पाप-पुण्य।
ये वक्त हमसे पूछता है
हर घड़ी इंसान क्यूँ कर
इस वार से ही जूझता है।
दो घड़ी को साथ चलना
आज मुश्किल लग रहा है
पर अकेली राह चलना
आज सबको खल रहा है।
हर कोई एक दूसरे की
ओर देखे जा रहा है
कौन आखिर में उठेगा
मौन सोचे जा रहा है।
सत्य की आवाज मन में
कहीं घुटी जो रह गयी
मान लेना सांस जीवन की
वहीं थमी सी रह गयी।
जीवन ये मंचन है सारा
पाप-पुण्य दो पात्र यहां
सबकी डोरी हाथ बंधी है
मानव निमित्त मात्र यहां।
इस विषाद के सारे क्षण से
आज हमें उठना होगा
पाप-पुण्य के मंथन का
मोह हमें त्यजना होगा।
कर्म प्रधान इस दुनिया में
कर्मों का आलिंगन कर
अमृत सा अधरों पर रखो
और शिखरों का चिंतन कर।
जीवन के शुभ आंगन को
अपने उद्दवेलित न करना
अपने कर्मयोग के बल पर
सुंदर सा जीवन रचना।।
✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
29अक्टूबर,2020
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