रात की मदहोशियाँ।

रात की मदहोशियाँ।  

नींद की आगोश में वो चाँद देखो खो रहा
रात की आगोश में मदहोश मैं भी हो रहा।।

काली घटाएं केश की
कर रही मदहोश मुझको
तेरी चितवन और अदायें
खींचती तेरी ओर मुझको।

अधरों के कंपित निमंत्रण में होश मैं खो रहा
रात की आगोश में मदहोश मैं भी हो रहा।।

फैली हुई है रोशनी
चहुँओर तेरे प्यार की
साँस की सरगम सजी है
है रात ये बाहर की।

मुक्त आलिंगन में तेरे होश देखो खो रहा
रात की आगोश में मदहोश मैं भी हो रहा।।

आज मेरी आवारगी को
जब तेरा आलिंगन मिला
दूर वो सारे भ्रम हुए
औ प्रीत को स्पंदन मिला।

इस मधुर मधुमास में मैं होश अपने खो रहा
रात की आगोश में मदहोश मैं भी हो रहा।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       31दिसंबर, 2020








नवगीत सजायें।

     नवगीत सजायें।   

आओ हम तुम फिर मिल जायें
गीत प्रणय के फिर से गायें।।

फिर ना हों वो सारी बातें
बिखरे दिन औ सुनी रातें
फिर से दोनों साथ चलें
फिर इक दूजे में खो जायें।

आओ हम तुम फिर मिल जायें
गीत प्रणय के फिर से गायें।।

उर की अभिलाषाएं संचित
भाव रहे ना कोई कुंठित
फिर पलकों के छाँव तले
वही नेह के दीप जलाएँ।।

आओ हम तुम फिर मिल जायें
गीत प्रणय के फिर से गायें।।

खोल हृदय के बंद द्वार को
बीती सारी बात भुलाएं
मोह बढ़े सम्मान बढ़े औ
फिर से हम नवगीत सजायें।

आओ हम तुम फिर मिल जायें
गीत प्रणय के फिर से गायें।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       31दिसंबर, 2020

सँवर गए।

    सँवर गए।  

तेरे होठों से लगकर
गीत लिखे जो निखर गए
स्पंदित भावों से छनकर
खुशबू बनकर बिखर गए।

कोरा कागज था ये जीवन
तुमने इसमें रंग भरा
अहसासों के फूल खिलाकर
गीतों में नवरंग भरा।

तेरे अधरों के नरम छुवन से
भाव हमारे सँवर गए।
तेरे होठों से लगकर
गीत लिखे जो निखर गए।।

मेरे तन की तप्त धरा को
तेरे तन की छाँव मिली
तेरे आलिंगन में मुझको
उम्मीदों की नाव मिली।

मेरे जीवन के माँझी तुम
दूर सभी वो भँवर हुए।
तेरे होठों से लगकर
गीत लिखे जो निखर गए।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       30दिसंबर, 2020







प्रणय गीत गाया न गया।

प्रणय गीत गाया न गया।   

हम भी थे राहों में लेकिन
हमको अपनाया न गया
गीत प्रणय के लिखे बहुत
लेकिन हमसे गाया न गया।।

हम जाने कितनी बार मिले
सुनी राहों पर साथ चले
पर अंतस के भावों को
हमसे समझाया न गया।

गीत प्रणय के लिखे बहुत
लेकिन हमसे गाया न गया।।

हर मुश्किल में साथ रहे
सुख दुःख मिलकर साथ सहे
तुमने तो मन की कह डाली
हमसे बतलाया न गया।

गीत प्रणय के लिखे बहुत
लेकिन हमसे गाया न गया।।

जीवन के चौसर पर हमने
हरदम दिल की बाजी खेली
इक इक मुस्कानों की खातिर
कितनी ही पीड़ाएँ झेलीं।

उल्ल्लासों के बीच रहे पर
हमसे मुस्काया न गया।
गीत प्रणय के लिखे बहुत
लेकिन हमसे गाया न गया।।

पीड़ाओं का जीवन हमने
बस अपने गीतों में डाला
लोगों ने तो गीत सुने बस
मन के भावों को कब जाना।

मन के उन भावों को हमसे
जग को समझाया न गया।
गीत प्रणय के लिखे बहुत
लेकिन हमसे गाया न गया।।

भले अँधेरा घना बहुत था
दीपक रोज जलाया हमने
कंठ रुँधे थे भले हमारे
दबे स्वरों में गाया हमने।

रुँधे कंठ के घावों को पर
जग को दिखलाया न गया।
गीत प्रणय के लिखे बहुत
लेकिन हमसे गाया न गया। 

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       30दिसंबर, 2020

शायद किस्मत खुल जाए।

शायद किस्मत खुल जाए।   

राजनीति के महासमर में
कितने आये और गए
कुछ ने दिया सहारा सबको
कुछ भवसागर पार गए।

कुछ ने मान बढ़ाया सबका
कुछ लोकतंत्र को तार गए
कुछ शुचिता को सम्मान दिए
कुछ शुचिता को मार गए।

चेहरों पे चेहरे कितने
कौन यहाँ पहचानेगा
दिल मे किसके भाव छुपा क्या 
कैसे कोई जानेगा।

 बेनकाब चेहरों के पीछे
असली चेहरे छिपे हुए हैं
कितने भाव उजागर होते
औ कितने दबे हुए हैं।

है तिलस्म सा बना हुआ 
सच जिससे डर जाता है
राजनीति का खेल अजब है
ताकतवर भय खाता है।

अपने जैसे सारे लगते
अपना लेकिन कौन यहाँ
शीशे के घर रहने वाले
दूजे पर करते वार यहाँ।

लगने को सब अच्छे लगते
दिखते सारे चंगे हैं
लेकिन हमाम में जैसे देखा
दिखते सारे नंगे हैं।

मुँह में राम बगल में छूरी
बात यहाँ सच लगती है
हांडी चाहे जिसकी भी हो
खिचड़ी सबकी पकती है।

खड़ा ठंड में कांप रहा वो
देख दीप की बाती को
एक हाथ उम्मीदें थामे
दूजे में थामे लाठी को।

कभी आँच उसतक भी पहुँचे
उसकी भी खिचड़ी पक जाए
कोई बीरबल उसे मिल जाये
उसकी भी किस्मत खुल जाए।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
     हैदराबाद
     28दिसंबर, 2020





जिंदगी मुस्कुराती है।

जिंदगी मुस्कुराती है।  

उम्र की दौड़ से कौन बचा है भला
वक्त रुकता कहाँ वो सदा ही चला
चलते चलते आखिर घड़ी आ गयी
औ जुदाई में भी ज़िंदगी छा गयी।।

क्या कहूँ आपसे जो सहारा मिला
आपके साथ चल कर किनारा मिला
जब जरूरत हुई साथ हमको मिला
हर कदम आपका हाथ हमको मिला।

मुश्किल जो मिली सारे हल हो गए
खुशनुमा जिंदगी के वो पल हो गए
आपके रूप में एक साथी मिला
राहों में आपसे ही गुल खिल गए।

बिछड़ तो रहे पर खुशी भी छा रही
मायूसी में भी इक हँसी आ रही
नव जीवन की आपकी शुरुआत है
आपको देख जिंदगी मुस्कुरा रही।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       27दिसंबर, 2020



शतरंज की बिसात।

शतरंज की बिसात।   

आज अजब सी बात यहां पर देखी है
कितनी ही सौगात यहां पर देखी है।
जिसको देखो वही सूर्य को तकता है
बस उसकी ताकत के आगे झुकता है।
फिर ताकत का प्रभाव वो दिखलाता है
और तेज से अपने सबको बहलाता है।
फिर एक अलग मंजर पैदा होता है
जो बस इच्छाओं का प्रभाव होता है।
बहुत नहीं बस थोड़े ऐसे होते हैं
औरों के खेतों में सपने बोते हैं।
फिर अपनी इच्छा का वो भार थोपते
शर्तें सभी मनवाने को राह रोकते।
फिर तय करते सारे क्या खाए गायें
किसे कहें पराया औ किसको अपनाएं।
फिर चलता खेल स्वार्थ की बेदी पर
बिकते प्यादे शतरंजों की बेदी पर।
औ छुपा रुस्तम फिर सरताज हो गया
प्यादे से बढ़ कर उसका राज हो गया।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
      हैदराबाद
     26दिसंबर, 2020





मध्यमवर्ग की रोटी।

मध्यमवर्ग की रोटी।   

आज बहस फिर होते देखा
ताकतवर की कोठी में
देख रहे भविष्य सब अपना
मध्यमवर्ग की रोटी में।

सारे मिलकर राह सुझाते
एक एक कर बात बताते
सबको लेकिन एक ही चिंता
मध्यमवर्ग की रोटी में।

कैसे सत्ता से मिल जायें
कैसे सत्ता में मिल जायें
एक मगर उद्देश्य सभी का
मध्यमवर्ग की रोटी में।

सब्जबाग का घेर बनाते
कितने ही सपने दिखलाते
दूरदृष्टि की बातें सारी
मध्यमवर्ग की रोटी में।

कभी मुफ्त की बातें होतीं
नजर मगर चोटी पर होती
और इशारा होता हर पल
मध्यमवर्ग की रोटी में।

पोथी पढ़ सब ज्ञान सुझाते
कितने ही अनुमान लगाते
अनुमान ठहर जाते सारे
मध्यमवर्ग की रोटी में।

पांचसितारा बैठक में तो
बात गरीबी की होती है
जाने आँख ठहर जाती क्यूँ
मध्यमवर्ग की रोटी में।।

मध्यमवर्ग की हिस्से में बस
चर्चाओं का बाजार गर्म है
आखिर क्या सुकूं मिलता है
मध्यमवर्ग की रोटी में।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       26दिसंबर, 2020



तुमने सम्मान लिखा।

तुमने सम्मान लिखा।   

मेरे मन मंदिर में तुमने
कैसा सुंदर योग लिखा
मेरे दिल के दरवाजे पर
मधुर प्रेम संयोग लिखा।

नैनों का सम्मान लिखा
युग युग का आह्वान लिखा
सतयुग से लेकर कलयुग तक
प्रेम का नूतन गान लिखा।

सदियों की है प्रीत भावना
मन में अनहद नाद लिखा
ऊष्मित से मेरे जीवन में
मधुर प्रेम अनुवाद लिखा।

श्वेत पृष्ठ सा जीवन मेरा
तुमने ही अनुमान लिखा
भटक रहा था यहाँ अकेला
तुमने ही सम्मान लिखा।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
      हैदराबाद
      25दिसंबर, 2020

बेफिक्री में जीवन।

बिफ़िक्री में जीवन।  

स्वच्छंद श्वास ले उड़ रहा मन
बेफिक्री में साथ तेरे
डूब रहा है अहसासों में
मूक मगर संवाद लिए।

दिल करता है सब कह दूँ
तुमसे मैं दिल की बातें
और रोक कर चपल वक्त को
भेंट करूँ मैं सौगातें।

हर पल साँस समाहित तुझमें
उर स्पंदित प्रणय भाव है
बेफिक्री के स्वच्छंद पलों में
लगता बस तेरा प्रभाव है।

उलझन से उन्मुक्त हुई मैं
मिला सुकूं यादों में तेरी
पल पल जीवन मुखरित मेरा
अहसासों वादों में तेरी।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       25दिसंबर, 2020

शरद ऋतु का आगमन।

शरद ऋतु का आगमन।  

फेनिल कुहरे की चादर औ
मौसम की ये ठंडी रातें
बैठ किनारे हाथ सेंकते
खत्म न होने वाली बातें।

रात ठिठुरती ओढ़ रजाई
बिस्तर पर सिलवट बनती
लिखती नई कहानी मिलकर
खुद कहती औ खुद सुनती।

विहग उनिंदें मूक स्वरों से
यूँ मीठी तान सुनाते हैं
शरद ऋतु के एहसासों को
वो संकेतों में गाते हैं।

