सीमित साधन में सपने।

सीमित साधन में सपने।   

कितने ही सपने आंखों के
सीमित साधन से तरस रहे
कितनी ही उम्मीदें पग में
बनकर आशाएँ बरस रहे।

सूर्य उदय से सूर्य ढले तक
कितना लंबा सफर चले हैं
कभी छाँव में पाया कुछ कुछ
कभी धूप में पाँव जले हैं।

धूप छाँव का सफर घना, पर
कभी पाए कभी तरस रहे।
कितने ही सपने आंखों के
सीमित साधन से तरस रहे।।

श्रेष्ठ स्वप्न आंखों में भरकर
उम्मीदों का गान किया है
दृष्टि शिखर पर रखकर हमने
पौरुष का सम्मान किया है।

कर्तव्यों के पथ चलने से
कितने ही जाने अलग रहे।
कितने ही सपने आंखों के
सीमित साधन से तरस रहे।।

मुट्ठी भर आकाश लिए ही
दूर क्षितिज को निकल पड़ा हूँ
उम्मीदों को पाने खातिर
उम्मीदों में रहा अड़ा हूँ।

साँझ ढले जीवन बेला में
कुछ कटु अनुभव, कुछ सरस रहे।
कितने ही सपने आंखों के
सीमित साधन से तरस रहे।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        10फरवरी, 2021

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