों पर आते जाते
मोड़ मोड़ से जुड़ते जुड़ते
मीलों तक हैं राह दिखाते।

इक मोड़ कहीं छूटेगी जब
दूजे तक तब है जाना ।
कुछ अनजानी कुछ पहचानी
मीलों तक है चलते जाना।।

सूनी सूनी राहें माना
सूने सब रिश्ते नाते
सूनी इच्छाओं की माला
मन में कितने भाव जगाते।

सूनी यादों का संचय ले
खुद को फिर से है पाना।
कुछ अनजानी कुछ पहचानी
मीलों तक है चलते जाना।।

इक छोटी सी कहीं रोशनी
जब राहों से मिल जाती है
बीती इच्छाओं के कितने
स्वप्न पुनः वो दे जाती है।

उन सपनों की देहरी तक
हमको तो है आना जाना।
कुछ अनजानी कुछ पहचानी
मीलों तक है चलते जाना।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       19जनवरी, 2021




आगे बढ़ कर के रहूँगा।

आगे बढ़ कर के रहूँगा।  

ली प्रतिज्ञा जो यहाँ उसे, मैं पूर्ण वो कर के रहूँगा
गिरूंगा भले फिर उठूँगा आगे बढ़ कर के रहूँगा।।

कर्तव्य पथ पर चल पड़ा हूँ कंटकों का मुझे भय नहीं
मार्ग हो दुष्कर भले चंहुओर खंदक मुझे भय नहीं।

हूँ पथिक जिस पंथ का उस पंथ पर चल कर के रहूँगा
गिरूंगा भले फिर उठूँगा आगे बढ़ कर के रहूँगा।।

जनम मरण का मोक्ष द्वार जीवन इच्छाओं की धरती
संयोग प्रयोग की भूमि, व्यंजनाओं का अवलोकन करती।

भावों का ये प्रस्फुटन, भावों में ढल कर के रहूँगा
गिरूंगा भले फिर उठूँगा आगे बढ़ कर के रहूँगा।।

नीति, नैतिकता, नियम सब मेरे पथ के हैं सहचर
दृढ़-प्रतिज्ञा सत्य समागम पूण्य पन्थ के हैं अनुचर।

भावप्रवण विश्वास प्रबल मोक्ष तक चल कर के रहूँगा
गिरूंगा भले फिर उठूँगा आगे बढ़ कर के रहूँगा।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       19जनवरी, 2021

इकरार करता हूँ।

इकरार करता हूँ।   

दिया है घाव जो तुमने
उसे स्वीकार करता हूँ
कहूँ क्या मैं तुझे अब भी
कि कितना प्यार करता हूँ।

नजर आते हो मुझे हरपल
इन नजारों में फ़िज़ाओं में
मैं कहूँ कैसे यहाँ तुमसे
कि कितना प्यार करता हूँ।

है तुमसे दर्द का रिश्ता
और तुमसे प्यार का रिश्ता
तुम्ही मेरी जरूरत हो
मैं ये इकरार करता हूँ।

है मेरा दर्द ये कैसा
कभी कोई बताएगा 
कि पकड़े नब्ज वो मेरी
सुकून इस दिल को आएगा।

न जाने ठोकरें कितनी
मिली मुझको जमाने में
मगर मैं अब भि कहता हूँ
मैं तुमसे प्यार करता हूँ।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       17जनवरी,2021


कभी यूँ ही।

कभी यूँ ही।   

जिंदगी रास्तों का सुहाना सफर
कभी यूँ ही निकल जाया तू कर।

बारिशों की इस दलदली जमीन पर
कभी यूँ ही कहीं मचल जाया तू कर।

खुद को इतना बचाने का क्या फायदा
कभी धूप में यूँ ही निकल जाया तू कर।

चाँद माना कि तुझसे बहुत दूर है
कभी तो कहीं मचल जाया तू कर।

वो चाँद मुझसे माना बहुत दूर है
कभी मेरा चाँद बन आया तू कर।

दर्द तो दर्द है, ये बहुत अनमोल है
यूँ ही आँखों से न बहाया तू कर।

ज़िंदगी तेरी यूँ ही खिल जाएगी
बस यूँ ही कभी मुस्कुराया तू कर।

लौटना है तुझे सभी जानते हैं ये
लौटने को सही कभी आया तू कर।

दिल मिले ना मिले अब ये जरूरी नहीं
नफरतों से सही नजर मिलाया तू कर।

जिंदगी रास्तों का सुहाना सफर
कभी यूँ ही निकल जाया तू कर।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
      16जनवरी, 2021