ठंड सिमटने लगी रातभर
बैठ अलावों की छाँवों में
इक नूतन आरंभ दिखा है
शरद आगमन से गांवों में।

खेतों की क्यारी में देखो
रात ओस बन बिछी हुई है
बादल के झुरमुट में देखो
रश्मि सूर्य की छिपी हुई है।

नूतन फसलों के अंकुर से
खेतों का रूप सँवरता है
हरियाली की ओढ़े चादर
धरती का रूप सँवरता है।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       24दिसंबर, 2020





कर तू जतन।

कर तू जतन।  

उद्विग्न भाव ले खड़ा 
निहार रहा भोर को
दिव्य आस्था लिए वो
नापता है छोर को।

भविष्य पर रखे नजर
सँभल रहा डगर डगर
कर रहा जतन वो सब
त्याग यहाँ अगर मगर।

कह रही है राह सब
प्रयास तो करो जरा
मंजिलों की दौड़ में
दो पग तो चलो जरा।

तेरा हर जतन यहाँ
सुदृढ कर रहा गमन
त्याग तू शंका सभी
लक्ष्य का तू कर मनन।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
      हैदराबाद
      23दिसंबर, 2020

प्रणय बिम्ब के सुंदर घेरे।

प्रणय बिम्ब के सुंदर घेरे।  

भूल गए या याद अभी है
वो अनुरागी शीतल फेरे
भूल गए या याद अभी है
प्रणय बिम्ब के सुंदर घेरे।।

सूनी पलकों के आँगन में
सपनों का संचार किया
सूने अंतस के दामन में
प्रीत-प्रेम व्यवहार किया।

हिय मकरंद सुमन महके
नैनों में पावस के डेरे।
भूल गए या याद अभी है
प्रणय बिम्ब के सुंदर घेरे।।

प्रेम हमारा पावन ऋतु सा
महकी जिससे क्यारी क्यारी
त्याग समर्पण पुण्य भाव से
प्रतिपल पुलकित फुलवारी।

उर के हर्षित स्पंदन और
नैनों के अनुरंजित डोरे।
भूल गए या याद अभी है
प्रणय बिम्ब के सुंदर घेरे।।

स्मृतियों के स्वप्न सुनहरे
जीवन में मधुरस भरते
साथ तुम्हारे बीते जो पल
अब तक हैं आनंदित करते।

सपनों की सुंदर रेखाएं
औ उन यादों के फेरे।
भूल गए या याद अभी है
प्रणय बिम्ब के सुंदर घेरे।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
      हैदराबाद
      22दिसंबर, 2020



कब तक बँधता।

कब तक बँधता।   

क्या करता कब तक सहता
था कभी मुझे कुछ कह जाना।
दरिया हूँ मैं कब तक बँधता
मुझको भी था बह जाना।।

खामोश यहाँ कब तक रहता
कब तक औरों की सहता
कब तक शर्तों पर जीता औ
कब तक ना मन की कहता।

ओढ़ी जो खामोश दिवारें
उनको तो था ढह जाना।
दरिया हूँ मैं कब तक बँधता
मुझको भी था बह जाना।।

कितने ही लम्हों में मैंने
अहसासों के फूल सजाये
पथरीली राहों से मैंने
जाने कितने शूल हटाये।

जब शूल चुभाया दामन में
तब आँसू का था बह जाना।
दरिया हूँ मैं कब तक बँधता
मुझको भी था बह जाना।।

मौन सफर में चला अकेले
इंतज़ार कब तक करता
तुम बिन कोइ नहीं था मेरा
जो मेरे मन की पीड़ा हरता।

छोड़ चले जब मुझे अकेले
मुझको भी तो था जाना ।
दरिया हूँ मैं कब तक बँधता
मुझको भी था बह जाना।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
      हैदराबाद
      22दिसंबर, 2020


तुमसे सब जज्बात हैं।

तुमसे सब जज्बात हैं।  

तुम इस कदर खामोश हो क्यूँ
कुछ तो कहो क्या बात है
तुमसे ही खुशियाँ हैं सारी
और तुमसे सब जज्बात हैं।।

है कौन सी वो बात जिसने
आघात तुमको है किया
वो कौन से हालात जिसने
घाव तुमको है दिया।

कुछ तो कहो ना चुप रहो अब
दिल में छुपी जो बात है।
तुमसे ही खुशियाँ हैं सारी
और तुमसे सब जज्बात हैं।।

कल चले थे हम जहाँ से
वो रास्ते अब भी वहीं हैं
और बिछड़े थे जहाँ से
वो मंजिलें अब भी वहीं हैं।

मुड़ के जो एक बार देखो
वही यादों की बारात है।
तुमसे ही खुशियाँ हैं सारी
और तुमसे सब जज्बात हैं।।

जो इंतज़ार तुमको है मेरा
इक बार दिल से बोल दो
तोड़ दो बंधन सभी औ
दिल की गिरह को खोल दो।

और क्या तुमसे कहूँ मैं
तुमसे ही दिन और रात हैं।
तुमसे ही खुशियाँ हैं सारी
और तुमसे सब जज्बात हैं।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
      21दिसंबर, 2020

न्याय का पक्ष।

न्याय का पक्ष।  

झील के तट पर बिखरती
दिख रही तनहाइयाँ
साथ उसके चल रही हैं
आज बस परछाइयाँ।

वक्त का है खेल ये सब
वश नहीं है किसी का
काल जिसका साथ देता
वक्त चलता उसी का।

भूल जा हर बात वो जो
रात दुख का सार थी
और तेरी चाहतों पर
जो कर रहीं वार थी।

रात का अंतिम पहर अब
बीतने की ओर है
भोर की पहली किरण में
दिख रहा नव छोर है।

झील के उस पार देखो
इक किरण है दिख रही
चल चलें उस पार देखो
रोशनी है दिख रही।।

अब तू ही कर निर्णय स्वयं
तू संगी है किसका
सत्य के जो साथ चलता
न्याय लेता पक्ष उसका।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       19दिसंबर, 2020

वो तारण हारे।

वो तारण हारे। 

भटक रहे मन की पीड़ा ले
आया हूँ मैं द्वार तिहारे।
राह सूझती कुछ ना मुझको
तुम बिन किसको आज पुकारें।

विह्वल है मन का हंसा
इच्छाओं का भार लिए
इत उत मन भटक रहा है
सपनों का अंबार लिए।

भटक रहे मन के भावों को
बिना तुम्हारे कौन सम्हारे।
राह सूझती कुछ ना मुझको
तुम बिन किसको आज पुकारें।।

बुद्धिहीन ये ज्ञानहीन ये
तुम बिन कौन इसे समझाए
गुण क्या है अवगुण है क्या
तुम बिन कौन इसे बतलाए।

काम, क्रोध, मद, लोभ, मोह
के जंजालों में भटका रे।
राह सूझती कुछ ना मुझको
तुम बिन किसको आज पुकारें।।

सुप्त हो रही आज चेतना 
प्रभु फिर से इसे जगा जाओ
हिय में सबके प्रेम बसे प्रभु
कुछ ऐसी रीत चला जाओ।

मन का सारा मैल मिटा दो
जगपालक हो तारण हारे।
राह सूझती कुछ ना मुझको
तुम बिन किसको आज पुकारें।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       17दिसंबर, 2020

अहसासों के आँगन में।

अहसासों के आँगन में।   

शैय्या पर लेटे हुए पितामह
जब पीछे देखा जीवन में
मन में तब अहसास हुआ
क्या खोया सबने उपवन में।

लोभ मोह जिद के आगे
कैसे जीवन उलझ गया
थे चले कभी संग संग जो
कैसे बिखरा औ विलग हुआ।

गिरी वहाँ जब शुचिता सारी
टूटी नैतिकता जीवन में।
मन में तब अहसास हुआ
क्या खोया सबने उपवन में।।

सिंहासन के इर्द गिर्द जब
गिद्ध बहुत मँडराते हैं
नीति ज्ञान सब सूने होते
घाव बहुत दे जाते हैं।

छोटे छोटे झगड़े कैसे
आग लगाते जीवन में।
मन में तब अहसास हुआ
क्या खोया सबने उपवन में।।

अनैतिकता जब करे नियंत्रण
नैतिकता के पैमानों को
बिखर सभी ढह जाती खुशियाँ
ध्वस्त करे सब अरमानों को।

बिखरी इच्छाओं में रहकर
उलझा जीवन अनबन में।
मन मे तब अहसास हुआ
क्या खोया सबने उपवन में।।

विदुर नीति की बातें सारी
जब रिश्तों पर लगती भारी
जब झूठ प्रभावी होने लगता
और सत्य पर चलती आरी।

ज्ञान ध्यान सब व्यर्थ हुआ तब
अंधकार बढ़ा अंतर्मन में।
मन में तब अहसास हुआ
क्या खोया सबने उपवन में।।

सिद्धांतों की जब बलि चढ़ेगी
अनीतियों के आंगन में
तब छायेगा काला बादल
प्रलय मचेगी जीवन में।

अंत समय पछताना होता
लेती मौत जब आलिंगन में।
मन में तब अहसास हुआ
क्या खोया सबने उपवन में।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        15दिसंबर, 2020



मैं हर पल गंभीर रहा।

मैं हर पल गंभीर रहा।   

कदम कदम पर जाने कितने
वारों का मैं पीर सहा
जितना सबने हलका समझा
उतना ही गंभीर रहा।।

सूरज की पहली किरणों सह
मैं रोज सवेरे उठा किया
अपना जीवन जीने से पहले
औरों की खातिर जिया किया।

किया कभी औरों की खातिर
लेकिन कुछ भी नहीं कहा।
जितना सबने हलका समझा
उतना ही गंभीर रहा।।

प्रेम नहीं तो फिर क्या था जो
इक दूजे को परख रहे
बिना कहे दूजे से कुछ भी
मन ही मन मे निरख रहे।

किया उजागर मैंने जब सब
क्या कुछ सबने नहीं कहा।
जितना सबने हलका समझा
उतना ही गंभीर रहा।।

आँसू की कितनी ही बूंदें
पलकों पे आकर सूख गईं
कुछ आँसू को मिला सहारा
औ कुछ दामन से छूट गईं।

छूटे आँसू पलकों से जब
क्या कुछ दिल ने नहीं सहा।
जितना सबने हलका समझा
उतना ही गंभीर रहा।।

क्या कुछ करने की चाहत थी
सब जाने कैसे छूट गया
बहुत सँभाला मैैंने सबसे
देखा आईना, टूट गया।

घाव सहे मैंने टुकड़ों से
खुद से भी लेकिन नहीं कहा।
जितना सबने हलका समझा
उतना ही गंभीर रहा।।

शायद मैंने उम्मीदों से
ज्यादा का अनुमान किया
रिश्तों को जीने की खातिर
जीवन का अवसान किया।

अपनी शायद भूल यही थी
गुंचे में केवल फूल गुहा।
जितना सबने हलका समझा
उतना ही गंभीर रहा।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       14दिसंबर 2020





जब देखा मैंने बचपन को।

जब देखा मैंने बचपन को।   

मोड़ कदम पीछे जब देखा
मैंने अपने बचपन को
भूल गया इस जीवन के
ना जाने कितनी अनबन को।।

वो माँ की गोदी उसका आँचल
श्वेत फेनिल रुई सा बादल
वो उसकी हल्की प्यारी थपकी
मुझे आज भी करती पागल।

अहसासों के आँगन में जब
देखा आज लड़कपन को
भूल गया इस जीवन के
ना जाने कितनी अनबन को।।

उँगली थामे चला पिता की
मन में ढेरों आस लिए
छोटी सी अपनी मुट्ठी में
सपनों का आकाश लिए।

रहा पिता के साये में जब
कोइ तोड़ सका ना बंधन को।
भूल गया इस जीवन के
ना जाने कितनी अनबन को।।

देखा जब स्कूल पुराना
याद आ गया वही जमाना
कंधों पर बस्तों को टाँगें
कुछ अनजाना कुछ पहचाना।

