बिखरी यहॉं चहुँओर है
पाश में तेरे मुझे
आकर मिला इक ठौर है।
है सुनहरी रात जब
फिर कौन सोएगा यहाँ
संग अपने देखना
ये रात जागेगी यहाँ।
ये रात जागेगी यहाँ।
प्रीत की ये वो घड़ी
जो रोज आती है नहीं
और इसकी खुशबुएँ
अवसान तक जाती नहीं।
आज अपनी रात के
चाँद तारे हैं बराती
और उनकी रश्मियाँ
भावनाओं को जगाती।
पूर्णिमा का चाँद भी
यूँ देख फीका हो रहा
और तेरे रूप के
इस तेज में वो खो रहा।
पर मुखर होकर यहाँ
इक छाँव हमको दे रही
ग्रीष्म की प्रचंड धूप
जैसे कि ठंडी हो रही।
नीड़ में सब पखेरू
भर रात चहकेंगे यहाँ
और पुष्पावली से
ये रात महकेगी यहाँ।
डूब जाएं हम यहाँ
एक दूजे को सौंपकर
एक हो जाएं यहाँ
बंधनों को तोड़कर।
आज अपनी प्रीत से
नवगीत का निर्माण हो
झूम उठे चाँदनी
नव रीत का प्रमाण हो।।
✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
07दिसंबर,2020
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