शायद किस्मत खुल जाए।

शायद किस्मत खुल जाए।   

राजनीति के महासमर में
कितने आये और गए
कुछ ने दिया सहारा सबको
कुछ भवसागर पार गए।

कुछ ने मान बढ़ाया सबका
कुछ लोकतंत्र को तार गए
कुछ शुचिता को सम्मान दिए
कुछ शुचिता को मार गए।

चेहरों पे चेहरे कितने
कौन यहाँ पहचानेगा
दिल मे किसके भाव छुपा क्या 
कैसे कोई जानेगा।

 बेनकाब चेहरों के पीछे
असली चेहरे छिपे हुए हैं
कितने भाव उजागर होते
औ कितने दबे हुए हैं।

है तिलस्म सा बना हुआ 
सच जिससे डर जाता है
राजनीति का खेल अजब है
ताकतवर भय खाता है।

अपने जैसे सारे लगते
अपना लेकिन कौन यहाँ
शीशे के घर रहने वाले
दूजे पर करते वार यहाँ।

लगने को सब अच्छे लगते
दिखते सारे चंगे हैं
लेकिन हमाम में जैसे देखा
दिखते सारे नंगे हैं।

मुँह में राम बगल में छूरी
बात यहाँ सच लगती है
हांडी चाहे जिसकी भी हो
खिचड़ी सबकी पकती है।

खड़ा ठंड में कांप रहा वो
देख दीप की बाती को
एक हाथ उम्मीदें थामे
दूजे में थामे लाठी को।

कभी आँच उसतक भी पहुँचे
उसकी भी खिचड़ी पक जाए
कोई बीरबल उसे मिल जाये
उसकी भी किस्मत खुल जाए।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
     हैदराबाद
     28दिसंबर, 2020





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