भाव तड़पते देखा है।

भाव तड़पते देखा है।    

जब जब मैंने बस्ती में
रात सिसकते देखा है
सच कहता हूँ इस दिल में
इक भाव तड़पते देखा है।

ऊँचे ऊँचे पैमानों की
बातों की कोई चाह नहीं
घाव मिले हैं जिन लोगों से
मलहम की उनसे चाह नहीं।

मैंने भारत में भारत की
जब आह निकलते देखा है।
सच कहता हूँ इस दिल मे
इक भाव तड़पते देखा है।।

निज स्वार्थ की बेदी पर जब
न्यायों का अपमान बड़ा हो
जनतन की इच्छा के बदले
सत्ता का अभियान बड़ा हो।

ऐसे अभियानों को हमने
जब राह भटकते देखा है।
सच कहता हूँ इस दिल में
इक भाव तड़पते देखा है।।

कभी सुना था हमने भी
धन, दौलत औ रिश्ते-नाते 
नैतिकता के प्रतिमानों पर
इक दूजे को राह दिखाते।

अपने ही घर में जब हमने
ये भाव बिखरते देखा है।
सच कहता हूँ इस दिल में
इक भाव तड़पते देखा है।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
      16जनवरी, 2021



राष्ट्र वंदन।

  राष्ट्र वंदन।   

हिमशिखरों से छनकर दिनकर
प्रतिदिन जिसे जगाती है
पहनाकर हीरक हार जिसे
नवजीवन राग सुनाती है।

रश्मि किरण हैं जिसका चंदन
उषा काल करती खुद वंदन
अपना भारत पुण्य धरा वो
पग पग जीवन, कण कण नंदन।

नदियाँ इसकी जीवन धारा
मन निर्मल कोमल तन सारा
निर्झर मीठा राग सुनाते
प्रकृति ने है रूप निखारा।

खेतों खलिहानों में भारत
नित नूतन गीत सुनाती है
धरती पर मुस्कान बिखेरे
जन गण मन हरषाती है।

ऋषि मुनि वीरों की धरती
विद्वानों देवों की धरती
ज्ञान, ध्यान योगों की जननी
गीता, वेद, पुराणों की धरती।

ऊँचे पर्वत जहाँ शीश नवाये
सागर जिसका चरण पखारे
नीति, नियम नैतिकता खातिर
दुनिया जिसकी ओर निहारे।

ऐसा है अपना भारत
जिसपर हमको अभिमान सदा 
जियें मरें बस इसकी खातिर
प्रभु हमको दो वरदान सदा।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
      15जनवरी, 2021








मौलिक उन्मेष।

मौलिक उन्मेष।   

दीप जले बस महलों में
तो रोशन देश नहीं होता
मुट्ठी भर की खुशियों से
मौलिक उन्मेष नहीं होता।

इक फूल खिला है गमलों में
इक फूल बिठा है सड़कों पर
इक फूल गुँथा है गजरे में
इक फूल दिखा है कचरे में।

हर फूलों की किस्मत में 
अच्छा परिवेश नहीं होता।
मुट्ठी भर की खुशियों से
मौलिक उन्मेष नहीं होता।।

शहर बसे हैं दूर गाँव से
आवाज वहाँ कब जाती है
मीलों राह चली तब जाकर
अहसासों को पाती है।

अहसासों की मंजिल का
कोई अवशेष नहीं होता।
मुट्ठी भर की खुशियों से
मौलिक उन्मेष नहीं होता।।

है दस्तूर अजब दुनिया का
उगता सूरज सब तकते हैं
समय समय का चक्कर है
इच्छाओं से कब थकते हैं।

इच्छाओं की राहों में पर
कोई अतिशेष नहीं होता।
मुट्ठी भर की खुशियों से
मौलिक उन्मेष नहीं होता।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       13जनवरी, 2021



मौन अभिव्यक्ति।

मौन अभिव्यक्ति।  

कल्पनाओं के व्योम पर
कितनी इच्छाएं हैं ठहरी
शब्द अधरों पर ठहर कर
मौन बन बैठे हैं प्रहरी।