श्याम पट के धुँधले अक्षर
याद दिलाते बचपन को।
भूल गया इस जीवन के
ना जाने कितनी अनबन को।।

वो मित्रों के साथ घूमना
खुली राह में साथ झूमना
कभी मचलना, कभी झगड़ना
अगले ही पल साथ ढूंढना।

कितने भाव छुपे होते थे
उस झुठलाते अक्खड़पन को।
भूल गया इस जीवन के 
ना जाने कितनी अनबन को।।

जैसे जैसे उमर बढ़ रही
हम उलझ गए इस जीवन में
हमको ये मालूम ना हुआ
हम छोड़ चले क्या उपवन में।

आज स्वार्थ में उलझा जीवन
तोड़ रहा इस मधुवन को।
भूल गया इस जीवन के
ना जाने कितनी अनबन को।।

कहीं पुराने दिन मिल जाते
उन्हें समेटता दामन में
औ मीठी मीठी यादों को
पुनः सहेजता आँगन में।

काश वही बचपन मिल जाता
फिर से जीता अल्हड़पन को।
भूल गया इस जीवन के
ना जाने कितनी अनबन को।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       13दिसंबर, 2020



कबीर फिर से आ जाओ।

कबीर फिर से आ जाओ।  

भटक रही है दुनिया सारी
घिरी हुई है जंजालों में
बिखर रही है आज चेतना
लोभ मोह और सवालों में।।

ढाई आखर प्रेम यहाँ पर
भारी भरकम लगता है
घिसी पिटी पोथी में देखो
कैसा जीवन दिखता है।

आज भावना भटक रही है
वादों और खयालों में
लगता जीवन घिरा हुआ है
अवसादों के ज्वालों में।

बीनी कभी जो तुमने चदरिया
पैबंदों में लिपट रही है
ओढ़ के मैली वही चदरिया
कितनी साँसें सिमट रही है।

जाने ऐसा क्यूँ लगता है
भूख यहाँ पर सस्ती है
पत्थर वाली चकरी भी
उसे देख कर हँसती है।

रोज जगाने की खातिर
शोर यहाँ सब करते हैं
इक इक पल जीने की खातिर
रोज यहाँ सब मरते हैं।।

आज वक्त भी बाट जोहता
प्रश्नों का अंबार लिए
अब है कहाँ खड़ा कबीरा
मन में यही गुहार लिए।

भटक रहे इस जीवन को
राह दिखाने आ जाओ
जीवन का वो गुढ़ ज्ञान
फिर से समझाने आ जाओ।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
     हैदराबाद
     12दिसंबर, 2020




बादलों के झुरमुट से।

बादलों के झुरमुट से।   

बादलों के झुरमुट से
जब सूरज निकलता है।।
अलसाई सुबह का तब
रूप ये बदलता है।।

दूर इक कोने पर 
देखो लालिमा दिखती है
और दूजे कोने पर 
कालिमा भी छिपती है
आंखमिचौली का 
ये खेल देख कर 
दिल ये मचलता है।
बादलों के झुरमुट से
जब सूरज निकलता है।।

तुम भी कभी देखो तो
निकल कर बगीचों को
और कभी खोल कर के
देखो मन के दरीचों को।
जाने कितनी चाहतों का
मन में सागर उमड़ता है।
बादलों के झुरमुट से
जब सूरज निकलता है।।

आओ चलो मिल जाएं 
छोड़ सारे अँधियारे
और फिर खिलखिलायें
सुने पड़े गलियारे।
ज़िंदगी चहकती है तब
जब प्रेम ये पनपता है।
बादलों के झुरमुट से
जब सूरज निकलता है।।
अलसाई सुबह का तब
रूप ये बदलता है।।

✍️©अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
      10दिसंबर,2020


तुम्हीं कहो कि क्या करता।

तुम्हीं कहो कि क्या करता।।

जीवन को जीने की खातिर
मैं जाने कितनी बार मरा
कभी सँभाला है खुद को
औ चक्रव्यूह में कभी घिरा।

चक्रव्यूह में उलझ गया जब 
लड़ूँ नहीं तो क्या करता।
निज जीवन रक्षण हेतु मैं
तुम्हीं कहो कि क्या करता।।

मोड़ मोड़ पर नई कहानी
सुनी सुनाई कुछ अनजानी
कुछ ने कितने घाव दिए हैं
और सही कितनी मनमानी।

मलहम की आस नहीं जब
घाव दिखा मैं क्या करता।
निज जीवन रक्षण हेतु मैं
तुम्हीं कहो कि क्या करता।।

गीत लिखे जितने भी मैंने
सब पन्नों में दबे रह गए
औरों ने तो सब कह डाले
मन की मन में घुटे रह गए।

बिखरी जब गीतों की दुनिया
साज सजा कर क्या करता।
निज जीवन रक्षण हेतु मैं
तुम्हीं कहो कि क्या करता।।

संबंधों के अनुबंधों की
सब शर्तों को स्वीकार किया
लेकिन जीवन की चौसर पर
संबंधों को ही हार गया।

हार गया जब अपनों से ही
आस किसी से क्या करता।
निज जीवन रक्षण हेतु मैं
तुम्हीं कहो कि क्या करता।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       09दिसंबर, 2020






ख्वाहिशें उम्र भर छलती रहीं।

ख्वाहिशें उम्रभर छलती रहीं।   

रास्ते भर ये जिंदगी स्वप्न में पलती रही
साथ कितनी ख्वाहिशें उम्रभर छलती रहीं।।

हम भी चले उस राह पर
जिस राह सारा जग चला
हम भी पले उस ख्वाब में
जिस ख्वाब सारा जग पला।

फिर हुई क्या चूक जो मंजिलें छलती रहीं।
साथ कितनी ख्वाहिशें उम्रभर छलती रहीं।।

हमने तो हर फर्ज अपना
सहज शिद्दत से निभाया
और कितने घाव झेले
पर नही किसको दिखाया।

अपनों की पर उँगलियाँ उम्रभर खलती रहीं
साथ कितनी ख्वाहिशें उम्रभर छलती रहीं।।

यूँ जले जिसके लिए हम
निज ख्वाहिशें सब खो पड़ीं
सुन के उसके प्रश्न सभी
मिरी आत्मा भी रो पड़ी।

थी अपनी भूल कोई आत्मा जलती रही
साथ कितनी ख्वाहिशें उम्रभर छलती रहीं।।

अब वक्त को क्या दोष दूँ
ये कोइ अपनी भूल थी
और सीने में चुभी जो
अपनी जनी वो शूल थी।

शाम के इस धुंध में गलतियाँ खलती रही
साथ कितनी ख्वाहिशें उम्र भर छलती रहीं।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       08दिसंबर, 2020



बचपन फिर से मिल जाता।

बचपन फिर से मिल जाता।   

काश पुराने दिन आ जाते
बचपन फिर से मिल जाते।

फिर से वो तुतलाती बोली
फिर से वो मस्ती की टोली
इक दूजे संग साथ मे चलना
आंख मिचौली, हँसी ठिठोली।

फिर से भोलापन मिल जाता
फिर वो अल्हड़पन मिल जाते।
काश पुराने दिन आ जाते
बचपन फिर से मिल जाते।।

तृष्णाओं का भार नहीं था
दूषित कुछ व्यवहार नहीं था
दुग्ध समान श्वेत भाव भरे
रहस्यमय संसार नहीं था।

काश वही चेहरे मिल जाते
स्कूलों के दिन आ जाते।
काश पुराने दिन आ जाते
बचपन फिर से मिल जाते।।

शुद्ध सरस जीवन था अपना
मृदुल शरद सा उपवन अपना
अधरों पर मुस्कान सजी थी
नैनों में बस सुन्दर सपना।

काश वही सपने मिल जाते
और वही अपने मिल जाते।
काश पुराने दिन आ जाते
बचपन फिर से मिल जाते।।

अब तो ऐसी होड़ मची है
बचपन की वो डोर छुटी है
हर चेहरा कुम्हलाया है
संबंधों की डोर टुटी है।

डोर छुटी जो फिर मिल जाते
मुरझाईं कलियाँ खिल जाते।
काश पुराने दिन आ जाते
बचपन फिर से मिल जाते।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       07दिसंबर, 2020


मधुयामिनी।

मधुयामिनी।

एक सुनहरी चाँदनी
बिखरी यहॉं चहुँओर है
पाश में तेरे मुझे
आकर मिला इक ठौर है।

है सुनहरी रात जब
फिर कौन सोएगा यहाँ
संग अपने देखना
ये रात जागेगी यहाँ।

प्रीत की ये वो घड़ी 
जो रोज आती है नहीं
और इसकी खुशबुएँ
अवसान तक जाती नहीं।

आज अपनी रात के
चाँद तारे हैं बराती
और उनकी रश्मियाँ
भावनाओं को जगाती।

पूर्णिमा का चाँद भी
यूँ देख फीका हो रहा
और तेरे रूप के
इस तेज में वो खो रहा।

पर मुखर होकर यहाँ
इक छाँव हमको दे रही
ग्रीष्म की प्रचंड धूप 
जैसे कि ठंडी हो रही।

नीड़ में सब पखेरू
भर रात चहकेंगे यहाँ
और पुष्पावली से
ये रात महकेगी यहाँ।

डूब जाएं हम यहाँ
एक दूजे को सौंपकर
एक हो जाएं यहाँ
बंधनों को तोड़कर।

आज अपनी प्रीत से
नवगीत का निर्माण हो
झूम उठे चाँदनी
नव रीत का प्रमाण हो।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        07दिसंबर,2020

तुम आये जीवन में मेरे।

तुम आये जीवन में मेरे।    

लक्ष्यहीन जीवन था मेरा
तुम आये पर्याय मिला।
और भटकते भावों को
इक नूतन अध्याय मिला।

मुक्त विहग पंछी था मैं तो
तुम आये आकाश मिला
शीतल छाया मिली गगन में
जीवन को विश्वास मिला।

शून्य हृदय में उल्लास जगा
खुशियों का अध्याय मिला।
लक्ष्यहीन जीवन था मेरा
तुम आये पर्याय मिला।।

उर से उर की बँधी डोर जब
जीवन को एहसास मिला
पावस के प्यासे पपिहे को
बूंदों का मधुमास मिला।

पंख लगे भावों को मेरे
शब्दों को अध्याय मिला।
लक्ष्यहीन जीवन था मेरा
तुम आये पर्याय मिला।।

तेरे अधरों के थिरकन से
जीवन ये संगीत हुआ
तेरे उर के स्पंदन से
पूर्ण मेरा ये गीत हुआ।

प्रेमपुंज जीवन के मेरे
राहों को अध्याय मिला।
लक्ष्यहीन जीवन था मेरा
तुम आये पर्याय मिला।।

✍️©अजय कुमार पाण्डेय
      हैदराबाद
      06दिसंबर, 2020

मन मधुप है डोलता।

मन मधुप है डोलता।    

बात छोटी है मगर
कैसे कहूँ दिल सोचता
संग तेरे प्राप्ति को
ये मन मधुप है डोलता।।

संग तेरा हर घड़ी
पाथेय मेरी बन खड़ी
और मेरी राह में
जुड़ने लगी नूतन कड़ी।

उस कड़ी के पाश को
प्रति पल यहां मैं खोजता
संग तेरे प्राप्ति को
ये मन मधुप है डोलता।।

तिरी ये अनुरागियाँ
हर पल खिली मधुमास सी
और वो आसक्तियाँ
प्राणों में उच्छ्वास सी।

गीत का वो राग तुम
हर पल जिसे मैं सोचता
संग तेरे प्राप्ति को
ये मन मधुप है डोलता।।

सूक्ष्म जीवन की घड़ी
औ दीर्घ सपने हैं यहाँ
जो मिला साथ तेरा
तो जीत लूंगा मैं जहॉं।

