विजयादशमी- आवाहन।




विजयादशमी- आवाहन।         


आओ फिर कण कण में देखो पूण्य बेला खो रही

ढल रही है दीप्ति सारी धवल किरण है खो रही।

आज दिनकर भी धरा पर शांत है अब हो रहा

चांदनी  का  नेह  शीतल  जाने  कैसे  खो रहा।


प्रभु राम क्या तुमको हमारी याद अब आती नहीं

या हमारी प्रार्थना अब तुमतक पहुंच पाती नहीं।

हो गयी क्या भूल हमसे जो धरा को भूल गए

या यहां के त्रास में वो अहसास सारे भूल गए।


है नहीं अब और कोई ना ही कोई आस है

अंधड़ों का दौर दिखता, न दिख रहा प्रभात है।

आज हर मोड़ पे सीतायें कितनी विलख रहीं

उनके हृदय की वेदना आंखों से है छलक रही।


आ भी जाओ अब प्रभु एक तुमसे आस है

छोड़ तुम सकते नहीं हमको यही विश्वास है।

वेदना जब जब सतायी याद तुम आये  प्रभु

अंधकार जब भी बढ़ा, प्रकाश तुम लाये प्रभु।


ये ना सोचो राष्ट्र तुमको भूल सकता है कभी

आज जो जीवन मिला है वो आपका ही है प्रभु।

अपने ही तो कहा था आप आओगे वहां

धर्म पर जहां चोट होगी आप जाओगे वहां।


आपके आने में प्रभु अभी और कितनी देर है

दुर्भाग्य है कैसा यहां या वक्त का ये फेर है।

दर्द में सब जी रहे हैं संजीवनी बस आप हो

इस देह रूपी पंचपात्र की आचमनी आप हो।


आज मानव ज्ञान, गुण, सम्मान सारा खो रहा

ऐसा लगता सत्य का अपमान है अब हो रहा।

आज कैसा वक्त है और  कैसी आयी ये घड़ी

जिस तरफ भी देखिए निज स्वार्थ की सबको पड़ी।


ऐसे इन हालात में सब सम्मान सारे खो रहे

आपने जो भी बनाया प्रतिमान सारे खो रहे।

जो आ नहीं सकते प्रभु तो हमको ऐसी शक्ति दो

सम्मान फैले बस मनुज का हमको ऐसी भक्ति दो।


है यही विनती हमारी अब इसे स्वीकार करो

अवतरण हो ज्ञान का सबका प्रभु उद्धार हो।

धर्म की स्थापना हो, प्रेम हो कण कण यहां

ज्ञान का विस्तार हो धाम बन जाये जहां।।


 ✍️©अजय कुमार पाण्डेय

       हैदराबाद 

       25अक्टूबर,2020

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