व्याकरण को दोष देकर
वाक्य को हरपल सजा दी
और इसकी पृष्ठभूमि में
कितनी भाषाएं मिला दी।

अभिव्यक्ति की सीमाओं पर
नजरें वो जा कर के ठहरीं।
शब्द अधरों पर ठहर कर
मौन बन बैठे हैं प्रहरी।।

और तुमसे क्या कहूँ मैं
जाने स्वप्न थे क्या क्या यहाँ
बन के साधक जब चला मैं
आये कितने अवरोधन यहाँ।

सेज सपनों की सजी जब
यामिनी की नींद गहरी।
शब्द अधरों पर हैं ठहरे
मौन बन बैठे हैं प्रहरी।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       12जनवरी, 2021




कैसी फैली है लाचारी।

कैसी फैली है लाचारी।   

भूतकाल से नहीं शिकायत
वर्तमान से भेद है भारी
पर दोनों के केंद्रबिंदु में
कैसी फैली है लाचारी।।

कहते हैं सब सेवक खुद को
पर सेवा का मोल लगाते हैं
कहीं उठी जब बात कभी
बस मुद्दों से भटकाते हैं।

लोकतंत्र तब मंद हुआ जब 
 सुविधाएं मुद्दों पर भारी।
पर दोनों के केंद्रबिंदु में
कैसी फैली है लाचारी।।

सुविधाओं की जन्नत में औ
अट्टहासों के बीच खड़े हैं
कैसा रुदन कैसा क्रंदन
चिंताओं में कौन पड़े हैं।

चिकनी चुपड़ी सड़कें अब
पगडंडी पर पड़ती भारी।
पर दोनों के केंद्रबिंदु में
कैसी फैली है लाचारी।।

आगे बढ़ना ही जीवन है
पर कदमों पर ध्यान करो
स्वप्निल जीवन की खातिर
कल का ना अपमान करो।

कल आज और कल का चक्कर
सारे रिश्तों पर है भारी।
पर दोनों के केंद्रबिंदु में
कैसी फैली है लाचारी।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
      12जनवरी, 2021

नूतन अभियान लिए।

नूतन अभियान लिए।  

आज राह भी चली सफर में
नूतन इक अभियान लिए
और हवाएँ साथ चली हैं
मधुरिम सी मुस्कान लिए।

पुण्य पंथ है पथिक तिहारा
नित नूतन संकल्प यहाँ
मार्ग प्रशस्त हो अभियानों के
कहते सभी प्रकल्प यहाँ।

तेरे सारे अनुमानों औ
उम्मीदों का आकाश लिए।
आज राह भी चली सफर में
नूतन इक अभियान लिए।।

थक कर बैठ नहीं तुम जाना
बाधाओं विपदाओं से
हार नहीं जाना प्रिय मेरे
प्रकृति की आपदाओं से।

दिनकर तेरे साथ चल रहा
खुशियों का अनुमान लिए।
आज राह भी चली सफर में
नूतन इक अभियान लिए।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
      हैदराबाद
      06जनवरी, 2021

ठौर चाहिए लोकतंत्र को।

ठौर चाहिए लोकतंत्र को।   

लोकतंत्र सड़कों पर बैठा
तकता लालकिले की ओर है
आंखों में अश्रु, कुछ सपने
बस चाह रहा एक ठौर है।

कभी शीत से देह ठिठुरती
कभी ताप झुलसा जाती है
कभी कोई तीखी सी वाणी
चुभकर के तड़पा जाती है।

कभी नहीं सोचा था ऐसा
ये आया कैसा दौर है।
आंखों में अश्रु, कुछ सपने
बस चाह रहा एक ठौर है।।

आजादी से हमने अब तक
कितनी ही उम्मीदें पाली
कुछ उम्मीदें पूर्ण हुई हैं
कुछ उम्मीदें अब भी खाली।

इन उम्मीदों को दामन में
क्या मिला नहीं कभी ठौर है।
आँखों मे अश्रु, कुछ सपने
बस चाह रहा एक ठौर है।।

राजनीति के प्रांगण में क्यूँ
बैठी जनता सिसक रही है
पक्ष-विपक्ष के साये में चर्चा
इत-उत पल-पल खिसक रही।