तुमसे स्मृतियाँ मेरी
पाथेय बन दिल जोहता
संग तेरे प्राप्ति को
ये मन मधुप है डोलता।।

✍️©अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       05दिसंबर, 2020



एक तेरा साथ।

एक तेरा साथ।   

चल दिए जब साथ तेरे
मुझे फिक्र की क्या बात है
क्या करूँगा जानकर मैं
अब दिन है या कि रात है।।

हमने तेरी राहों में ही
स्वप्न फूलों के बुने हैं
और तेरी प्रीत में ही
फूल खुशियों के चुने हैं।

कांटों से फिर कैसा डरना
जब हाथ में ये हाथ है।
क्या करूँगा जानकर मैं
अब दिन है या कि रात है।।

मैंने अपनी जिंदगी अब
नाम तेरे है लिखी
मुझको तेरी राहों में ही
राह अपनी है दिखी।

तेरे चेहरे की चमक से
रोशन मेरी हर रात है।
क्या करूंगा जानकर मैं
अब दिन है या कि रात है।। 

मेरे जीवन में तुम आये
हसरतें सब खिल गईं
जिंदगी की सारी खुशियां
चाहतें सब मिल गईं।

दिन रात मेरी है दुआ अब
जन्मों का अपना साथ हो।
क्या करूँगा जानकर मैं
अब दिन है या कि रात है।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       04दिसंबर,2020


सागर की लहरें।

   

सागर की लहरें।   

शांत समंदर की लहरें
कितना कुछ जाती हैं
ऊपर चाहे नीरवता हो
भीतर संग्राम मचाती हैं।

जाने कितना द्वंद लिए वो
अपने भीतर रहता है
आती जाती लहरों से भी
ना सुनता ना कहता है।

कभी टूटता है जब भी
तब ही ज्वार उठाती है।
ऊपर चाहे नीरवता हो
भीतर संग्राम मचाती हैं।।

जाने कितनी ही नदियों को
आकर मिलते देखा है
नदियों का मीठा जल हमने
खारा होते देखा है।

शायद नदियाँ सागर से मिल
आँसू की धार बहाती हैं।
ऊपर चाहे नीरवता हो
भीतर संग्राम मचाती हैं।।

नील गगन के छाँव तले
देखो तो नया सवेरा है
क्यूँ सागर की लहरों पर
रातों का दिखे बसेरा है।

तूफान छुपाए भीतर अपने
हमको जीना सिखलाती हैं।
ऊपर चाहे नीरवता हो
भीतर संग्राम मचाती हैं।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       04दिसंबर, 2020


राह अकेली।

राह अकेली।     

आज चली है राह अकेले
मिलने इक दीवाने को।
आज चला हूँ फिर से लिखने
दिल के इक अफसाने को।।

मुझको रोक नहीं सकते हैं
राहों में कोई बाधाएं
मुझको टोक नहीं सकते हैं
संवादों की अब सीमाएं।

किंतु-परन्तु से ऊपर उठकर
बस खुद को बहलाने को।
आज चला हूँ फिर से लिखने
दिल के इक अफसाने को।।

दुनिया ने कितने दांव चले हैं
धूप जली है पांव जले हैं
बनकर कितने हमराही
पग पग पर हर बार छले हैं।

छल कपट औ षडयंत्र को
पथ से आज मिटाने को।
आज चला हूँ फिर से लिखने
दिल के इक अफसाने को।।

दिल से दिल का मेल नहीं जब
इच्छाएं फिर क्या करना
आपस में हो प्रेम नहीं जब
उम्मीदें फिर क्या करना।

ऐसे सारे संबंधों को
चला आज भुलाने को।
आज चला हूँ फिर से लिखने
दिल के इक अफसाने को।।

लोभ, मोह, माया की दुनिया
से दूर बहुत मुझको जाना है
नहीं किसी से रही कामना
अब खुद को ही अपनाना है।

बहुत तपा औरों की खातिर
अब खुद को अपनाने को।
आज चला हूँ फिर से लिखने
दिल के इक अफसाने को।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       03दिसंबर, 2020

प्रेम ग्रंथ।

प्रेम-ग्रंथ।    

तुम्हीं मेरे जीवन की सुबह
तुमसे ही मेरी शाम है
तुमसे सारा दिवस खिला है
खिली तुम्हीं से रात है।

तुम्हीं मेरे साँसों की सरगम
मन के वीणा की तान हो
प्राणवायु तुम मेरे प्रियवर
तुम ही जीवन का गान हो।

संग तेरा काशी सा पावन
कण कण मथुरा औ वृंदावन
तेरे आलिंगन में मुझको
पतझड़ भी लगता है सावन।

तुम बिन कुछ भी सोचूं मैं
ये मुझको मंजूर नहीं है
आओ कह दें सारे जग से
प्रेम हमारा मजबूर नहीं है।

इस दुनिया में जब जब भी
कोई प्रेम ग्रंथ लिखा जाएगा
सच कहता हूँ हर पन्नों में
नाम हमारा ही आएगा।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
      हैदराबाद
      02दिसंबर, 2020








सफल साधना।

सफल साधना।   

घना अँधेरा दिल में जब तक
उगता सूरज क्या करता
चाहे जितनी किरण बिखेरे
कुहरा धीरे ही हरता।

मन में जैसा भाव बने है
वैसा ही फल मिलता है
शूल बिखेरे पथ में दूजे
अपना पथ भी छलता है।

कोरी कोरी बातों से
बदलाव नहीं है आ पाता
तपे आग में सोना जब ही
सारे जग को तब है भाता।

प्रेम भावना त्याग समर्पण
जीवन की मौलिक पूंजी हैं
इनमें ही संस्कार पले हैं
यही सत्कारों की कुंजी हैं।

शुद्ध भाव जब मन में होगा
कुशल आराधना हो पाएगी
जीवन को सम्मान मिलेगा
सफल साधना हो पाएगी।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
      हैदराबाद
      01दिसंबर, 2020




व्हाट्सएप्प सत्संग।

व्हाट्सएप्प सत्संग।  

देख मची सत्संग वहां भी
लोभ जहां पर देखा है
और शिकन उन माथों पर भी
जिनकी किस्मत की रेखा है।

इक दूजे को ज्ञान बाँटते
कितनों को हमने देखा है
खुद के भीतर उनको लेकिन
नहीं झांकते देखा है।

आज भर रहे फोन सभी
कितनी ही प्यारी बातों से
फिर न जाने क्यों उड़ रही
रातों को नींदें आंखों से।

फ़ेसबुक व व्हाट्सएप्प मंच
ज्ञान बहुत ही देते हैं
लेकिन जाने अनजाने में
वक्त बहुत ले लेते हैं।

जिन लम्हों में परिवारों सह
वक्त बिता सकते हैं सारे
उन लम्हों में देखो अब तो
बैठे केवल फोन सहारे।

जिन बातों से यहाँ प्रभावित
हो ज्ञान मुखर सब भेज रहे
जो उनको अपना लें सारे
तो आपस में बस नेह रहे।

वक्त फोन से थोड़ा कम कर
परिवारों में जो मिलते हैं
उनका जीवन सुखमय रहता
संस्कारों से वो खिलते हैं।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       01दिसंबर, 2020






नन्हीं का प्रश्न।

   नन्हीं का प्रश्न।   

मैं तेरी नन्हीं सी गुड़िया
मैं झप्पी जादू की पुड़िया
कोख तिहारे मैं आई हूँ
लाखों सपने बन आयी हूँ।

चंदा सी शीतलता मुझमें
औ प्रभात की आभा मुझमें
तारों की छाँवों से चलकर
तेरी बनकर आयी हूँ।

तुमने मुझको शरण दिया है
कोख में अपने वरण किया है
रक्त कणों से सींचा है जब
खुशियां बन कर छाई हूँ।

अपने आने की खुशियां
जीवन में तेरे देखी है
मैंने सपनों की दुनिया
माँ नैनों में तेरे देखी है।

पर जाने क्यूँ मन डरता है
जब जग की बातें सुनती हूँ
कुछ शंकाएं मन में मेरे
माँ तुझसे मैं अब कहती हूँ।

कहते तो सब लोग यहां हैं
बेटा-बेटी एक यहां हैं
पर कुछ आंखों में मैंने
शंका के डोरे देखे हैं।

कुछ ऐसी खबरें हैं जिनको
सुनसुन कर मैं डरती हूँ
क्या दुनिया में आ पाऊंगी
यही सोच में रहती हूँ।

माँ तुम पापा से कहना
उनकी खुशियाँ बन जाऊंगी
जो भी बेटों से मिलता है
ज्यादा सम्मान दिलाऊंगी।

जीने का अधिकार मुझे है
मुझसे इसको मत छीनो
कुछ लोगों की बातों में पड़
मेरा जीवन मत छीनो।

माँ तेरे घर के कोने में
मैं कोयल बनकर कुहकुंगी
उपवन की खुशबू बनकर के
मैं कोने कोने महकुंगी।

वेद पुराण सभी ग्रन्थों ने
जब बेटी को सम्मान दिया
फिर कैसे इस दुनिया ने
ग्रन्थों का अपमान किया।

दुनिया में आने दो मुझको
इक बार जहाँ मैं देखूंगी
बेटी का कुसूर क्या आखिर
मैं सारे जग से पूछूँगी।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
      हैदराबाद
      30नवंबर,2020


बात कहने की नहीं है।

 बात कहने की नहीं है।   

बात ये कहने की नहीं है
मौन भी कैसे रहूं मैं
बात जो दिल में दबी है
मौन वो कैसे सहूँ मैं ।।

तकरीर जो तुमने गढ़ी
जब फैसले की रात थी
तब मेरे दिल ने जाना
जो दिल मे तेरे बात थी।।

दिल के सारे मुआमलों को
खत्म मैंने कर दिया था
पर बात तेरी जब भी चली 
तब मौन सब जज्बात थे।।

सांझ का था धुँधलका औ
था घना कुहरा वहां पर
दीप की इक लौ जली थीं
पर बंद रोशनदान थे।।

टिमटिमाया था दिया तब
शायद घनेरी रात थी
दम घुटा जब रोशनी का
तन्हा सभी हालात थे।।

और क्या कहना वहाँ जब
रोशनी ही छुप गयी थी
रात की चादर तनी औ
बादलों में बैठा चाँद था।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       28नवंबर, 2020





सूरज आता होगा।

सूरज आता होगा।  

घना भले हो कुहरा कितना
कुछ तो राह दिखाता होगा
देख रहे क्या मौन गगन में
सूरज अब तो आता होगा।।

रात भले थी घनी अँधेरी
कितने ही तूफान लिए
बिखरा डाला कुछ ही पल में
जाने कितने घाव दिए।

घाव लगे जो दिल पे तेरे
मलहम वहाँ लगाता होगा।
देख रहे क्या मौन गगन में
सूरज अब तो आता होगा।।

सच है उनके दरबानों में
सपनों का स्थान नहीं है
और हमारे अरमानों पे
उनका भी अहसान नहीं है।

क्या फिर उनके दरबारों में
कोई शीश झुकाता होगा।
देख रहे क्या मौन गगन में
सूरज अब तो आता होगा।।

अत्याचारों का अंत यहाँ
हर बार बुरा ही होता है
सत्य निखरता है अकसर
झूठ बिखर कर रोता है।

कर विश्वास यहॉं बस खुद पर
लाख भले भरमाता होगा।
देख रहे क्या मौन गगन में
सूरज अब तो आता होगा।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       26नवंबर, 2020




अनायास।

            अनायास।   

अनायास नहीं आया मैं पास तुम्हारे
इसमें तुम्हारी भी तो मर्जी रही होगी।
आखिर कब तलक जिंदगी यूँ कटती अकेले
शायद तुम्हारी भी तो अर्जी रही होगी।।

जो कहोगे तुम तो फिर मैं चला जाऊंगा
और वापस तेरी गलियों में न आऊंगा
एक बार खुद से ही तुम पूछ लेना जरा
कहीं तिरी ख्वाहिश अधूरी तो नहीं होगी।

