ठौर चाहिए लोकतंत्र को।
तकता लालकिले की ओर है
आंखों में अश्रु, कुछ सपने
बस चाह रहा एक ठौर है।
कभी शीत से देह ठिठुरती
कभी ताप झुलसा जाती है
कभी कोई तीखी सी वाणी
चुभकर के तड़पा जाती है।
कभी नहीं सोचा था ऐसा
ये आया कैसा दौर है।
आंखों में अश्रु, कुछ सपने
बस चाह रहा एक ठौर है।।
आजादी से हमने अब तक
कितनी ही उम्मीदें पाली
कुछ उम्मीदें पूर्ण हुई हैं
कुछ उम्मीदें अब भी खाली।
इन उम्मीदों को दामन में
क्या मिला नहीं कभी ठौर है।
आँखों मे अश्रु, कुछ सपने
बस चाह रहा एक ठौर है।।
राजनीति के प्रांगण में क्यूँ
बैठी जनता सिसक रही है
पक्ष-विपक्ष के साये में चर्चा
इत-उत पल-पल खिसक रही।
जाने किस नूरा कुश्ती में
पिसा लोकतंत्र का दौर है।
आँखों मे अश्रु, कुछ सपने
बस चाह रहा एक ठौर है।।
मशाल जलाये उम्मीदों की
बस लालकिले को तकता है
लोकतंत्र क्या सत्ता खातिर
जनता के आगे झुकता है।
और नहीं कोई शब्द यहाँ
जिसे कलम लिखे कुछ और है।
आँखों मे अश्रु, कुछ सपने
बस चाह रहा एक ठौर है।।
✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
06जनवरी, 2021
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