जाने किस नूरा कुश्ती में
पिसा लोकतंत्र का दौर है।
आँखों मे अश्रु, कुछ सपने
बस चाह रहा एक ठौर है।।

मशाल जलाये उम्मीदों की
बस लालकिले को तकता है
लोकतंत्र क्या सत्ता खातिर
जनता के आगे झुकता है।

और नहीं कोई शब्द यहाँ
जिसे कलम लिखे कुछ और है।
आँखों मे अश्रु, कुछ सपने
बस चाह रहा एक ठौर है।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       06जनवरी, 2021




प्रीत के आँगन में।

    प्रीत के आँगन में।   

शीतल चंचल मधुर चाँदनी
भावों को महकाती है
जब जब देखूँ रूप सुनहरा
हिय में हूक जगाती है। 

चंदन सी काया है तेरी
प्रीत भरा है अंग अंग में
मेरा मन बन भ्रमर डोलता
तेरी प्रीत के आँगन में।

तेरे नैनों की थिरकन
कितना कुछ कह जाती है।
जब जब देखूँ रूप सुनहरा
हिय में हूक जगाती है।।

तेरे कदमों की आहट से
जाने कितने गीत सजे
तेरी मुस्कानों से मन में
अगणित सुर संगीत सजे।

तेरे अधरों का कंपन 
बिन कहे बहुत कह जाती है।
जब जब देखूँ रूप सुनहरा
हिय में हूक जगाती है।।

जाग रही है रात साथ में
तारों की बारात सजी है
मेरे घर के आँगन में
खुशियों वाली रात सजी है।

तुझसे मिलने की चाहत
अंग अंग श्रृंगार सजाती है।
जब जब देखूँ रूप सुनहरा
हिय में हूक जगाती है।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       06जनवरी, 2021


हम आहों में भी गाते हैं।

हम आहों में भी गाते हैं।  

कदम-कदम पर उलझन कितनी
हम जिसको सुलझाते हैं
कुछ रुसवाई कुछ तन्हाई
हम आहों में भी गाते हैं।

जीवन जीते हैं हम लेकिन
जीवन को समझा कितना
जैसी उलझन राह खड़ी थी
शायद हमने समझा उतना।

जीवन की पगडंडी पर हम
आखिर तक आते जाते हैं।
कुछ रुसवाई कुछ तन्हाई
हम आहों में भी गाते हैं।।

थोड़ी खुशियाँ हैं दामन में 
थोड़े  दुःख भी साथ चले
जीवन जीने की खातिर
हम मौसम के साथ ढले।

मौसम की कठिनाई से भी
हम छोड़ नहीं कुछ जाते हैं।
कुछ रुसवाई कुछ तन्हाई
हम आहों में भी गाते हैं।।

उलझन-सुलझन की बेदी पर
कभि संबंधों की बली चढ़ी
कभी कहीं कुछ पाया हमने
और कभी कुछ छोड़ चली।

इस छोटे से जीवन में हम
क्या कुछ खोते पाते हैं।
कुछ रुसवाई कुछ तन्हाई
हम आहों में भी गाते हैं।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       04जनवरी, 2021


आ अब लौट चलें।

आ अब लौट चलें।  

लौट चलें आओ सब मिलकर
फिर से उस पनघट पर जाएं
जिसपर बचपन अपना बीता
उस बरगद की छाँवों में आएं।

फिर से वो मंदिर की घंटी
फिर से वो तालाब किनारे
फिर से वो गलबहियां अपनी
छूटे उन सपनों को बुहारें।

फिर प्रार्थना गीत वो गायें
फिर से अपना हाल सुनाएं
फिर से बैठें छाँव तले हम
फिर से वो बचपन जी आएं।

फिर से खेलें खेल खिलौने
नभ की चादर, घास बिछौने
फिर से गायें वही तराने
कभी मनव्वल कभी बहाने।

कभी दोस्ती कभी लड़ाई
मिलना फिर से और जुदाई
वही खुली पगडंडी अपनी
जिस पर कितनी शाम बिताई।

कितना कुछ है पीछे छूटा
निज सपनों ने बचपन लुटा
पाने को कितना कुछ पाया
अनुमान नहीं क्या कुछ छूटा।

नींद गयी है चैन गयी है
सपनों वाली रैन गयी है
छूटी अहसासों की डोरी
कभी कही जो बैन गयी है।

