नदी और समंदर का संवाद।

नदी और समंदर का संवाद।


माना तुम हो घना समंदर
मैं नदिया की इक धारा
माना तुम हो स्थिर, शांत, विरल
मैं चंचल उश्रृंखल धारा।

कितने ही तूफान समेटे
अपने भीतर रहते हो
चुपचाप देखते हो सबकुछ
ना सुनते ना कहते हो।

चाहे कैसा भी हो मौसम
सबका तुमसे है यारा।
माना तुम हो घना समंदर
मैं चंचल उश्रृंखल धारा।।

दुनिया भर के महाद्वीप के
तट से मिलते रहते हो
पर अपनी ही नदियों से
टुकड़ों में तुम मिलते हो।

तुमसे जब इतनी उम्मीदें
तब जल तेरा  क्यूं खारा।
माना तुम हो घना समंदर
मैं नदिया की उश्रृंखल धारा।।

राहों के कंकर पत्थर को
हमने भी राह दिखाई है
सूखी बंजर धरती पर भी
हमने फसलें  लहराई है।

हर मौसम से लड़कर हमने
तुमको दिया सहारा है।
माना तुम हो घना समंदर
मैं नदिया की उश्रृंखल धारा।।

मत इतना अभिमान करो
तुम अपनी इस स्थिरता से
कितने सागर सूख गए हैं
मौसम की अस्थिरता से।

मत भूलो हर मौसम में
हमने ही है तुम्हें संवारा ।
माना तुम हो घना समंदर
मैं नदिया की उश्रृंखल धारा।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
     हैदराबाद
     01नवंबर, 2020

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