हाय करूँ क्या रुसवाई।

हाय करूँ क्या रुसवाई।  

शब्द शब्द बंजारे मेरे
भाव चीखती तन्हाई 
उम्मीदें भी बनी मुसाफिर
हाय करूँ क्या रुसवाई।

आशाओं का जीवन हमने
उम्मीदों में पाला था
अपनी कितनी इच्छाओं को
हमने हँस कर टाला था।

उन इच्छाओं की राहों में
मुश्किल थी आवाजाही।
उम्मीदें भी बनी मुसाफिर
हाय करूँ क्या रुसवाई।।

बहुरंगी सपने आंखों में
सजे मगर फिर बिखर गए
कितने ही अवसर राहों में
मिले मगर फिर गुजर गए।

गुजर गए उन अवसर की
नहीं रही अब सुनवाई।
उम्मीदें भी बनी मुसाफिर
हाय करूँ क्या रुसवाई।।

अब कोई अफसोस नहीं 
मुझे किसी भी बातों का
जाने कितने दिवस गुजर गए
हिसाब लगाते रातों का।

अपनी ही कोइ चूक थी शायद
जो मुझे मिली ये तन्हाई।
उम्मीदें भी बनी मुसाफिर
हाय करूँ क्या रुसवाई।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
      31जनवरी, 2021

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