आमंत्रण।
मन ही मन अकुलाते हैं
उम्मीदों के घायल पक्षी
घुट घुट कर तड़पाते हैं।
तब शब्दों की सकल वेदना
देती मुझको है आमंत्रण।।
जब सपनों की देहरी पर
खिले फूल मुरझाते हैं
जब नन्हीं नन्हीं आंखों के
अधखिले स्वप्न झर जाते हैं।
तब शब्दों की सकल वेदना
देती मुझको है आमंत्रण।।
जब कौतुक दिखलाकर कोई
भोलापन बहलाते हैं
जब झूठे झूठे वादों से
स्वप्न दिखा फुसलाते हैं।
तब शब्दों की सकल वेदना
देती मुझको है आमंत्रण।।
आवाजों की दुनिया में
जब कोई गुमसुम होता है
सुविधाओं के आँगन में
जब कोई भूखा सोता है।
तब शब्दों की सकल वेदना
देती मुझको है आमंत्रण।।
किसी कोख से नन्हीं कोई
अमिट प्रश्न दे जाती है
लिंगभेद के जाने कितने
प्रश्न हमें दे जाती है।
तब शब्दों की सकल वेदना
देती मुझको है आमंत्रण।।
जब लपटों में झुलस जिंदगी
चीखों में शोर मचाती है
जब अल्हड़ सी दुनिया कोई
पैसों पर बिछ जाती है।
तब शब्दों की सकल वेदना
देती मुझको है आमंत्रण।।
आकाशों की छाँवों खातिर
मुक्त कलम बँध जाती है
जब ताकत की चौखट पर
गान नया लिख जाती है।
तब शब्दों की सकल वेदना
देती मुझको है आमंत्रण।।
मेरे शब्दों में बसकर के
मुझको इतनी शक्ति देना
सबके भावों को दर्शाऊँ
मुझको ऐसी भक्ति देना।
भरूँ हृदय में प्रेम सभी के
और सभी को दूँ आमंत्रण।।
✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
08फरवरी, 2021
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