यूँ तो हरदम एक खुली किताब थी जिंदगी
पन्ना पन्ना सजी एक गुलाब थी जिंदगी
था दोष किसका तेरा, या कहूँ के मेरा
काश इसे कभी तो शिद्दत से पढ़ी होती।।

अब आईना देख के मुस्कुरा लेता हूँ
कभी अनकहा सा गीत गुनगुना लेता हूँ
फिर भी हरपल यही एक खयाल रहता है
अनायास ही कोई तो पुकारेगा कहीं।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       25नवंबर, 2020



तन्हाई।

        तन्हाई।    

मेरा सच भले ही तुझे मंजूर नहीं, पर
तेरे झूठ ने तो हर बार तौबा की है।।

कैसे कह दूँ के मेरी कोई खता नहीं 
तुझे चाहना ही जब मेरी खता हो गयी।।

मैंने तो फ़िज़ाओं में महक तेरी ढूंढी
न था मालूम फ़िज़ाओं में जहर भी होंगे।।

अब तो डरता हूँ मैं अपनी तन्हाई से 
कहीं तेरा नाम जुबाँ पे न आ जाये।।

जख्म तूने जो दिया वो तो भर जाएगा
मगर दिल पे लगी जो उसे भुलाऊँ कैसे।।

तुम यूँ ही चले जाते तो गम नहीं होता
नम आंखों ने तेरी बात बहुत कह डाली।।

जिस बात की खातिर तुमने मुझे छोड़ा है
काश मेरी मजबूरी कभी समझा होता।।

चलो अच्छा है के तुमने मुझे छोड़ दिया
वर्ना कुछ इल्जाम तेरे सर पे भी होता।।

अब यादों से कोई भी गिला नहीं मुझको
अब तो यादें हैं मैं हूँ औ तन्हाई है।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       25नवंबर,2020

उपहार।

   उपहार।  

मेरे जीवन के बसंत तुम
तुमसे ही त्योहार है
आशाओं के तुम आलिंगन
तुमसे सब श्रृंगार है।

तुम ही जीवन की लतिका के
प्राण वायु संचार हो
मेरे अंतस की वीणा के
मधुर प्रेम झंकार हो।

मैं पुस्तक की एक पंक्ति हूँ
तुम पुस्तक का सार हो
जीवन रूपी इस उपवन का
सर्वोत्तम उपहार हो।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
      हैदराबाद
      24नवंबर, 2020





इच्छाओं का आकाश।

इच्छाओं का आकाश।

कदम कदम पर लोग खड़े हैं
ख्वाहिश का अंबार लिए
चले जा रहे अपनी धुन में
कितने धूल गुबार लिए।।

अंधकार से कोसों दूर
यहाँ सभी को जाना है
दूर क्षितिज की सीमा तक
इच्छाओं को पाना है।

इच्छाओं में होड़ मची है
मूक मगर संवाद लिए।
चले जा रहे अपनी धुन में
कितने धूल गुबार लिए।।

लगता जीवन सिमट रहा है
निजता के तहखानों में
जैसे चेतना सुप्त पड़ी है
चिंता और अरमानों में।

सिमट रही है मधुर चेतना
उम्मीदों का भार लिए।
चले जा रहे अपनी धुन में
कितने धूल गुबार लिए।।

वरदानों की ख्वाहिश में
पल पल जीवन लुटा जा रहा
सपनों की यूँ गठरी भारी
मन ही मन सब घुटा जा रहा।

बीत रहे पल छिन जीवन के
कितने ही अवतार लिए।
चले जा रहे अपनी धुन में
कितने धूल गुबार लिए।।

करने को तो बहुत किया पर
जितना चाहा मिला नहीं
गैरों की बातें क्या करना
अपनों से भी गिला नहीं।

इस छोटे से जीवन में
बड़े बड़े उपकार लिए।
चले जा रहे अपनी धुन में
कितने धूल गुबार लिए।।

सिमट रही है धरती सारी
सिक्कों की आवाजों में
लगता जैसे जंग छिड़ी हो
सारे रीति रिवाजों में।

अरमानों के पैबंदों में
सपनों का आकार लिये
चले जा रहे अपनी धुन में
कितने धूल गुबार लिए।।

 ✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       24नवंबर, 2020

ज़िंदगी- दुश्मन या सहेली।

जिंदगी-दुश्मन या सहेली।  

जिंदगी अजब सी पहेली है
दुश्मन तो कभी सहेली है।।

तमाम उम्र झाँकती रही
ये ख्वाहिशों के दरीचों से
साधारण लगी कभी तो
कभी लगी अलबेली है

जिंदगी अजब सी पहेली है
दुश्मन तो कभी सहेली है।।

कभी तो दर्द का आलम मिला
कभी खुशियों का मलहम मिला
कभी चाहत को मंजिल मिली
कभी जज्बातों की होली है।

जिंदगी अजब सी पहेली है
दुश्मन तो, कभी सहेली है।।

न शिकवा कोइ, शिकायत नहीं
तुझसे मेरी अब अदावत नहीं
इन रास्तों पे मचलती रही
क्या तू भी कहीं अकेली है।

जिंदगी अजब सी पहेली है
दुश्मन तो, कभी सहेली है।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
      हैदराबाद
      22नवंबर, 2020







दिल ने कुछ कहा।

दिल ने कुछ कहा।    


है आज दिल ने कुछ कहा
मैं कहूँ क्या और तुमसे
कल तक तो था बेजुबान
इसे मिली जुबान तुमसे।

तुम मिले जो आज मुझको
जिंदगी मुझको मिली है
आज तेरी चाहतों में
बंदगी मुझको मिली है।

फिर तेरी दीवानगी ने
है कहा कुछ आज मुझसे
मिल गयी जब दास्तान फिर
मैं कहूँ क्या और तुमसे।

कल तक दिल था बेजुबान
इसे मिली जुबान तुमसे।।

तुमसे मिल कर मैंने जाना
कितनी तन्हा जिंदगी थी
रास्ते कितने अकेले और
न कोई पायंदगी थी।

पर तुम्हारे संग ने आज
मुझको मिलाया है मुझी से
तुमने ही तो जिंदगी दी
मैं कहूँ क्या और तुमसे।

कल तक दिल था बेजुबान
इसे मिली जुबान तुमसे।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       20नवंबर, 2020



खिलता उपवन देखा है।

   खिलता उपवन देखा है।   

जिसने पग के छालों में भी
हँसता जीवन देखा है
उसने ही अवसादों में भी
खिलता उपवन देखा है।।

उपवन की हरियाली खातिर 
जिसने जितना त्याग किया
उसने ही जीवन को समझा
और उसने अंतर्याग किया।

उपवन की हरियाली में ही
जिसने जीवन देखा है
उसने ही अवसादों में भी
खिलता उपवन देखा है।।

डटे यहाँ, जो मिटे नहीं
थके मगर, वो रुके नहीं
प्रगतिशील पथ के राही
बाधाओं से झुके नहीं।

पथ के कंटक में भी जिसने
फूलों का हँसना देखा है
उसने ही अवसादों में भी
खिलता उपवन देखा है।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
      हैदराबाद
      20नवंबर, 2020


दिल तुम्हारा हुआ है।

       दिल तुम्हारा हुआ है।   

मुझे तुमसे बिछड़े जमाना हुआ है
मगर दिल हमेशा तुम्हारा हुआ है।

तेरा गुनगुनाना
वो पलकें झुकाना
मुझे याद अब तक 
तेरा मुस्कुराना
वो लहरा के चलना 
वो गिरना संभलना
हैं याद मुझको  
तेरी हर अदाएं।

ये बीते कहानी जमाना हुआ है
मगर दिल हमेशा तुम्हारा हुआ है।।

वो बरसात में मुझसे
तेरा लिपटना
शर्मा के वापस
मुझी में सिमटना
बदन काँपना पर
लवों का थिरकना
वो तेरी शरारत
वो तेरी अदायें।

यूँ मुश्किल बहुत वो भुलाना हुआ है
मगर दिल हमेशा तुम्हारा हुआ है।

मुझे याद अब भी
हैं सारी वफ़ाएँ
मगर कैसे भूलूँ
जो की थी जफाएँ
उस रात पलकों पे
आँसू का रुकना
मगर कैसे भूलोगे
वो सारी दुआएं।

उसे अब तो गुजरे जमाना हुआ है
मगर दिल हमेशा तुम्हारा हुआ है।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
      19नवंबर,2020

छठी माई के गीत।

    छठी माई के गीत। 

मनवा ई हरदम, करे ला दुहाई
हे छठी माई, घरे कइसे आई।
हे छठी माई, घरे कइसे आई।।

संकट में संसार घिरल बा
जेहि देखा वहि आज विकल बा
ई संकट के दूर करे के
ई संकट के दूर करे के
अब करा तू ही उपाई।
हे छठी माई, घरे कइसे आई
हे छठी माई, घरे कइसे आई।।

कइसे जाई गेहुँ पिसाई
कइसे दौरा घाट पहुंचाई
केरा के घरवा अउ उखिया
केरा के घरवा अउ उखिया
अउ फल के डलिया कइसे आई
हे छठी माई, घरे कइसे आई
हे छठी माई, घरे कइसे आई।।

विधि विधि के पकवान चढ़ाइब
डूबत सुरुज के अरघ चढ़ाइब
गेंहू के ठोकुआ डलिया में रखब
भीनसारे फिर अरघ चढ़ाइब।
हे छठी माई, घरे कइसे आई
हे छठी माई, घरे कइसे आई।।

हम बालक नादान अही माँ
हम पर तू ही ध्यान धरा माँ
हमके अब आशीष ओढावा
हमरो करा अब तू सुनवाई।
हे छठी माई, घरे कइसे आई
हे छठी माई, घरे कइसे आई।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
      हैदराबाद
      17नवंबर,2020




तुम्हारी याद।

           तुम्हारी याद।   

आज तुम्हारी याद हमें फिर देख कहाँ ले आयी है
लुटी जहाँ पर प्यार की कश्ती देख वहाँ ले आयी है।

कितने सावन बीत चुके हैं
अब तक अंबर से रस बरसे
कितनी रैना बीत चुकी है
पर मिलने को जियरा तरसे।

चाह तुम्हारी मेरे दिल को हर पल ही तड़पायी है
आज तुम्हारी याद हमें फिर देख कहां ले आयी है।।

जीवन की परिभाषा तुम थे
और नेह की अभिलाषा  थे
तुमने ही जीना सिखलाया
औ सपनों की आशा तुम थे।

पर ना जाने कौन चाह ने खुशियाँ सब बिखराई है
आज तुम्हारी याद हमें फिर देख कहां ले आयी है।।

जग के सारे तानोँ पर भी
सुन सुन तुम मुस्काती थी
कितनी ही बातें थीं ऐसी
बिन कहे यहाँ कह जाती थी 

तेरी उन सारी बातों में भी कितनी गहराई थी
आज तुम्हारी याद हमें फिर देख कहाँ ले आयी है।।

ऐसा फिर क्या हुआ वहाँ पर
जो तुम हमसे रूठ गए
जनम जनम का साथ हमारा
पल में कैसे छूट गए।

तुम्हें मुबारक खुशियाँ सारी आँख यूँ ही भर आयी है
आज तुम्हारी याद हमें फिर देख कहाँ ले आयी है।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
      हैदराबाद
     16नवंबर,2020

मैं चमन का फूल हूँ।

   मैं चमन का फूल हूँ। 

चमन के फूल ने कुछ आज है मुझसे कहा
रोशनी हो या अँधेरा मैं सदा खिलता रहा
देख ले संसार मुझको मैं धरा का हार हूँ
और तेरी चाहतों का मैं यहां श्रृंगार हूँ।

