आ अब लौट चलें।
फिर से उस पनघट पर जाएं
जिसपर बचपन अपना बीता
उस बरगद की छाँवों में आएं।
फिर से वो मंदिर की घंटी
फिर से वो तालाब किनारे
फिर से वो गलबहियां अपनी
छूटे उन सपनों को बुहारें।
फिर प्रार्थना गीत वो गायें
फिर से अपना हाल सुनाएं
फिर से बैठें छाँव तले हम
फिर से वो बचपन जी आएं।
फिर से खेलें खेल खिलौने
नभ की चादर, घास बिछौने
फिर से गायें वही तराने
कभी मनव्वल कभी बहाने।
कभी दोस्ती कभी लड़ाई
मिलना फिर से और जुदाई
वही खुली पगडंडी अपनी
जिस पर कितनी शाम बिताई।
कितना कुछ है पीछे छूटा
निज सपनों ने बचपन लुटा
पाने को कितना कुछ पाया
अनुमान नहीं क्या कुछ छूटा।
नींद गयी है चैन गयी है
सपनों वाली रैन गयी है
छूटी अहसासों की डोरी
कभी कही जो बैन गयी है।
ऐसे कब तक जीना होगा
इक बार चलो फिर मिल जाएं
छोड़ छाड़ कर सभी बहाने
क्यों ना हम फिर से मिल जायें।
लौट चलें आओ सब मिलकर
फिर से उस पनघट पर जाएं
जिसपर बचपन अपना बीता
उस बरगद की छाँवों में आएं।
✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
02दिसंबर, 2020
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