ऐसे कब तक जीना होगा
इक बार चलो फिर मिल जाएं
छोड़ छाड़ कर सभी बहाने
क्यों ना हम फिर से मिल जायें।

लौट चलें आओ सब मिलकर
फिर से उस पनघट पर जाएं
जिसपर बचपन अपना बीता
उस बरगद की छाँवों में आएं।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       02दिसंबर, 2020

पुरुषार्थ अनुसरण करो।

पुरुषार्थ अनुसरण करो।     

बादलों की ओट में 
धूप भी अलसा रही 
ओस की बूंदें धरा पर
मंद यूँ मुस्का रही।

रात का अंतिम पहर 
औ भोर द्वारे पर खड़ी
रात की गुमनामियाँ भी
मुक्त होने को पड़ीं।

खग, विहग पंछी सभी
गीत गाने को चले 
रात दिन की डोर देखो
दूर क्षितिज पर मिले।

दिल चाहता खुलकर मिलूँ
पर शीत ऋतु झुलसा रही
बादलों की ओट में
धूप भी अलसा रही।

त्याग कर आलस्य सारे
स्फूर्ति का वरण करो
तोड़ कर बंधन सभी
पुरुषार्थ अनुसरण करो।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        02दिसंबर, 2021

मिरे गीत गाये जाएंगे।

मिरे गीत गाये जाएंगे।   

आज लिखे जो गीत यहाँ
कल वो दुहराये जायेंगे
प्यार की जब बात होगी
मिरे गीत गाये जाएंगे।।

प्रेम का ये पंथ ना फिर
सूना कभी होगा यहाँ
प्रीत का नव पुष्प हरपल
कलियाँ खिलाएंगी यहाँ।

राह कलियों से सुगंधित
गीतों से सजाये जायेंगे।
प्यार की जब बात होगी
मिरे गीत गाये जायेंगे।।

मौन कितनी ख्वाहिशों की
वो राहतें दब कर रहीं
हम कहें या ना कहें पर
वो चाहतें सुनती रहीं।

चाहतों के गीत सारे
सब गुनगुनाये जायेंगे।
प्यार की जब बात होगी
मिरे गीत गाये जायेंगे।।

आज मेरी राहतों का
अभि मीत है कोई नहीं
और मेरी चाहतों का
अभि गीत है कोई नहीं।

कल मिरी गुमनामियाँ भी
आवाजों में सज जायेंगे।
प्यार की जब बात होगी
मिरे गीत गाये जाएंगे।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       01जनवरी, 2021


दो घड़ी जो ये पल ठहर जाता।

दो घड़ी वक्त जो ठहर जाता।   

दो घड़ी जो ये पल ठहर जाता
जाने क्या क्या यहाँ सँवर जाता।

अजनबी हम तो थे जमाने से
तुमसे मिलकर हुए दिवाने से
दो कदम तुम जो साथ चल देते
तो ये जीवन यहाँ सँवर जाता।

दो घड़ी जो ये पल ठहर जाता
जाने क्या क्या यहाँ सँवर जाता।

कब से दिल में छुपाये बैठे हैं
कितने सपने सजाये बैठे हैं
एक बस तेरी जुस्तजू मुझको
जो तु हँस दे तो सब सँवर जाता।

दो घड़ी जो ये पल ठहर जाता
जाने क्या क्या यहाँ सँवर जाता।

जो तू है तो ये ज़माना है
सिवा तेरे न अब ठिकाना है
एक तुझमें जिंदगी है दिखी
वक्त कैसा भी हो गुजर जाता।

दो घड़ी जो ये पल ठहर जाता
जाने क्या क्या यहाँ सँवर जाता।।

इक बस तुझसे जिंदगानी है 
बिन तेरे खत्म ये कहानी है
तू ही मंजिल तू ही है रस्ता
तुझमें मिलकर के मैं निखर जाता।

दो घड़ी जो ये पल ठहर जाता
जाने क्या क्या यहाँ सँवर जाता।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       01जनवरी, 2021


प्यार में पीर लें पीर को प्यार दें

 प्यार में पीर लें पीर को प्यार दें एक दूजे को हम इतना अधिकार दें, के प्यार में पीर लें पीर को प्यार दें। एक कसक सी न रह जाये दिल में कहीं, ...