ना कोई भेद मुझको हर कोई स्वीकार है
रास्तों के शूल जो हैं सारे मेरे यार हैं
कैसे फिर मैं भूल जाऊँ राह ये मैंने गढ़ी
औ कैसे मैं भूल जाऊँ जिंदगी से प्यार है।।

आओ फिर इस रास्ते को प्रीत से रोशन करें
तेरे मेरे बीच एक दीप फिर रोशन करें
औ चलें उस छोर तक खुशबू जहाँ से आ रही
और नूतन रीत से सारा जहाँ रोशन करें।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
    हैदराबाद
    16नवंबर,2020

सम्मान की खातिर।


    सम्मान की खातिर।   

कौन कहता है यहाँ बस जीत की खातिर लड़ो
कौन कहता है यहाँ बस प्रीत की खातिर अड़ो
एक बस सम्मान तेरा वक्त की पहचान है
जो अड़ो तुम आज तो सम्मान की खातिर अड़ो।

पूर्व पथ चुनने से पहले पथ की पहचान कर
पंथ के सब रोक का तू पूर्व ही अनुमान कर
कौन रोकेगा तुझे जब दृढ़प्रतिज्ञ हो चल पड़ा
पंथ के हर मोड़ का बस तू यहाँ सम्मान कर।

कितनी जवानी त्याग दी आज तक ना लिख सकीं
औ कहानी त्याग की ना पुस्तकों में छप सकीं
शोक क्या करना यहॉं जो कोई सुप्तप्राय है
नक्कारखाने में तूती की व्यथा कब सुन सकीं।

कौन कहता है तुझे आघात सारे भूल जाओ
और दिल ने जो सहा वो घात सारे भूल जाओ
था बुरा या के भला अब ये बात सारी व्यर्थ है
शोक करना क्या यहाँ अब इनका ना कोई अर्थ है।

आज फिर चलने से पहले रास्तों को जान ले
कौन अपना या पराया आज तू पहचान ले
है तेरा अधिकार इनपर ये ही तेरे मीत हैं
और जिंदगी के रास्तों के ये ही तेरे गीत हैं।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
    हैदराबाद
   16नवंबर,2020


जीवन गीत सुनाऊँ।

      जीवन गीत सुनाऊँ।   

बिखरे बिखरे तुम रहते हो
किस विधि बोलो आज मनाऊँ
कितना कुछ कहना है तुमसे
किस विधि बोलो आज सुनाऊँ।

आखिर ऐसी कौन व्यथा है
जिसने तुमको घेरा है
बोलो कौन बचा है जग में
जिसको दुःख ने छोड़ा है।

सुख-दुःख साथ चले हैं अपने
कैसे अब तुमको समझाऊं।
कितना कुछ कहना है तुमसे
किस विधि बोलो आज सुनाऊँ।।

जीवन अपना एक सफर है
कभी इधर तो कभी उधर है
थककर बैठ गया जो इसमें
मिली उसे न पुनः डगर है।

कभी डगर में धूप मिले तो
आशाओं के फूल बिछाऊँ।
कितना कुछ कहना है तुमसे
किस विधि बोलो आज सुनाऊँ।।

तुमने कितना कुछ झेला था
पर जीवन से हार न मानी
कितने शूल चुभे थे पग में
पर कांटों से हार न मानी।

भूल गए क्या सारी बातें
बोलो कैसे याद दिलाऊँ।
कितना कुछ कहना है तुमसे
किस विधि बोलो आज सुनाऊँ।।

चलो आज फिर दोनों मिलकर
उम्मीदों के दीप जलाएँ
अपने सपनों को फिर खोजें
आशाओं के फूल खिलायें।

आशाओं की वीणा पर फिर
सपनों वाले राग सजाऊँ
तुम फिर गीत लिखो जीवन के
मैं फिर तुमको गीत सुनाऊँ।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
      हैदराबाद
     15नवंबर,2020





दीपावली पर मुक्तक।

दीपावली पर मुक्तक।   

जगमगाते दीप हमको, ये इशारे कर रहे
दूर अँधियारा हुआ है, तमस सारे हर रहे
आओ हम सीखें इनसे, उजाले का सलीका
औ जगमगा दें राह जो, अँधेरों में घिर रहे।।

छोड़ कर पथ फूल वाले, कंटक पथ चुन लिए
उमर भर के स्वप्न सारे, धूप में जो बुन लिए
आज उनके त्याग ने ही, सत्य को पहचान दी
आज जिनके प्रेम में दीप लाखों जल रहे।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       14नवंबर, 2020

पंचदीप दीपावली का।

पंचदीप दीपावली का।   

चलो वहाँ पर दीप जलाएँ
अब भी जहाँ अँधेरा है
दीप ज्ञान का वहाँ जलाएँ
जहाँ अज्ञान का घेरा है।

पहला दीपक राष्ट्रधर्म का
देश प्रेम की बाती हो
दूजा दीपक आर्यधर्म का
खुशबू जिससे आती हो।

तीजा दीपक नैतिकता का
नारी का स्वाभिमान बढ़े
चौथा दीपक संबंधो का
जिससे सबका मान बढ़े।

और पाँचवाँ मानवता का
भारत की पहचान बने
शिक्षा, संस्कृति औ सभ्यता
में भारत कीर्तिवान बने।

बढ़े राष्ट्र की कीर्तिपताका
जन गण मन का मान बढ़े
विश्वपटल के परिदृश्य पर
भारत का सम्मान  बढ़े।

पंचदीपक जो जला तो
मन निखर कर के रहेगा
मुक्त होगी ये धरा फिर
तम बिखर कर के रहेगा।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
      14नवंबर,2020




प्रणय निवेदन।

  प्रणय निवेदन।    

इन नैनों की चितवन ने
मन का मेरे संधान किया
सकुचाई पलकों ने मेरी
इच्छाओं का मान किया।

तेरे संकर्षण ने मुझको
एक नया दिनमान दिया
सकुचित स्तंभित भावों ने
लज्जा को सम्मान दिया।

उर से उठती प्रेम तरंगें
नूतन भाव जगाती हैं
प्रेम मिलन की बेला में
बिन कहे बहुत कह जाती हैं।

अपनी पलकों के साये में
मुझको तुम अब रहने दो
कही गयी ना बातें जो भी
मुझको वो सब कहने दो।

तुम्हें समर्पित जीवन अब ये
तुम इसको स्वीकार करो
अपने अधरों के कंपन से
मस्तक पर उपकार करो।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       13नवंबर,2020



कर्मयोग।

     कर्मयोग।   

ना जीत के उन्माद में
ना हार के अवसाद में
जो मिले स्वीकार मुझको
शिकवा नहीं संसार में।

आज जो अपना यहाँ है
था कल वो किसी और का
मोह कैसा आज है फिर
निश्चित नहीं जब ठौर का।

हैं मुसाफिर सब यहाँ पर
चल रहे अपने सफर में
सबका अपना आसमां है
रुकना फिर क्या डगर में।

जो मिला तुझको सफर में
उसका न तू अभिमान कर
साथ तेरे चल रहे जो
सभी का तू सम्मान कर।

पल भर की है ये जिंदगी
हाथ नहीं कुछ आएगा
बस तेरा सत कर्म ही
बाद यहाँ रह जायेगा।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
      हैदराबाद
     13नवंबर, 2020

राष्ट्र प्रथम।

     राष्ट्र प्रथम। 

हार जीत का ये अंतर
आज है कुछ कह रहे
सोच औ राहें मुड़ी हैं
अभिव्यंजनाएँ ढह रहे।

है चल रही ऐसी पवन
के राह निश्चित दिख रही
औ भविष्य के बर्ताव की
परिमाण' भी अब लिख रही।

सोचिये अब आज हमसे
चूक कैसी हो रही है
हर घड़ी मन प्राण से अब
भूल कैसी हो रही है।

वर्जनाओं तक को हमने
विजय से आज जोड़ रखा
नैतिकताओं को हमने
ताखों" पर है छोड़ रखा।

परचम धर्म और जाति का
चहुँओर बस लहरा रहा 
राष्ट्रहित का भाव भी अब
क्या गौण होता जा रहा।

वक्त रहते आज हमको
चिंतन यहाँ करना होगा
हिंदुस्तान के पर्याय का 
रक्षण यहाँ करना होगा।

एक सूत्र एक भाव का
सिद्धांत केवल राष्ट्र है
जो प्रगति को मोक्ष दे वो
वृद्धान्त"' केवल राष्ट्र है।।

 ' परिमाण- मापन
" ताखों- दीवार में कुछ रखने हेतु बनाई गई जगह
"' वृद्धान्त- प्रतिष्ठा करने योग्य 

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
     हैदराबाद
     12नवंबर,2020


मैं चला हूँ।

  मैं चला हूँ।   

आज जग के ताप को
मैं मिटाने को चला हूँ
बंधनों औ रोक को
मैं हटाने को चला हूँ।

आज नूतन भाव ले
सुर सजाने को चला हूँ
और अपने गीत से
उर रिझाने को चला हूँ।

है सफर मुश्किल मगर
आज तय करने चला हूँ
हार हो या जीत हो
स्वीकारने मैं चला हूँ।

प्यार, करुणा औ दया
का यहाँ पारावार है
रण ये पुण्य पंथ का
जो भी मिले स्वीकार है।।

 ✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       11नवंबर, 2020

वेदनाओं का समर।



खुद का खुद से संवाद-अंतर्द्वंद

वेदनाओं का समर।  

वेदनाओं के समर में
मौन मैं चुपचाप ठहरा
और मेरे होंठ पर भी
वर्जनाओं का है पहरा।

उस तरफ हैं लोग अपने
द्वंद जिनसे हो रहा है
मोह, माया से ग्रसित हो
मन विकल सा हो रहा है।

आज उनके वार का मैं
कैसे करूंगा सामना
अपमान के प्रतिकार में
मुश्किल है शस्त्र थामना।

सत्य-असत्य के समर में
सब तर्क गुंफित हो चले हैं
अर्थ ही जब प्रश्न बन गए
पर्याय कुंठित हो चले हैं।

इस समर में आज अपनी
तू भूमिका स्वीकार कर
त्याग सारे मौन अपने
बस सत्य खातिर वार कर।

अब कौन किसका है यहाँ
वक्त का न इससे वास्ता
इस समर का पार्थ है तू
चुन अपना खुद तू रास्ता।।

 ✍️©️अजय कुमार पाण्डेय 
     हैदराबाद 
     11नवंबर, 2020

जीवन जीना सीख लिया।

जीवन जीना सीख लिया। 

नव पल्लव को शाखों पर
हमने खिलते देखा है
कलियों औ फूलों को भी
अकसर मिलते देखा है।

रश्मि भोर की किरणों से
कुहरा छँटते देखा है
नव प्रभात के शंखनाद से
अँधियारा मिटते देखा है।

नदियों को उद्गम स्थल पर
कल कल चलते देखा है
औ सांझ ढले बेला में
सागर से मिलते देखा है।

अकसर फूलों को हमने
शाखों से गिरते देखा है
और कभी पंखुड़ियों को
फूलों से झरते देखा है।

बसंत ऋतु के आते ही
सारा उपवन खिल जाता है
लेकिन पतझड़ के मौसम में
उनका भी उजड़न देखा है।

मिलना और बिछड़ना दोनों
जीवन की मजबूरी है
पास रहें या दूर रहें हम
आपस में प्रेम जरूरी है।

आंखों का आंसू से अपने
कितना सुंदर नाता है
लेकिन अवसादों के क्षण में
उनका बिछड़न देखा है।

छोटी-छोटी खुशियों में हम
जब इक दूजे से जुड़ते हैं
कोई कैसी राह चले पर
सब इक दूजे से जुड़ते हैं।

जीवन के इस मौसम को
जिसने भी हँसकर देख लिया
उसने ही बस जीवन समझा
औ उसको जीना सीख लिया।।

 ✍️©️अजय कुमार पाण्डेय 
      हैदराबाद 
      11नवंबर, 2020

कविताओं का सम्मान।

कविताओं का सम्मान। 

मैंने अपनी कविताओं में
जीवन का सम्मान किया
सामाजिक मुद्दों पर बोला
समरसता पर मान किया।

