मेरे मन की कब समझोगे।
तुम उम्मीदों के मूलस्रोत
मैं भावों की सहज प्रवृत्ति
तुम आशा के सहस्रस्रोत।
शीश झुका करता मैं वंदन
मेरे मन की कब समझोगे।।
नव पल्लव सा डोल डोल
बंद हृदय को खोल खोल
कहो समर्पित कर दूँ मैं भी
अपने भावों को बोल बोल।
विनम्र हृदय करता है क्रंदन
मेरे मन की कब समझोगे।।
तुम अंतस की मधुर अल्पना
मुक्त हृदय की सकल कल्पना
तुम ही उम्मीदों के हिमगिरि
पवित्र भाव, और संकल्पना।
पवित्र भाव करते अभिनंदन
मेरे मन की कब समझोगे।।
मोक्ष तुम्हीं अभिषेक तुम्हीं
आशा और संकेत तुम्हीं
भावों का प्रतिपादन तुम हो
और मेरे साकेत तुम्हीं।
तुमसे ही अंतस के बंधन
मेरे मन की कब समझोगे।।
✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
05फरवरी, 2021
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