कर्तव्यों की देहरी।

कर्तव्यों की देहरी।  

मौन विकल हो जाता है
एहसास शिथिल पड़ जाते हैं
कर्तव्यों के पुण्य पंथ पर
जब स्वार्थ कभी अड़ जाते हैं।

नींद हुई ओझल आँखों से
सपनों ने भी मुँह मोड़ा
एहसासों की देहरी पर
अपनों ने लाकर छोड़ा ।

दिल करता है मौन पहनकर
खुश सपनों में फिर खो जाऊँ
बहुत सहा उपहास अभी तक
फिर चेतन से जड़ हो जाऊँ।

बस अपनी दुनिया में जागूँ
खुद से बस खुद को माँगूँ
बस देखूँ निज स्वप्न सुनहरे
खुद की इच्छा से ही जागूँ।

आँख मूँदने भर से केवल
ये सूरज नहीं ढला करता 
अधिकार वही सुरक्षित होता
जो कर्तव्यों की गोद पलता ।

जागृत निशा का प्रहरी जब
अँधियारों से डरना कैसा
कर्तव्यों के पुण्य पंथ से
यूँ डरकर फिर टरना कैसा।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
      15फरवरी, 2021



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