कविताएं वो साधन हैं जो
दिल की बातें कहती हैं
मन की सारी पीड़ाओं को
पन्नों पर वो लिखती हैं।

उर में जब भी उठी वेदना
कविताओं ने दिया सहारा
होने लगी जहां सुप्त चेतना
तब गीतों ने दिया सहारा।

जब लोगों ने ताने मारे
कविताएं तारनहार बनीं
छोड़ चले मँझधार में सभी
कविताएं खेवनहार बनीं।

लिए कलम हाथों में मैंने
जब जब दरपन देखा है
मन में नव अहसास जगा है
मरुधर भी खिलते देखा है।

इसके हर बंधों में मैंने
नूतन जीवन पाया है
कदम कदम जो बढ़ीं पंक्तियां
खिलता उपवन पाया है।

जीवन की कविताओं में भी
मैंने कांटों का मान किया
उठी कलम हाथों में जब भी
जीवन का गुणगान किया।।

 ✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       11नवंबर, 2020

मनमीत।

          मनमीत।  

तुमको मनमीत बनाने को
मैने नवगीत सजाया है
मैंने गीतों में छंदों में
बस तुमको ही पाया है।

है खिला-खिला जीवन अपना
तुम जबसे इसमें आन बसे
सांसों की हर सरगम में
बस तेरे ही अरमान बसे।

तुझसे शुरू हुआ ये जीवन
अब तुझपे ही खत्म करूं
आये जाए कोई मौसम
एक बस मैं तुझको ही जियूँ।

तुमसे ही है चाँद सितारे
तुमसे जीवन की बगिया
तुम ही धरती तुम ही अंबर
तुमसे हैं मेरी खुशियाँ।

जाना जीवन मधुरिम कितना
जबसे तुमसे मेल हुआ
सच कहता हूँ मिलकर तुमसे
जीवन ये परिपूर्ण हुआ।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        06नवंबर,2020





पुकार।



पुकार।               

भारत माता के हाथों में
जाने कैसी रेखा है
जब भी देखा है इसको
दो-दो भारत देखा है।

चमक-दमक के पीछे इक भागे
दूजी सीधी राह चले
एक चली है दरबारों में
दूजी बस फुटपाथ चले।

कहीं शब्द की गहराई है
और कहीं है हलकापन
कहीं स्वार्थ की परछाईं है
और कहीं है अपनापन।

कहीं विचारों की टकराहट
और कहीं दीवानापन
कभी किसी से प्रेम निखरता
और कभी बेगानापन।

अवसरवादी राजनीति की
पल पल झलक दिखाती है
मुंह में राम बगल में छूरी
फिर भी खुद पर इतराती है।

शहरों के रस्तों ने अकसर
पगडंडी को घेरा है
गांव शहर की ओर चला पर
शहरों ने मुंह फेरा है।

लोकतंत्र के पैमानों पर
वादों के कितने फ़ेरे हैं
सत्ता के आमद की खातिर
जनता पर कितने घेरे हैं।

इक भारत वादा करता है
दूजा उसकी बाट जोहता
एक इशारा करता जब भी
दूजा उसकी थाह टोहता।

एक चले है अपनी धुन में
दूजा पाँव सँभल कर रखता
एक भरा है चकाचौंध से
दूजा राह सँभल कर चलता।

दोनों के इस अंतर को
आखिर कब तक सहना होगा
पगडंडी के सब वादों को
पूरा अब करना होगा।

वरना इस अंतर की खाई
और यहाँ जो बढ़ जाएगी
अपनी ही छवि धूमिल होगी
मान प्रतिष्ठा खो जाएगी।

लोकतंत्र के सरोकार का
मान यहां  करना होगा
संविधान की प्रस्तावना का
सम्मान यहां करना होगा।।

 
 ✍️©️अजय कुमार पाण्डेय 
        हैदराबाद 
        03नवंबर, 2020

कशमकश।

   कशमकश।   

मौन उदासी चेहरे की
कितना कुछ कह जाती है
जिन बातों का मोल नहीं
उन सबको सह जाती है।

कितनी ही खामोश व्यथाएँ
मन में लेकर चलते है
अपने सारे भाव छुपाते
हँसकर सबसे मिलते है।

सब दर्द छुपाते चेहरों के
घाव मगर सब गहरे हैं
कहना चाहे कितना कुछ पर
होठों पर ही पहरे हैं।

कितने सागर डूब गए 
आंखों की अँगड़ाई से
फिर क्यूँ हम पछताते हैं
अपनी ही परछाईं से।

कदम कदम पर ताने कितने
औ कितने हैं धोखे खाये
मजाक सहे हैं जज्बातों के
कितने अपने हुए पराए।

चाहे कितने तूफां आये
लेकिन आस कभी ना छोड़ी
कितनी ही बाधाएं झेलीं
पर उम्मीद कभी ना तोड़ी।

जीवन के घने थपेड़ों ने
बस इतना सिखलाया है
रात अँधेरी भले घनेरी
पर सूरज दिखलाया है।

देख प्रलोभन जीवन पथ में
कभी नहीं झुक जाना तुम
औ घबराकर बाधाओं से
कभी नहीं रुक जाना तुम।

हार-जीत जीवन के पहलू
इनसे मिलकर रहना है
जिसने इन भावों को समझा
ताज उसी ने पहना है।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       02नवंबर,2020







नदी और समंदर का संवाद।

नदी और समंदर का संवाद।


माना तुम हो घना समंदर
मैं नदिया की इक धारा
माना तुम हो स्थिर, शांत, विरल
मैं चंचल उश्रृंखल धारा।

कितने ही तूफान समेटे
अपने भीतर रहते हो
चुपचाप देखते हो सबकुछ
ना सुनते ना कहते हो।

चाहे कैसा भी हो मौसम
सबका तुमसे है यारा।
माना तुम हो घना समंदर
मैं चंचल उश्रृंखल धारा।।

दुनिया भर के महाद्वीप के
तट से मिलते रहते हो
पर अपनी ही नदियों से
टुकड़ों में तुम मिलते हो।

तुमसे जब इतनी उम्मीदें
तब जल तेरा  क्यूं खारा।
माना तुम हो घना समंदर
मैं नदिया की उश्रृंखल धारा।।

राहों के कंकर पत्थर को
हमने भी राह दिखाई है
सूखी बंजर धरती पर भी
हमने फसलें  लहराई है।

हर मौसम से लड़कर हमने
तुमको दिया सहारा है।
माना तुम हो घना समंदर
मैं नदिया की उश्रृंखल धारा।।

मत इतना अभिमान करो
तुम अपनी इस स्थिरता से
कितने सागर सूख गए हैं
मौसम की अस्थिरता से।

मत भूलो हर मौसम में
हमने ही है तुम्हें संवारा ।
माना तुम हो घना समंदर
मैं नदिया की उश्रृंखल धारा।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
     हैदराबाद
     01नवंबर, 2020

आफताब हो जाऊं।

   आफताब हो जाऊं।    

कभी जो तुम बनो गुलाब तो मैं किताब हो जाऊं
तुम्हें पाकर के पन्नों में आबताब हो जाऊं।

चाहत और नहीं कोई मुझे फिर इस ज़माने से
यही कि तुमसे मिल जाऊं औ आफताब हो जाऊं।

तुम पर ही समर्पित है मेरी सांसें मेरी धड़कन
तुम्हारा जो इशारा हो मैं महताब हो जाऊं।

चाहा है औ गाया है मैंने तुमको गजलों में
तुम्हारा साथ मिल जाये मैं आबाद हो जाऊं।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
      हैदराबाद
     02नवंबर,202





नीलकंठ बनना होगा।

 नीलकंठ बनना होगा।


बहुत किया मधुपान अभी तक

विष तुझको भी पीना होगा

मुश्किल हो ये जीवन कितना

हंसकर इसको जीना होगा। 


माना तुमने  रसपान किया

अबतक भरपूर जवानी का

माना तू प्रतीक बना रहा 

अगणित प्रेम कहानी का।


मगर नए इन हालातों को

तुझको आज समझना होगा।

बहुत किया मधुपान अभी तक

विष तुझको भी पीना होगा।।


इतना कब आसान रहा है

जीवन का मरम समझ पाना

पाप-पुण्य की सीमाओं को

इतना आसान समझ जाना।


पाप-पुण्य की गहराई को

फिर से आज समझना होगा।

बहुत किया मधुपान अभी तक

विष तुझको भी पीना होगा।।


जीवन भर मधुपान किया पर

स्वाद कभी भी समझ न पाया

विष की एक घूंट पीते ही

मधु का मरम समझ में आया।


जीवन की सब कटुताओं पे

पैबंद लगा सीना होगा।

बहुत किया मधुपान अभी तक

विष तुझको भी पीना होगा।।


जीवन की ये सच्चाई है

विष-मधु दोनों साथ मिले

एक हाथ ने थामा मधु को

औ दूजे में विष लिए चले।


कुछ भी मुश्किल नहीं रहेगा

बस नीलकंठ बनना होगा।

बहुत किया मधुपान अभी तक

विष तुझको भी पीना होगा।।


 ✍️©️अजय कुमार पाण्डेय

       हैदराबाद

       29अक्टूबर,2020

पाप-पुण्य।

       पाप-पुण्य।   

क्या पाप है औ पुण्य क्या
ये वक्त हमसे पूछता है
हर घड़ी इंसान क्यूँ कर
इस वार से ही जूझता है।

दो घड़ी को साथ चलना
आज मुश्किल लग रहा है
पर अकेली राह चलना
आज सबको खल रहा है।

हर कोई एक दूसरे की 
ओर देखे जा रहा है
कौन आखिर में उठेगा
मौन सोचे जा रहा है।

सत्य की आवाज मन में 
कहीं घुटी  जो रह गयी
मान लेना सांस जीवन की
वहीं थमी सी रह गयी।

जीवन ये मंचन है सारा
पाप-पुण्य दो पात्र यहां
सबकी डोरी हाथ बंधी है
मानव निमित्त मात्र यहां।

इस विषाद के सारे क्षण से
आज हमें उठना होगा
पाप-पुण्य के मंथन का
मोह हमें त्यजना होगा।

कर्म प्रधान इस दुनिया में
कर्मों का आलिंगन कर
अमृत सा अधरों पर रखो
और शिखरों का चिंतन कर।

जीवन के शुभ आंगन को
अपने उद्दवेलित न करना
अपने कर्मयोग के बल पर
सुंदर सा जीवन रचना।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        29अक्टूबर,2020



पुकार।

        पुकार।  

वेद पुराण सभी ग्रन्थों में 
नारी को सम्मान मिला
ना जाने फिर भी क्यूँ इनको
हर युग में अपमान मिला।

तब नारी को आजादी थी
वो अपना आकाश चुनें
अपने उम्मीदों की खातिर
खुद अपना विश्वास चुनें।

फिर क्यूँ कदम कदम पर उनके
पैरों में इतनी बेड़ी है
पग पग पर अपमान यहां क्यूँ
राहों में कैसी मेंड़ी है।

उन पर अत्याचारों से
आकाश नहीं क्यूँ फट जाता
धरती क्यूँ खामोश पड़ी 
फिर सीना क्यूँ ना फट जाता।

सीता माता की खातिर 
धरती ने प्रतिकार किया
आज मगर सीताओं पर
कुंठाओं ने वार किया।

पुतले रावण के जलते हैं
हर बरस यहां चौराहों पे
पर नहीं यहां सुरक्षित नारी
क्यूँ चौकों चौराहों पे।

कहीं चली है गोली देखो
टूट रही कहीं मर्यादा है
कभी सुलगती दरवाजों में
औ चीख यहां पर ज्यादा है।

नैतिकता क्या भीष्म बन चुकी
क्या अब भी दिल नहीं पिघलता
सैरंध्री के अपमानों पर
कान्हा का मन नहीं मचलता।

