सुलगती आशाएँ।
बदल रही हैं परिधानों में
सुलग रही आशाएँ कितनी
जीवन के कुछ व्यवधानों में।
मोड़ मोड़ पर क्षोभ बड़े हैं
जाने कितने लोभ खड़े हैं
मचल रही यूँ आज चेतना
लगता जैसे रोक पड़े है।
बिलख रही है आज वेदना
दिवस ढले अवसानों में।
सुलग रही आशाएँ कितनी
जीवन के कुछ व्यवधानों में।।
आकृतियों के कितने बंधन
विकृतियों में सुलग रहे हैं
स्वीकृतियों के कितने अवसर
अनुकृतियों में विलग रहे हैं।
विकृतियाँ स्वीकृतियाँ भी अब
कुतुक बनी हैं पैमानों में।
सुलग रही आशाएँ कितनी
जीवन के कुछ व्यवधानों में।।
भ्रम से आच्छादित मंडल में
उपहारों का कुछ मोल नहीं
उम्मीदों आशाओं से भी
जीवन क्या अनमोल नहीं।
भ्रम का अनुपालन क्यूँ लगता
मोक्ष दे रहा अनुमानों में।
सुलग रही आशाएँ कितनी
जीवन के कुछ व्यवधानों में।।
✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
04फरवरी, 2021
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें