इच्छाओं का आकाश।

इच्छाओं का आकाश।

कदम कदम पर लोग खड़े हैं
ख्वाहिश का अंबार लिए
चले जा रहे अपनी धुन में
कितने धूल गुबार लिए।।

अंधकार से कोसों दूर
यहाँ सभी को जाना है
दूर क्षितिज की सीमा तक
इच्छाओं को पाना है।

इच्छाओं में होड़ मची है
मूक मगर संवाद लिए।
चले जा रहे अपनी धुन में
कितने धूल गुबार लिए।।

लगता जीवन सिमट रहा है
निजता के तहखानों में
जैसे चेतना सुप्त पड़ी है
चिंता और अरमानों में।

सिमट रही है मधुर चेतना
उम्मीदों का भार लिए।
चले जा रहे अपनी धुन में
कितने धूल गुबार लिए।।

वरदानों की ख्वाहिश में
पल पल जीवन लुटा जा रहा
सपनों की यूँ गठरी भारी
मन ही मन सब घुटा जा रहा।

बीत रहे पल छिन जीवन के
कितने ही अवतार लिए।
चले जा रहे अपनी धुन में
कितने धूल गुबार लिए।।

करने को तो बहुत किया पर
जितना चाहा मिला नहीं
गैरों की बातें क्या करना
अपनों से भी गिला नहीं।

इस छोटे से जीवन में
बड़े बड़े उपकार लिए।
चले जा रहे अपनी धुन में
कितने धूल गुबार लिए।।

सिमट रही है धरती सारी
सिक्कों की आवाजों में
लगता जैसे जंग छिड़ी हो
सारे रीति रिवाजों में।

अरमानों के पैबंदों में
सपनों का आकार लिये
चले जा रहे अपनी धुन में
कितने धूल गुबार लिए।।

 ✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       24नवंबर, 2020

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