आखिर कब तक अपमानों का
बोझा संस्कृतियां ढोएंगी
कितने दिन तक और अभी
ये धरती माता रोएंगी।

अब तो चेतो दुनिया वालों
वरना ऐसा दिन आएगा
रोयेगी जब सृष्टि सारी
चैन नहीं फिर मिल पायेगा।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
      हैदराबाद
      28अक्टूबर,2020












मजदूर की इच्छा।

एक प्रयास , बस यूं ही-


*मजदूर की इच्छा।*      

तंग गली का जीवन मेरा
तुम महलों के वासी हो।
हम धरती पर रहने वाले
तुम देवलोक निवासी हो।। 

तिनका तिनका जोड़ रहा हूँ
खुद को खुद में खोज रहा हूँ
खाऊं और बिछाऊं क्या
मन ही मन ये सोच रहा हूँ।

जी करता है मैं भी बोलूँ
पर यायावर वनवासी हूँ।
तंग गली का जीवन मेरा
तुम महलों के वासी हो।।

राह अकेले चलते देखा
भूख-प्यास को मरते देखा
इच्छाओं को जीवन में
पल पल रंग बदलते देखा।

नहीं चाहता धन औ दौलत
खुशियों का अभिलाषी हूँ।
तंग गली का जीवन मेरा
तुम महलों के वासी हो।।

मेरे दिन तेरी रातों में
बस इतना सा अंतर है
तुझे उजाला देने को
हमने पिया समंदर है।

इस अंतर के कई मायने
पर थोड़ा सा ध्यान धरो
मानव को मानव समझो
मानवता का सम्मान करो।

रंग लहू का एक यहां जब
फिर क्यूँ यहां उबासी है।
तंग गली का जीवन मेरा
तुम महलों के वासी हो।।

 *✍️©️अजय कुमार पाण्डेय* 
       *हैदराबाद* 
       *26अक्टूबर,2020*

बदलाव।

         बदलाव।   


कैसी ये आँधी चली कैसा अब ये दौर है
जिस तरफ भी देखिए बस शोर ही शोर है।
हर तरफ धोखाधड़ी या बाहुबल का जोर है
क्षितिज अब दिखता नहीं, दिखता न कोई छोर है।
हर तरफ आरोप औ चालाकियाँ है दिख रहे
क्यूँ ये लगता काल भी नादानियाँ हैं लिख रहे।
कदम कदम पे चोट है लहर लहर में घाव है
दरख्तों की भीड़, पर मिलती न कोई छांव है।
हर दिलों में आज क्यूँ बारूद जैसा पल रहा
इंसान क्यूँ इंसानियत के वजूद को छल रहा।
पद, प्रतिष्ठा, मान का संज्ञान छूटा जा रहा
लग रहा जैसे कोई स्वाभिमान लूटा जा रहा।
लोभ, मोह, स्वार्थ का अब बोलबाला हो रहा
सत्यकाम, सत्य का अकेले झोला ढो रहा।
संवाद का आपस में लगता अब न कोई मोल है
हर तरफ अवसाद दिखता और दिखता झोल है।
हे कलम कुछ ऐसा लिख बदलाव फिर से आ सके
डूबती कश्ती को जो फिर से  किनारे ला सके।
हर दिलों में प्रेम पनपे, हर किसी का मान हो
सद्भाव के पुष्प महके, राष्ट्र का सम्मान हो।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
      26अक्टूबर,2020




कुछ मालूम नहीं।



   कुछ मालूम नहीं।

निकल पड़ा हूँ राह अकेले
मंजिल क्या मालूम नहीं
जायेगी तकदीर कहाँ तक
कुछ मुझको मालूम नहीं।

कहाँ मिलेगा प्यार न जानूँ
और कहाँ दुत्कार न जानूँ
कहां मिलेगा ठौर ठिकाना
और कहां सत्कार न जानूँ।

धूप मिले राहों में चाहे
या मिले मुझे छांव कहीं
कहीं प्रेम की हों बरसातें
या उजड़ी हो रात कहीं।

पीछे मुड़कर ना देखूंगा
रुसवाई मंजूर नहीं।
आज चला हूँ राह अकेले
मंजिल क्या मालूम नहीं।।

तुम कैसे सब कुछ भूल गए
क्या तुमको कुछ याद नहीं
कैसे याद दिलाऊं तुमको
जाती अब फरियाद नहीं।

जब मेरी बातों का तुमको
साथ यहां मंजूर नहीं।
निकल पड़ा फिर राह अकेले
मंजिल क्या मालूम नहीं।।

कहीं कभी जब याद सताए
खुद से बातें करना तुम
याद दिलाना सारी बातें
खुद कहना खुद सुनना तुम।

विश्वास नहीं तुमको मुझपर
जब मुझसे कोई नेह नहीं।
निकल पड़ा फिर राह अकेले
मंजिल क्या मालूम नहीं।।

तुम्हे मुबारक जीवन सारा
सारी खुशियां औ सौगातें
मेरा क्या है, मैं सह लूंगा
ताने जग के औ आघातें।

फिर से तेरी रुसवाई हो
मुझको अब मंजूर नहीं।
निकल पड़ा फिर राह अकेले
मंजिल क्या मालूम नहीं।।
✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
      25अक्टूबर,2020

माँ का दरबार।

   माँ का दरबार।   

दूर बसाइउ आपन डेरा, 
दरसन कइसे पाइब माँ
पग पग पर ठोकर लागे है,
द्वारे कइसे आइब मां।।

हम बालक नादान अही औ
तू ही अहू दुलारी मइया
हमके अपने चरण बुलावा 
तू भक्तन के प्यारी मइया।।

तोहार नेह, आशीष इहाँ 
अब हमहूँ कइसे पाइब माँ।
दूर बसाइउ आपन डेरा
दरसन कइसे पाइब माँ।।

धूप, दीप औ बाती लइके
बारी आपन जोहत बानी
अड़हुल फूल हाथ में लइके
ध्यान तिहारे खोवल बानी।

हम बालक नादान अही 
कइसे गुहार लगाइब माँ।
दूर बसाइउ आपन डेरा
दरसन कइसे पाइब माँ।।

संकट हमरो दूर करा माँ
गलती सारी क्षमा करा
आपन नेह दिखावा मइया
यहि बालक पर दया करा।

हम पर भी आशीष करा माँ
कइसे भेंट चढ़ाइब माँ।
दूर बसाइउ आपन डेरा
दरसन कइसे पाइब माँ।।

 ✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       25अक्टूबर,2020

विजयादशमी- आवाहन।




विजयादशमी- आवाहन।         


आओ फिर कण कण में देखो पूण्य बेला खो रही

ढल रही है दीप्ति सारी धवल किरण है खो रही।

आज दिनकर भी धरा पर शांत है अब हो रहा

चांदनी  का  नेह  शीतल  जाने  कैसे  खो रहा।


प्रभु राम क्या तुमको हमारी याद अब आती नहीं

या हमारी प्रार्थना अब तुमतक पहुंच पाती नहीं।

हो गयी क्या भूल हमसे जो धरा को भूल गए

या यहां के त्रास में वो अहसास सारे भूल गए।


है नहीं अब और कोई ना ही कोई आस है

अंधड़ों का दौर दिखता, न दिख रहा प्रभात है।

आज हर मोड़ पे सीतायें कितनी विलख रहीं

उनके हृदय की वेदना आंखों से है छलक रही।


आ भी जाओ अब प्रभु एक तुमसे आस है

छोड़ तुम सकते नहीं हमको यही विश्वास है।

वेदना जब जब सतायी याद तुम आये  प्रभु

अंधकार जब भी बढ़ा, प्रकाश तुम लाये प्रभु।


ये ना सोचो राष्ट्र तुमको भूल सकता है कभी

आज जो जीवन मिला है वो आपका ही है प्रभु।

अपने ही तो कहा था आप आओगे वहां

धर्म पर जहां चोट होगी आप जाओगे वहां।


आपके आने में प्रभु अभी और कितनी देर है

दुर्भाग्य है कैसा यहां या वक्त का ये फेर है।

दर्द में सब जी रहे हैं संजीवनी बस आप हो

इस देह रूपी पंचपात्र की आचमनी आप हो।


आज मानव ज्ञान, गुण, सम्मान सारा खो रहा

ऐसा लगता सत्य का अपमान है अब हो रहा।

आज कैसा वक्त है और  कैसी आयी ये घड़ी

जिस तरफ भी देखिए निज स्वार्थ की सबको पड़ी।


ऐसे इन हालात में सब सम्मान सारे खो रहे

आपने जो भी बनाया प्रतिमान सारे खो रहे।

जो आ नहीं सकते प्रभु तो हमको ऐसी शक्ति दो

सम्मान फैले बस मनुज का हमको ऐसी भक्ति दो।


है यही विनती हमारी अब इसे स्वीकार करो

अवतरण हो ज्ञान का सबका प्रभु उद्धार हो।

धर्म की स्थापना हो, प्रेम हो कण कण यहां

ज्ञान का विस्तार हो धाम बन जाये जहां।।


 ✍️©अजय कुमार पाण्डेय

       हैदराबाद 

       25अक्टूबर,2020

इक कसक।

  इक कसक।

जो गुनगुनाया ना गया
वो राग बन गया हूँ मैं।
जल के भी जो ना बुझी
वो आग बन गया हूँ मैं।।

जिधर भी देखो धुंध का
इक आवरण लिपटा हुआ
दर्द भी नासूर बनकर
अब मौन है, चिपटा हुआ।

अपने ही इस देह में
वनवास बन गया हूँ मैं।
जल के भी जो ना बुझी
वो आग बन गया हूँ मैं।।

सूर्य से पहले सफर में
हर बार मैं तो चल पड़ा
साथ ना आया कोई
था देर तक फिर भी खड़ा।

जिंदगी में इंतज़ार की
पहचान बन गया हूँ मैं।
जल के भी जो ना बुझी
वो आग बन गया हूँ मैं।।

जज्बात की रौ में बह
फिर मौन जब कुछ कह उठा
रिश्ते कुछ ऐसे बुझे
बस थोड़ा सा धुंआ उठा।

बच गए जज्बातों की
राख बन रह गया हूँ मैं।
जल के भी जो ना बुझी
वो आग बन गया हूँ मैं।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       24अक्टूबर
,2020

विश्वास नहीं खोना।

विश्वास नहीं खोना।   

धीर नहीं खोना मन मेरे
दुःख के बादल हट जाएंगे
किरण नई फिर से फूटेगी
पुनः अंधेरे छँट जाएंगे।

कहीं अँधेरे कहीं उजाले
ये जीवन की बारातें हैं
बस कुछ दिन की बातें हैं
फिर अपने दिन औ रातें हैं।

इनसे ना डर कर रुक जाना
आज घने, कल छँट जाएंगे।
धीर नहीं खोना मन मेरे
दुःख के बादल हट जाएंगे।।

कहने को तो सब अपने हैं
पर कितने, कहना मुश्किल है
चले सफर में यहां सभी पर
साथ रहा जो, तेरा दिल है।

बिछड़े यहां सफर में जो भी
कहीं कभी फिर मिल जाएंगे।
धीर नहीं खोना मन मेरे
दुःख के बादल हट जाएंगे।।

चाहे कितनी मुश्किल आये
लाख अँधेरे पथ भटकाएँ
जीवन से अहसास न खोना
बस खुद से विश्वास न खोना।

विश्वास अटल, जो बना रहा
वीराने भी खिल जाएंगे।
धीर नहीं खोना मन मेरे
दुःख के बादल हट जाएंगे।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
      22अक्टूबर,2020

श्री भरत व माता कैकेई संवाद

श्री भरत व माता कैकेई संवाद देख अवध की सूनी धरती मन आशंका को भाँप गया।। अनहोनी कुछ हुई वहाँ पर ये सोच  कलेजा काँप गया।।1।। जिस गली गुजरते भर...